इंटरसेक्शनलजेंडर अच्छी माँ बनने के संघर्ष में महिलाएं| नारीवादी चश्मा

अच्छी माँ बनने के संघर्ष में महिलाएं| नारीवादी चश्मा

अच्छी माँ का विचार समाज की हवा में इस कदर घुला हुआ है कि जैसे ही कोई माँ बच्चे पैदा होने के बाद अपनी पहचान तलाशती है, वो बुरी बन जाती है।

हमारे भारतीय समाज में महिला को उसके अस्तित्व से ज़्यादा उसकी भूमिकाओं से जाना जाता है। वे कभी किसी की माँ के रूप में जानी जाती है तो कभी किसी की बेटी, कभी किसी पत्नी तो कभी किसी की बहु, ये भूमिकाएँ महिलाओं के जीवन पर इस कदर हावी होती है कि वे कब महिला का अस्तित्व, उनकी पहचान बन जाती है पता ही नहीं चलता। यही पितृसत्ता का चरित्र है, जो महिला के अस्तित्व को अलग-अलग भूमिकाओं में बांध देता है। आइए आज चर्चा करते है महिलाओं की इन्हीं भूमिकाओं में से एक महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में जो न केवल महिला के अस्तित्व को प्रभावित करती है बल्कि कई बार पितृसत्ता को पीढ़ी दर पीढ़ी क़ायम रखने में अहम भूमिका भी अदा करती है।

मैं बात कर रही हूँ महिला के ‘माँ’ होने की भूमिका की। ‘माँ’ को हमारे समाज में बेहद पूजनीय बताया गया है, फिर वो देवी माँ हो या फिर अपनी माँ हो। ‘माँ’ यानी कि वो महिला जो बच्चे को जन्म देती है या फिर बच्चे का लालन-पालन करती है। पर पितृसत्ता सिर्फ़ माँ को नहीं बल्कि अच्छी माँ को क़बूल करती है। उसे सभी विशेषाधिकार देती है। उसे एक विशेष सत्ता देती है। सम्मान देती है।

आज भी हमारे भारतीय समाज में जब तक कोई महिला शादी के बाद माँ नहीं बनती, उसे पूरा नहीं माना जाता। ग़ौर करने वाली बात है कि यहाँ ‘पूरा होने’ का मतलब उसकी वैधता से है। अधिकतर नवविवाहित महिलाओं को माँ बनने के दबाव से गुजरना पड़ता है। शादी के बाद हर समस्या का हल सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चे पैदाकर ख़ुद माँ की भूमिका में आ जाना बताया जाता है। अगर महिला और पुरुष शादी से खुश नहीं तो उन्हें अक्सर सलाह दी जाती है – ‘बच्चा कर लो सब ठीक हो जाएगा।‘

और पढ़ें : पितृसत्ता का शिकार होती महिलाओं को पहचानना होगा इसका वार| नारीवादी चश्मा

कहने को तो इन बातों में कुछ नया नहीं है पर वास्तव में इसकी राजनीति की नियत ही एकदम अलग है। ये पितृसत्ता की महिलाओं के विरुद्ध वो नीति है जो उसके अस्तित्व, दायरे, सोचने-समझने की वैचारिकी और अधिकारों को समेटने में अहम भूमिका अदा करती है। जैसे ही महिला घर और समाज के दबाव के बाद बच्चे पैदा करती है, इस उम्मीद से कि अब सब ठीक हो जाएगा, वहीं से समस्याओं का नया रूप पनपने लगता है और ये रूप होता है – अच्छी माँ बनने का फ़र्ज़।

अच्छी माँ का विचार समाज की हवा में इस कदर घुला हुआ है कि जैसे ही कोई माँ बच्चे पैदा होने के बाद अपनी पहचान तलाशती है, वो बुरी बन जाती है।

समाज की बतायी परिभाषा के अनुसार अच्छी माँ कौन होती है? जो बच्चे की ज़िम्मेदारी से कभी परेशान न हो। जो कभी कोई शिकायत न करे। जो बच्चों के सभी शौक़ पूरे करे। जो अपना काम और पहचान छोड़कर सिर्फ़ बच्चे में ध्यान दे। जो बच्चे के नामपर अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दे। जो ख़ुद की बजाय बच्चों के लिए सपने देखे। जो पितृसत्ता के मूल्य, संस्कार और विचार को बच्चों के मन में पोसे। जो बच्चे को पितृसत्ता के बताए जेंडर के ढाँचे में जीने को मजबूर करे। जो लैंगिक भेदभाव को लागू करे। वग़ैरह-वग़ैरह। यानी कि जब महिला सख़्ती के साथ ख़ुद पर और अपने बच्चों पर पितृसत्ता के बताए नियमों को लागू करती है और उसे लेकर जीती है तो वो अच्छी माँ कहलाती है। अच्छी माँ का विचार समाज की हवा में इस कदर घुला हुआ है कि जैसे ही कोई माँ बच्चे पैदा होने के बाद नौकरी की सोचती है, ख़ुद पर ध्यान देती है, ख़ुद के लिए समय निकालती है, अपने लिए सपने देखती है, अपनी पहचान तलाशती है, वो बुरी बन जाती है।

देखते ही देखते अच्छी माँ का ये सुखद विचार कैसे महिला का दंश बन जाता है, पता ही नहीं चलता। हाल ही में आयी फ़िल्म ‘शकुंतला देवी’ में एक महिला के अच्छी माँ होने के फ़र्ज़ और इसके दंश के दर्द को बखूबी दर्शाया गया है। ये फ़िल्म बताती है कि कैसे समाज ने अच्छी माँ के कुछ मानक तय किए है और जैसे ही कोई महिला अपने बच्चे को अपने तरीक़े से प्यार करती है, उसका ख़याल रखती है और इसके साथ ही अपने अस्तित्व को क़ायम रखती है, वो बुरी बन जाती है और कुछ समय के बाद उसे अकेला छोड़ दिया जाता है।

और पढ़ें : पितृसत्ता क्या है? – आइये जाने  

हमें समझना होगा कि जिस तरह माँ बनना या न बनना किसी महिला का अपना निर्णय ठीक उसी तरह वो अपने बच्चे से अपने प्यार-स्नेह को कैसे ज़ाहिर करती है और उसके साथ किन मूल्यों को लेकर व्यवहार करती है ये भी उसका अपना निर्णय होगा। हमें समाज के चंद मानकों के आधार पर अच्छी माँ और बुरी माँ की बातें बंद करनी होगी और अपने दिमाग़ में इसबात को अच्छी तरह बैठाना होगा कि महिला के जीवन का अंतिम लक्ष्य माँ बनना नहीं है, वो माँ के साथ-साथ एक इंसान भी है, जिसके अपने सपने, विचार, शौक़, समय सब कुछ अन्य इंसानों की तरह है, जिसे हमें स्वीकार करना होगा। इसलिए अच्छी माँ की राजनीति में अपनी माँ और ख़ुद को खोने की जद्दोजहद बंद कीजिए।

और पढ़ें : पितृसत्ता पर लैंगिक समानता का तमाचा जड़ती ‘दुआ-ए-रीम’ ज़रूर देखनी चाहिए!


तस्वीर साभार : thewirehindi

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content