इंटरसेक्शनलयौनिकता गर्भधारण के बहाने महिला की यौनिकता पर पितृसत्ता का शिकंजा| नारीवादी चश्मा

गर्भधारण के बहाने महिला की यौनिकता पर पितृसत्ता का शिकंजा| नारीवादी चश्मा

ज़रूरी है कि हम माँ बनने के दबाव के पीछे समाज की उस पितृसत्तात्मक सोच को समझे वो महिला की यौनिकता पर शिकंजा कसने का काम करती है।

‘माँ बन जाओगी तो सब ठीक हो जाएगा।‘ ‘छोटा-सा परिवार हो जाएगा तो तुम्हें कोई ख़राब नहीं कर पाएगा।‘ मोहित ने नेहा को समझाते हुए कहा। शादी के दो महीने बाद से ही मोहित नेहा पर गर्भधारण के लिए दबाव बनाने लगा। कभी प्यार की निशानी तो वंश चलाने की दुहाई के नामपर। आख़िरकार न चाहते हुए भी नेहा को माँ बनाना पड़ा, जिसकी वजह से उसकी नौकरी छूट गयी और नेहा पूरी तरह मोहित पर आश्रित हो गयी।

हमें बचपन से ही ‘माँ’ का महिमामंडित चेहरा दिखाया जाता है, जो त्याग का पर्याय होता है। त्याग – अपनी इच्छाओं, अभिव्यक्ति, विचारों और आत्मसम्मान का। आज के आधुनिक युग में हम चाहे कितनी भी आधुनिक और तथाकथित प्रगतिशील बातें कर लें, लेकिन जब युवाओं का शादी के नामपर वही पितृसत्ताधारी सोच का स्वरूप दिखता है तो ऐसी आधुनिकता बेहद संकुचित और सड़ी हुई लगती है, जिसकी कोई बुनियाद नहीं है।

जैसा कि हम जानते है, महिला और पुरुष के बीच प्रकृति ने बस एक प्रमुख अंतर दिया है, वो ये कि एक महिला का शरीर अपने जैसे बच्चे पैदा कर उन्हें दूध पिला सकता है और एक पुरुष का शरीर उस बच्चे के लिए बीज तैयार कर सकता है। लेकिन हमारे समाज ने प्रकृति के इस भेद को अपने भाव में बदल लिया और इस अंतर को ‘सत्ता’ का प्रमुख आधार चुन लिया। इसी आधार पर पितृसत्ता सदियों से राज करती आ रही है।

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हमारे समाज में असली मर्द की परिभाषा का अहम बिंदु है अपने से संबंधित महिला पर अपना वर्चस्व बनाए रखना इसलिए अक्सर महिला को गर्भवती करना पुरुष को अपने वर्चस्व के एक चिन्ह के रूप में दिखाया-बताया जाता है।

महिला बच्चे को जन्म दे सकती है उसकी इस खूबी को समाज ने पितृसत्ता की विचारधारा के प्रमुख केंद्र में रखा, जिससे महिला की ज़िंदगी और उसके अस्तित्व को ये जैसे चाहे वैसे मोड़ता है। इसी आधार पर समाज ‘रक्त की शुद्ध’ बनाए रखने का बोझ महिलाओं के माथे इज़्ज़त और पवित्रता के नामपर मढ़ता है, तो वहीं इसे महिलाओं की यौनिकता पर अपना शिकंजा कसने में भी इस्तेमाल करता है। बच्चे को जन्म देते ही महिला की भूमिकाओं में काफ़ी तब्दीली आती है और इसका पहला वार होता है महिला की गतिशीलता पर, जिसके चलते वो कहीं भी आने-जाने में ख़ुद को असहज पाती है या यों कहें कि बना दी जाती है।

इसके साथ ही, चूँकि हमारे समाज में असली मर्द की परिभाषा का अहम बिंदु है अपने से संबंधित महिला पर अपना वर्चस्व बनाए रखना इसलिए अक्सर महिला को गर्भवती करना पुरुष को अपने वर्चस्व के एक चिन्ह के रूप में दिखाया-बताया जाता है। इसी सोच चलते, शादी के बाद जल्द से जल्द बच्चे पैदा करने की बात की जाती है, जिससे महिला का ध्यान और उसका जीवन आसानी से बच्चे पर केंद्रित किया जा सके। बस बच्चे के जन्म की देरी है, उसके बाद समाज अपनी पितृसत्ता की सत्ता को तुरंत महिला पर क़ायम करने में जुट जाती है, कभी अच्छी माँ के तमग़े से तो कभी अच्छे चरित्र के तमग़े से।असल मायने में माँ बनाना या नहीं बनाना महिला का अपना निर्णय है, जिसे स्वीकार किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, ज़रूरी है कि हम माँ बनने के दबाव के पीछे समाज की उस पितृसत्तात्मक सोच को समझे वो महिला की यौनिकता पर शिकंजा कसने का काम करती है।

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तस्वीर साभार : www.pri.org

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