समाज दहेज प्रथा के खिलाफ सामूहिक लड़ाई है ज़रूरी

दहेज प्रथा के खिलाफ सामूहिक लड़ाई है ज़रूरी

बात सालों पहले की हो या आज की, भारत में शादियों और दहेज प्रथा को बहुत महत्व दिया जाता है। अकसर इन शादियों में लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं।

पिछले दिनों जब पाकिस्तानी फैशन डिज़ाइनर अली ज़ीशान और युएन वीमेन पाकिस्तान के दहेज प्रथा के खिलाफ़ संयुक्त प्रयास ‘नुमाइश’ वायरल हुई, तो अचानक ही मुझे मेरे जीवन की एक घटना याद आ गई। यह घटना उन दिनों की है जब मैं बारहवीं पास करने वाली थी। उस वक़्त मेरी एक सहेली पर पढ़ाई का दबाव कम और लगभग हर हफ्ते लड़के वालों से मिलने का दबाव ज्यादा होता था। उन्हीं दिनों बारहवीं खत्म होने के फौरन बाद उसकी शादी तय कर दी गई। हालांकि उन दिनों लाखों के दहेज का कोई मौका नहीं था, लेकिन लड़केवालों की मांग ने उसके परिवार को परेशान कर दिया। लड़केवालों से की गई लाख मिन्नत के बावजूद, मेरी सहेली की धूमधाम से शादी करने की इच्छा पूरी नहीं हुई और कर्ज में डूबे परिवार को मंदिर में ही शादी निपटानी पड़ी।

बात सालों पहले की हो या आज की, भारत में शादियों को बहुत महत्व दिया जाता है। अकसर इन शादियों में लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं, खास कर अगर लड़की की शादी हो तो दहेज के रूप में। हमारा संविधान महिलाओं को समान अधिकार देता तो है लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा उन्हें अपने व्यक्तिगत संपत्ति से रूप में ही देखा है। दहेज प्रथा जैसे सामाजिक कुप्रथा ने महिलाओं को एक वस्तु के रूप में ला खड़ा कर दिया है जिसकी गरिमा, इच्छा, आज़ादी और यहां तक कि उसकी जान भी पैसों के ज़रिये खरीदी जा सकती है।

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हालांकि दहेज के खिलाफ मुहिम तो कई चलाई जाती हैं। इस प्रथा के ख़िलाफ़ साल 1961 से ही कानून भी मौजूद है। कुछ दिनों पहले भारत में भी दहेज प्रथा के खिलाफ ‘खोटा सिक्का’ वाले विज्ञापन को काफी सराहा गया था। लेकिन सवाल है कि क्यों आज भी दहेज़ प्रथा के खिलाफ कानून के होते हुए भी दहेज के बिना लड़कियों की शादी में कठिनाई होती है या कई बार होती ही नहीं। महिलाओं को दहेज के लिए हिंसा का सामना क्यों करना पड़ता है। नेशनल क्राइम रिपोर्ट्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार साल 2018 के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,78,236 मामलों के मुकाबले 2019 में 4,05,861 मामले दर्ज किए गए। इनमें सबसे अधिक 30.9 प्रतिशत मामले पति या उनके रिश्तेदार द्वारा किए गए क्रूरता के थे। 

शादी को सामाजिक तौर पर एक जोड़े के रिश्ते का प्रमाण पत्र माना जाता है। वहीं तथाकथित लोक-लाज के डर से लड़की का परिवार दहेज लेने वाले के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाता। दहेज न देने या शादी के बाद बढ़ती मांग और मांग पूरा न होने पर उत्पीड़ित किए जाने के कारण, महिलाओं के लिए ‘घर’ सबसे खतरनाक जगह बन जाती है। लैंगिक असमानता और रूढ़िवाद के परिणामस्वरूप, दहेज प्रथा की शिकार महिलाएं उत्पीड़न का बोझ उठाती रहती हैं। दकियानूसी विचारों में जकड़ा, विवाह के बाद ससुराल को लड़की का घर बताने वाला समाज न तो लड़कियों की सुरक्षा सुनिश्चित कर पाता है, न ही उसके आवाज़ उठाने पर उसका साथ दे पाता है।    

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भारत को आज एक प्रगतिशील देशों में से एक माना जाता है। एक ऐसा देश जहां नारी सशक्तिकरण के दावे किए जा रहे हैं। लेकिन इस सामाजिक कुप्रथा को इतना सामान्य बना दिया गया है कि आज के दौर में ऐसा प्रतीत होता है कि बिना दहेज़ के किसी भी लड़की की शादी होना असंभव है। साथ ही दहेज न देने की स्थिति में लड़की के परिवारवालों के मन में हमेशा ही यह डर बना रहेगा कि दहेज़ की मांग पूरी करने के बावजूद लड़की किसी उत्पीड़न का शिकार तो नहीं हो रही। अगर मांग बढ़ती रहे तो बिना दोष के ही लड़की परिवार के लिए आर्थिक बोझ बनी रहेगी। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में दहेज़ हत्या के कारण जिन महिलाओं ने अपनी जान गंवाई उनकी संख्या 7115 थी। आईपीसी के तहत अपराधों में, पति या उसके रिश्तेदार द्वारा किए गए क्रूरता के मामले 2018 में जहां 1,03, 272 थे। वहीं ये मामले बढ़कर साल 2019 में 1,25,298 हो गए।

दहेज़ प्रावधान अधिनियम कहता है कि दहेज़ लेना और देना कानूनी जुर्म है लेकिन उपहार के नाम पर दिए और लिए गए चीज़ों को किस सीमा तक दहेज़ नहीं कहा जाएगा, यह बात स्पष्ट नहीं है। कई बार उपहार के नाम पर, कभी बारातियों के अच्छे स्वागत, कभी बेटी के उज्ज्वल भविष्य तो कभी दामाद के पढ़े-लिखे और नौकरीपेशा होने का हवाला देकर ऐसे मांगों को पूरा करने का दबाव दिया जाता है। आज एनसीआरबी के दहेज़ को लेकर अपराधों में, महानगरों के आंकड़े यह बताते हैं कि यह समस्या सिर्फ ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं है। न ही ‘पढ़े-लिखे’ या ‘संपन्न परिवार’ इससे अछूते हैं। संभवतः ‘स्त्री-धन’ के रूप में शुरू हुई यह प्रथा, सामाजिक कुप्रथा का रूप ले चुकी है जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी प्रभावित हैं।

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महिलाओं की आर्थिक स्वाधीनता न होना, कानून की जानकारी न होना दहेज़ प्रथा की समस्या को बढ़ावा देता है। दहेज़ के लिए उत्पीड़न के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले राज्यों में से एक बिहार ने साल 2017 से हर साल स्कूली बच्चों और शिक्षकों का दहेज़ प्रथा, बाल विवाह और शराब बंदी जैसे मुद्दों के लिए मानव श्रृंखला का आयोजन किया है। साल 2017 और की 11,000 किलोमीटर लम्बी यह शृंखला लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है। इन सब के बावजूद एनसीआरबी के अनुसार, 2019 में, दहेज़ को लेकर मृत्यु के मामलों में जहां उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा वहीं, बिहार दूसरे पायदान पर था। स्कूली बच्चों को दहेज़ प्रथा के खिलाफ कानून की जानकारी न देना, इस कुप्रथा के गंभीर दुष्परिणाम को विस्तारित रूप से चर्चा न करना, असल मुद्दे से भटकना है। स्कूली शिक्षक और बच्चे भले ही ऐसे मानव श्रृंखला से जुड़ते हो, रिकॉर्ड करने की होड़ और राजनीतिक सफलता पाने की आड़ में किए जाने वाले ऐसे कार्यक्रम न तो समस्या की असल कारण को टटोलते हैं न ही चर्चा करना चाहते हैं।

निश्चित ही आज नारी सशक्तिकरण में हम आगे बढ़े हैं पर दहेज़ के नाम पर उत्पीड़न या हत्या न केवल परिवार के लिए दुखद होती है बल्कि आर्थिक चुनौतियां भी खड़ी करती है। यह हमारे सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था के दोषों को उजागर करती है और शादी से जुड़े पितृसत्तात्मक नियमों पर सवाल उठाती है। दहेज़ के खिलाफ कानून का सुचारु रूप से लागू न होने में, समाज में परिवार या महिला का बहिष्कार या बदनामी होने का डर एक प्रमुख कारणों में से एक है। साथ ही हर गली या हर मोहल्ले की बेटियों को सुरक्षित रखने के लिए जिस आधार संरचना की जरूरत है, वह मौजूद नहीं है। पीड़ित कभी समाज के डर से, तो कभी बच्चे के भविष्य के लिए, कभी अपनी जान की सुरक्षा के लिए तो कभी अपने ही परिवार को बचाने के लिए चुप रहने का कठिन निर्णय ले लेती है। ऐसे में एक सरल और निष्पक्ष न्यायिक व्यवस्था का होना जरूरी है। दहेज़ के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले को हीन नज़रों से देखने की मानसिकता बदलनी होगी और एक संवेदनशील समाज का गठन करना होगा। उपहार के नाम पर शोषण को बंद करना होगा। जरूरी है कि इसे शादी के कसौटी के रूप में न देखे और इस कुप्रथा के बहिष्कार में सामूहिक जिम्मेदारी निभाए।

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तस्वीर साभार : अली ज़ीशान का इंस्टाग्राम पेज

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