समाज ‘लड़का इंजीनियर है तो 20 लाख, डॉक्टर है तो 40 लाख’ हमारे समाज की घिनौनी सच्चाई है दहेज

‘लड़का इंजीनियर है तो 20 लाख, डॉक्टर है तो 40 लाख’ हमारे समाज की घिनौनी सच्चाई है दहेज

आधुनिक समय में दहेज प्रथा ऐसा रूप धारण कर चुकी है जिसमें लड़केवाले के परिवार वालों का सम्मान लड़के को मिले हुए दहेज पर ही निर्भर करता है।

‘दहेज’ जब से कुछ सोचने-समझने के काबिल हुई हूं तब से इस शब्द से मुझे चिढ़ हो गई है। यह एक ऐसा शब्द है जिसका मतलब शायद ही बिहार में कोई ना जानता हो। एक लड़की जब जन्म लेती है तभी से उसका परिवार उसके दहेज के बारे में सोचना शुरू कर देता है। अगर वह ना सोचे तो यह समाज उसे यह सोचने पर मजबूर करता है कि उसने एक बेटी को जना है इसलिए उसे जीवन के हर मोड़ के लिए सतर्क रहना होगा। जैसे कि परिवार ने किसी बेटी को जन्म देकर कोई अपराध किया है और उस अपराध को छिपाने के लिए उसे हमेशा सतर्क रहना होगा। उसे हमेशा यह सोचते रहना होगा कि उसकी बेटी कब कहां है, क्या कर रही है, किस से मिल रही है, किस से क्या बातें कर रही है। इस समाज के अनुसार एक आदर्श परिवार को सब मालूम होना चाहिए। बेटे के बाप को अगर यह सब ना भी पता हो तो इस तथाकथित समाज को इससे कोई परेशानी नहीं होती है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। दीदी, भैया के होने के लगभग सात साल बाद मैं पैदा हुई थी। एक तो मैं अनचाही औलाद थी ऊपर से लड़की। तो समाज के ठेकेदारों को चिंता तो होनी ही थी। मेरे माता-पिता को तो यहां तक कहा गया था कि क्या जरूरत थी फालतू में एक और बच्चा पैदा करने की। ‘फालतू’ हां मुझे इसी शब्द बुलाया गया था। बस इसलिए क्योंकि मैं लड़की थी और मेरे परिवार वालों को मेरे लिए दहेज इकट्ठा करना पड़ेगा।

समाज में किसी भी प्रथा की शुरुआत किसी विशेष उद्देश्य और सद्भावना के साथ किया जाता है। धीरे-धीरे समय के साथ परंपरा को समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार ढालने लगता है तो वही प्रथा , कुप्रथा में तब्दील हो जाती है। समाज में कई कुप्रथाएं पहले से चलती आई हैं। जैसे सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा इत्यादि। समय के साथ कुछ प्रथाएं खत्म हुई तो कुछ ने पहले से और भयावह रूप दिखाया है। उन्हीं में से एक दहेज प्रथा भी है। जो बीतते समय के साथ अपनी टांगे पसार रही है। एक लड़की चाहे कितना भी पढ़-लिख ले चाहे वह समाज के सारी चुनौतियों पर खरी उतर जाए लेकिन फिर भी इस कुप्रथा के चुंगल से नहीं बच पाती है। इस कुप्रथा का शिकार होने के लिए एक शरीर का मात्र लड़की होना काफी होता है।

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आज इस प्रथा का भयावह रूप हमारे सामने आया जिसमें स्त्रीधन शब्द पूरी तरह गौण हो गया है। आधुनिक समय में दहेज प्रथा ऐसा रूप धारण कर चुकी है जिसमें लड़केवाले के परिवार वालों का सम्मान लड़के को मिले हुए दहेज पर ही निर्भर करता है। वह खुलेआम अपने बेटे का सौदा करने के लिए राजी रहते हैं। प्राचीन परंपराओं के नाम पर युवती के परिवार वालों पर दबाव डाल उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। इस प्रथा ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है‌। संपन्न परिवारों को दहेज देने या लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती क्योंकि उन्हें यह मात्र एक निवेश लगता है। उनका मानना है कि धन और उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह उनके मान-सम्मान को बढ़ाने के साथ-साथ बेटी को भी खुशहाल जीवन देगा। लेकिन गरीब परिवारों के लिए बेटी का विवाह करना बहुत भारी पड़ जाता है। वह जानते हैं कि अगर दहेज का प्रबंध नहीं किया तो बेटी की शादी नहीं हो पाएगी। शिक्षित और संपन्न परिवार भी दहेज लेना अपनी परंपरा का एक हिस्सा मानते हैं तो ऐसे में अल्पशिक्षित या अशिक्षित लोगों की बात करना बेमानी है।

आधुनिक समय में दहेज प्रथा ऐसा रूप धारण कर चुकी है जिसमें लड़के वाले के परिवार वालों का सम्मान लड़के को मिले हुए दहेज पर ही निर्भर करता है। वह खुलेआम अपने बेटे का सौदा करने के लिए राजी रहते हैं।

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क्या सचमुच यही हमारे मूल्य हैं, जिस भारतीय संस्कृति का ढोल हम पूरे संसार में पिटते हैं, क्या वह हमें हमारे बच्चों का मोलभाव करना सिखाता है? अक्सर अरेंज्ड मैरिज में बेटों का मोलभाव ही तो होता है। अगर बेटा इंजीनिय है तो 20 लाख रुपए, दरोगा है तो 40 लाख रुपए, वगैरह-वगैरह और मनपसंद उपहारों की सूची अलग से। यह सब मैं यूं ही नहीं लिख रही हूं बल्कि ऐसा मैंने अपनी आंखों से देखा है। एक बार के लिए अगर गहराई से सोचें तो आखिर हमारा समाज दहेज के रूप में यह पैसे लेता क्यों है? यह उपहार तो कतई नहीं हो सकता। क्या हमारा समाज अपने बेटे को पढ़ाया हुआ खर्च लड़कीवालों से लेना चाहता है? या फिर उस लड़की के आने वाले जीवन में होने वाला खर्च लेना चाहता है?

हमारे देश में औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज संबंधी कारणों के चलते अपनी जान गंवाती है। साल 2007 से साल 2011 के बीच इस प्रकार के मामलों में काफी वृद्धि देखी गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि विभिन्न राज्यों से साल 2012 में दहेज हत्या के कुल 8,233 मामले सामने आए। यह तो केवल हत्या के मामले हैं कई ऐसे मामले हैं जहां दहेज की वजह से रोज स्त्रियों को मानसिक प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता है। जहां परिवार वाले अपने बेटी की इच्छाओं को मारते हैं क्योंकि उन्हें उसके लिए दहेज इकट्ठा करना होता है।

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दहेज-प्रथा को समाप्त करने के लिए कितने ही नियमों-कानून को लाया गया लेकिन अभी तक कोई कारगर सिद्ध नहीं हो पाया है। साल 1961 में सबसे पहले दहेज निरोधक कानून अस्तित्व में आया। जिसके अनुसार दहेज देना और लेना या दहेज लेन-देन में सहयोग करने पर 5 वर्ष की कैद और 15000 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। 1985 में दहेज निषेध अधिनियम तैयार किया गया था। इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक सूची बनाकर रखी जानी चाहिए।  इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए। दहेज या कीमती उपहार के लिए पति या उसके परिवार द्वारा परेशान करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत 3 साल की कैद और जुर्माना हो सकता है। धारा 406 के अंतर्गत अगर ससुराल पक्ष द्वारा स्त्री को स्त्री धन देने से मना किया जाता है तो भी 3 साल की कैद व जुर्माना या दोनों हो सकता है। अगर किसी लड़की की शादी के 7 साल के भीतर उसकी मौत हो जाती है और यह साबित हो जाता है की मौत से पहले उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता था तो भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत लड़की के पति और रिश्तेदारों को कम से कम 7 साल या आजीवन कारावास की सजा हो सकती है। लेकिन व्यावहारिक रूप से इन कानूनों का कोई लाभ नहीं मिल पाया है।

आधुनिक समय में समाज में यह उपहार सौदेबाजी और लालच का रूप बन गया है। इस घातक कुप्रथा को समाप्त करने के लिए समाज में शिक्षा का प्रसार करना चाहिए। तभी लड़कियां इस कुप्रथा का मुकाबला करने के लिए अग्रसर होंगी। इस बुराई का जड़ मात्र कानून से खत्म नहीं हो सकता है। इससे सामाजिक स्तर पर सतत युद्ध करना होगा। देश की शिक्षित युवा पीढ़ी जब समर्पण भाव के साथ संकल्प करेगी की न तो दहेज लेंगे और ना ही देंगे तब यह दहेज लेने वाले लोभी स्वयं चेत जाएंगे। इस प्रथा का अंत करने के लिए सबसे पहले लड़कियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना होगा

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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