समाजख़बर महिला दिवस पर बात महिला मुद्दों पर मुखर गीता की| नारीवादी चश्मा

महिला दिवस पर बात महिला मुद्दों पर मुखर गीता की| नारीवादी चश्मा

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिला दिवस के दिन मातृत्व के मुद्दे पर मुखर होती महिलाओं के बारे में लिखना मेरे लिए बेहद सुखद है।

‘महिला दिवस’ समाज में महिलाओं के लिए समानता और उनके बुनियादी अधिकारों को मज़बूत करने की दिशा में सालों से किए गये दुनियाभर की महिलाओं के लंबे संघर्ष का सूचक है। ये सूचक है इस बात  का कि पितृसत्ता में महिलाओं को अपने हक़ की लड़ाई ख़ुद लड़नी होती है। बदलते समय के साथ भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के संदर्भ में कई सकारात्मक बदलाव आए है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये काफ़ी है, क्योंकि ये बदलाव अभी भी हर स्तर पर महिलाओं के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित नहीं कर पाए है। इन सबके बीच कई महिलाएँ लगातार इन बदलावों की तरफ़ अपनी आवाज़ और कदम बढ़ा रही हैं।

महिला दिवस के इस ख़ास मौक़े पर आइए जानते है ऐसी ही एक महिला के बारे में, जो समय-समय पर सोशल मीडिया के ज़रिए महिलाओं से जुड़े ज़रूरी मुद्दे को सशक्त तरीक़े से उठाती रही हैं। इनका नाम है – गीता यथार्थ। दिल्ली में रहने वाली गीता बीते कई सालों से लगातार महिला हिंसा और महिलाओं की ज़िंदगी व सामाजिक प्रस्थिति से जुड़े अहम पहलुओं को उजागर करती रही हैं। इन्होंने ‘मेरी रात मेरी सड़क’ जैसे अभियानों की अगुवाई कर अपने विचारों को ज़मीन से भी जोड़ा है।

इसके साथ ही, गीता सिंगल मदर भी है। ये बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जब हाल ही में गीता ने अपनी एक तस्वीर साझा करके सिंगल मदर होने की चुनौतियों को उजागर करना चाहा तो हमेशा की तरह भद्दे कमेंट और गालियों से भरे ट्रोल उनकी सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल पर टूट पड़े। लेकिन इसके साथ ही, इस पूरी चर्चा में एक ऐसा वर्ग भी साफ़ देखने को मिला जो मातृत्व से जुड़ी चुनौतियों पर गीता से सहमत और इसके कई अहम पहलुओं पर तार्किक बात करता हुआ दिखा।

गीता की सोशल मीडिया पोस्ट पर हंगामा क्यों?

तस्वीर साभार : फ़ेसबुक (विवरण : गीता की पोस्ट की गयी फ़ोटो)

गीता ने सोशल मीडिया पर टायलेट में कमोड पर बैठी अपनी एक तस्वीर साझा की थी, जिसे उनके बेटे ने क्लिक किया था। इस पोस्ट को गीता ने ‘लाइफ ऑफ ए सिंगल मदर’ को संबोधित किया और आगे लिखा मातृत्व की जिम्मेदारी को निभाना आसान नहीं है। गीता बताती है कि, ‘ये पहली बार नहीं जब मेरा बच्चा मेरा साथ टायलेट तक में छोड़ने को तैयार नहीं होता। चूँकि मैं सिंगल मदर हूँ, इसलिए मुझे हर वक्त अपने छोटे बच्चे को अपने साथ रखना होता है, जो अपने आप में बेहद चुनौतीभरा है।‘ लेकिन हमेशा की तरह पितृसत्तात्मक सोच के साथ ट्रोल अपनी शील-अश्लील भाषा के साथ गीता की इस तस्वीर में मातृत्व से जुड़ी चुनौतियों की बजाय अश्लीलता तलाशने लगे।

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‘मातृत्व’ से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा का ‘स्पेस क्लेम’

आमतौर पर हमेशा समाज में ‘माँ’ और ‘मातृत्व’ का महिमामंडन करने का चलन है। भले ही अधिकतर गालियाँ इन्हीं दो शब्दों के इर्द-गिर्द प्रचलित है। हमेशा माँ होने को खूबसूरत बताकर इससे जुड़ी चुनौतियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। ये पितृसत्ता का बेहद शातिराना तरीक़ा है, जिसे वो ‘अच्छे और बुरे’ का नाम देता है। यानी कि जब कोई पितृसत्ता के महिमामंडन में हां करें तो वो अच्छा होता है और जैसे ही उसने ना कहा और कोई सवाल किया वो बुरा बन जाता है। ‘मातृत्व’ के संदर्भ में इस खेल को बखूबी देखा जा सकता है, जिसमें कहीं भी चुनौतियों पर चर्चा का कोई स्पेस नहीं है। पैरेंटिंग के संदर्भ में गीता कहती हैं कि ‘जब पुरुष भी महिला के समान ‘पैरेंट्स’ कहलाने का सुख लेते है तो इस पैरेंटिंग से जुड़ी चुनौतियों में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।‘  

ट्रोल से डरने की नहीं विचार रखने की ज़रूरत है

ये पहली बार नहीं जब गीता को ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा है। लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी आवाज़ और अलग-अलग मुद्दों पर अपने विचार रखना कभी नहीं रोका। इस संदर्भ में गीता बताती है कि ‘ज़रूरी है कि हम महिलाएँ अपनी ज़िंदगी से जुड़े मुद्दों पर अपने विचार रखें और इसे साझा करें। मातृत्व जैसे ज़रूरी मुद्दों पर इससे जुड़ी चुनौतियों और जब ये मातृत्व किसी सिंगल पैरेंट (महिला या पुरुष) के संदर्भ में हो तो इससे जुड़ी दोहरी जटिलताओं पर चर्चा करने का अपना स्पेस क्लेम करें। ये बेहद ज़रूरी बातें हैं, जिसपर काफ़ी पहले चर्चा शुरू होनी चाहिए थी। क्योंकि जब हम लैंगिक समानता और घर में महिला-पुरुष की समान ज़िम्मेदारी की बात करते हैं तो हमें हर स्तर पर इसे लागू करने की पहल और इस पहल के लिए पहले चर्चा करनी होगी और ट्रोल से डरकर हमें चुप नहीं बैठना होगा। बल्कि अगर हम वाक़ई ज़मीनी स्तर पर बदलाव चाहते है तो हम महिलाओं को अपने विचार और अनुभवों को साझा करते रहना होगा।‘

पितृसत्ता की जड़ता को जड़ से हिलाने के लिए ऐसी चर्चाओं का सेंसेशन होना वक्त की माँग है।

ट्रोल के दौर में सुखद है उभरते विचारशील लोग

आज जब सोशल मीडिया में ट्रोलिंग की समस्या का गंभीर हो रही है, वहीं दूसरी ओर कुछ विचारशील लोगों का सामाजिक विषयों पर सजग, संवेदनशील और विचारशील होकर विचार साझा करना एक शुभसंकेत है। शुभसंकेत सकारात्मक बदलाव का। अगर हम गीता की पोस्ट की बात करें तो उनकी एक पोस्ट से चली इस चर्चा में ढ़ेरों ऐसी पोस्ट दिखायी पड़ती है, जहां मातृत्व से जुड़े चुनौतीपूर्ण अनुभवों को साझा किया जा रहा है। साथ ही, ये स्वीकार किया जा रहा है कि मातृत्व में भी साथी की भूमिका अहम है। अगर बच्चे का जन्म महिला-पुरुष के संभोग से है तो मातृत्व का सुख और इसकी चुनौतियों में भागीदारी भी साझेदारी की होनी चाहिए।   

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सिंगल पैरेंट्स के लिए ख़ास बने मैटरनिटी लीव प्लान

गीता की एक पोस्ट से ‘मातृत्व’ से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर एक चर्चा की शुरुआत हुई है, जिसमें एक अहम पहलू है ‘सिंगल पैरेंट।‘ यानी कि वो महिला या पुरुष जो अकेले अपने बच्चे की परवरिश करते है। जैसा कि हम जानते है बिना क़ानूनी बदलावों के हम किसी भी सामाजिक बदलाव की स्थायी कल्पना नहीं कर सकते है। इसलिए ज़रूरी है कि देश में सिंगल पैरेंटिंग के हक़ में कुछ ज़रूरी क़ानूनी बदलाव किए जाए। इस संदर्भ गीता कहती है (जो ख़ुद भी एक सिंगल मदर है), ‘सरकार को सिंगल पैरेंट्स के लिए मैटरनिटी लीव पीरियड को बढ़ाने के संदर्भ में पहल करनी चाहिए।‘

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिला दिवस के दिन मातृत्व के मुद्दे पर मुखर होती महिलाओं के बारे में लिखना मेरे लिए बेहद सुखद है और इससे भी ज़्यादा सुखद है इस मुखरता से बढ़ती लैंगिक-समानता और संवेदनशीलता की चर्चा को देखना, जो विचारों को सरोकारों से जोड़ने की बात करती है। आमतौर पर जब कोई महिला अपनी ज़िंदगी से जुड़ी किसी भी चुनौती या मुद्दे पर मुखर होती है तो वो सेंसेशन कही जाने लगती है। पर मेरा मानना है कि अगर आप इसे सेंसेशन ही मानते है तो यही ठीक क्योंकि पितृसत्ता की जड़ता को जड़ से हिलाने के लिए ऐसी चर्चाओं का सेंसेशन होना वक्त की माँग है। महिला दिवस के दिन गीता जैसे तमाम मुखर होती महिलाओं को सलाम, प्यार और मेरा साथ!

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तस्वीर साभार : सोशल मीडिया

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