इंटरसेक्शनलशरीर प्रेम आधारित रचनाओं में हमेशा एक ‘सुंदर’ साथी की ही क्यों कल्पना की जाती है

प्रेम आधारित रचनाओं में हमेशा एक ‘सुंदर’ साथी की ही क्यों कल्पना की जाती है

इस पितृसत्तात्मक समाज में किसी औरत का सुंदर होना किस हद तक ज़रूरी माना जाता है इस बात का अंदाज़ा तो हमें अख़बार में प्रकाशित होने वाले शादी के विज्ञापनों को देखने से ही हो जाता है।

वर्तमान समय में दुनियाभर के हर क्षेत्र में औरतें अपनी काबिलियत से इतिहास रच रही हैं। दूसरी तरफ़, आज भी समाज में औरतों का सबसे बड़ा गुण उनकी सुंदरता ही माना जाता है। इस पितृसत्तात्मक समाज में किसी औरत का सुंदर होना किस हद तक ज़रूरी माना जाता है इस बात का अंदाज़ा तो हमें अख़बार में प्रकाशित होने वाले शादी के विज्ञापनों को देखने से ही हो जाता है। जहां वधु की मांग में शायद ही कोई विज्ञापन ऐसा होता है जिसमें कन्या के सुंदर या साफ रंग की मांग नहीं होती है। हमारे समाज में सुंदर स्त्री को ही सर्वगुण संपन्न माना जाता है। उसके सौंदर्य को ही उसकी काबिलियत माना जाता है। जो स्त्री दिखने में जितनी अधिक सुंदर होती है उसे इस पितृसत्तात्मक समाज में उतने ही अधिक अवसर और सम्मान दिए जाते हैं।

जी हां, भारतीय समाज में अक्सर कई क्षेत्रों में लड़कियों को अवसर उन्हें उनकी काबिलियत देखकर नहीं बल्कि सुंदरता देखकर दिए जाते हैं। जो लड़की जितनी सुंदर होती है उसके लिए उतने ही अधिक शादी के रिश्ते आते हैं। कार्यक्षेत्र में उनके सहकर्मी भी उनसे आकर्षित होकर उनसे दोस्ती बढ़ाते हैं। वहीं, दूसरी तरफ़ अक्सर इस पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तय सुंदरता के पैमानों पर खरी न उतरनेवाली लड़कियां होती हैं। उनके लिए समाज में अपना स्थान बनाना कठिन हो जाता है, भले ही वह कितनी भी काबिल क्यों न हो। कई बार तो ऐसा भी देखा जाता है कि किसी अधिक योग्य महिला को मिलने वाला अवसर किसी अन्य महिला को ही दे दिया जाता है जो कि योग्यता में तो उससे कम होती है पर रूप-रंग में उससे अधिक सुंदर और आकर्षित होती है। जिस महिला का रूप-रंग बाकि महिलाओं की तुलना में इतना आकर्षित नहीं होता उसका जीवन ये पितृसत्तात्मक समाज कठिनाइयों और चुनौतियों से भर देता है क्योंकि इस पितृसत्तात्मक समाज में औरतों को मात्र एक सजावट की वस्तु के रूप में देखा जाता है जिससे अपने मनोरंजन और यौन-संबंधी ज़रूरतों की पूर्ती करके आनंद प्राप्त किया जा सके।

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पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की सुंदरता को किस हद तक ज़रूरी माना गया है इस बात का उदाहरण हम गज़लों और गीतों में भी देख सकते हैं, जिसमें हमेशा से औरतों के सौंदर्य, अदाओं आदि का ही बखान किया जाता रहा है और ऐसा आज भी जारी है। जब भी कोई रचनाकार प्रेम गीत या काव्य में अपनी प्रेमिका की चर्चा करता है तो उसमें अधिकतर उसकी बाहरी सुंदरता या रूप-रंग का बखान होता है। हम अक्सर ऐसी कई प्रेम आधारित रचनाएं देखते हैं जिसमें लेखक जब अपनी प्रेमिका की खूबियां बताता है या अपने लिए एक साथी की कल्पना करता है तो उसमें उसे क्या क्या गुण चाहिए इसका ज़िक्र करता है। इसमें अक्सर महिलाओं के रूप-रंग की बात की ही जाती है। उसकी आंखें, होंठ, ज़ुल्फ़े, अदाएं आदि किस ढंग के हो इसपर ही बात की जाती है। जिसके कुछ उदाहरण हम देख सकते हैं:

रघुनंदन शर्मा दानिश की एक गज़ल की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:
गुलाबी होंठ ये कश्ता तुम्हारा,
मुझे बहाने लगा है चेहरा तुम्हारा

तो वहीं सैफी प्रेमी की गज़ल में भी ऐसा ही कुछ है –
वो आरिज़ गुलाबी वो गेसू घनेरे,
इसी सम्त है दीदा ओ दिल के फेरे

जैसे इनकी गज़ल में स्त्री के होंठ,बाल आदि की तारीफ की गई है, वैसे ही कुछ नज़्म के उदाहरण भी देख सकते है जहां स्त्री की बाहरी सुंदरता पर ही जोर दिया गया है। जैसे फ़ारूक बख्शी की ये पंक्तियां:

वो चांद-चेहरा सी एक लड़की
मोहब्बतों की मिसाल जैसे
ज़ेहन में शाएर के जैसे आए
हसीं ग़ज़ल का ख़याल कोई
वो चांद-चेहरा सी एक लड़की

यहां भी स्त्री के शारीरिक अंगों की ही तारीफ की गई है, उसे अन्य वस्तुओं कि तुलना में देखा जा रहा है। नुसरत फ़तेह अली खान साहब का आफरीन आफरीन गीत जिसको इतनी अधिक लोकप्रियता मिली, उस गाने की पंक्तियों में स्त्री के सौंदर्य का ही बखान किया गया है, जिसकी कुछ पंक्तियां है: “ऐसा देखा नहीं खूबसूरत कोई, जिस्म जैसे अजंता की मूरत कोई। हुस्न ऐ जानां की तारीफ़ मुमकिन नहीं। चेहरा एक फूल की तरह शादाब है चेहरा उसका है या कोई महताब है।”

जिसमें स्त्री के हुस्न, जिस्म, ख़ूबसूरती आदि की ही बात की गई है। जैसा कि आजकल एक सामान्य बात हो गई है एक स्त्री को हसीना कहकर बुलाना जिसका अर्थ है शारीरिक रूप से सुंदर स्त्री। तो क्या आज के युग में एक स्त्री का हसीन दिखना इतना ज़रूरी है, ऐसी रचनाओं ने एक ऐसी विचारधारा को जन्म दिया है जिसके चलते यह मान लिया गया है कि जो स्त्री शारीरिक या भौतिक रूप से सुंदर होती है उसे ही सम्मान और प्रेम प्राप्त होता है या प्रेम करने का हक़ होता है। बचपन से लड़कियों के दिमाग़ में ऐसी बातें भर दी जाती हैं कि कोई पुरुष उसे तभी पसंद करेगा जब वह सुंदर दिखेगी और इस सोच के कारण स्त्रियों में अपने रूप-रंग को लेकर हमेशा ही चिंता बनी रहती है और एक असंतोष पैदा हो जाता है।

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इस पितृसत्तात्मक समाज में जो स्त्री बाकी स्त्रियों की तुलना में शारीरिक रूप से कम आकर्षित होती है, लोगों की रुढ़ीवादी सोच के कारण उसके आत्मविश्वास पर निरंतर चोट पहुंचती रहती है। जब वह किसी पारिवारिक त्यौहार समारोह आदि में जाती है तो ऐसा अक्सर देखा जाता है कि बाकी रिश्तेदार आकर उसके रंग रूप को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए उसे त्वचा का रंग निखारने या बाल घने-मुलायम करने आदि के लिए कई तरह के कॉस्मेटिक्स या कई घरेलु नुस्खे भी बताते हैं, मानो उसे कोई गंभीर बीमारी हो। उसके शारीरिक अंगों को लेकर लोगों की इस तरह की प्रतिक्रिया को देखकर उस स्त्री के मन में बचपन से ही असंतोष और निराशा भर जाती है जिसके कारण उसमें आत्मविश्वास की कमी हो जाती है और वह लोगों के बीच जाने में असुविधा महसूस करने लगती है।

कई बार इसका असर स्त्री के मन-मस्तिष्क में कुछ इस तरह पड़ता है कि वह समाज में मानसिक रूप से इतना असंतोष महसूस करने लगती है कि उसका व्यवहार काफी निराशाजनक और चिड़चिड़ा हो जाता है। उसके मन में पारिवारिक समारोह, रिश्तेदारों आदि से मिलना-जुलना, शादी के रिश्ते आदि को लेकर अरुची पैदा हो जाती है। रानी जो कि एक एसिड अटैक सर्वाइवर हैं, उनका इन सुंदरता के पैमानों के ऊपर कहना है, “हमारे हमलावर हमारी हत्या नहीं करना चाहते थे बल्कि हमें बदसूरत बनाना चाहते थे ताकि कोई हमें प्यार ना कर सके क्योंकि इस समाज में प्रेम के लिए शारीरिक सुंदरता का होना बहुत ज़रूरी माना जाता है।”

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तस्वीर साभार : Peak

Comments:

  1. PIYUSH PANDE says:

    इस पितृसत्ता के जहर को लड़कियों ने कई वर्षों तक झेला पर ये जहर अब खुद लड़कों को भी डसने लगा है।
    By look I have been rejected so many times ..

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