समाजकानून और नीति पढ़ें : सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन की प्रक्रिया पर क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने

पढ़ें : सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन की प्रक्रिया पर क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्मी द्वारा महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के लिए तय मापदंड महिलाओं को अनुपातहीन तरीके से प्रभावित करता है।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से बीते 25 मार्च को सेना में शार्ट सर्विस कमिशन्ड अफसर महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के मामले में बड़ा फैसला सुनाया गया। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एम.आर. शाह की पीठ ने भारतीय सेना और नौसेना को महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के संबंध में निर्देश दिया है और कहा है कि एक महीने के भीतर इस पर विचार करें और इन्हें स्थायी कमीशन दें। यह फैसला उन्होंने आर्मी की कुछ महिला अफ़सरों द्वारा दाखिल की गई याचिका पर सुनाया गया। वेबसाइट द लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला महिलाओं अफसरों की उन याचिकाओं पर आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि स्थायी कमीशन के लिए उनके आवेदन आर्मी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश के बावजूद खारिज कर दिए हैं।

अपने 137 पन्नों का ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर तंज करते हुए कहा, ‘हमें यहां यह स्वीकार करना होगा कि समाज का ढांचा पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए ही बनाया गया है। इसलिए, कुछ संरचनाएं जो कभी नुकसानदायक नहीं लगती हैं, वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक संकेत हैं। जब कानून पुरुष दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए संरचित है तो समानता का सतही चेहरा संविधान में निहित सिद्धांतों के लिए सही नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सेना को निर्देश दिया है कि वह दो महीने के भीतर महिला अधिकारियों के लिए स्थायी कमीशन देने पर विचार करे और नियत प्रक्रिया का पालन करते हुए दो महीने के भीतर इन्हें स्थायी कमीशन दे।

भारत की आज़ादी के बाद भारतीय सेना में महिलाओं को प्रवेश तो मिला, लेकिन स्‍थाई कमीशन नहीं मिला। सेना में स्थायी कमीशन के मायने हैं, रैंक के हिसाब से रिटायर होना, स्थायी कमीशन न होने का मतलब साफ़ है कि समय से पहले या बिना किसी की मर्ज़ी के रिटायर किया जा सकता है। साल 2003 में सेना की कुछ महिला अधिकारी इस मामले को अदालत में ले गईं और याचिका दायर की कि उन्हें भी पुरुष अधिकारियों की तरह स्थायी कमिशन दिया जाए और भेदभाव वाली नीति बंद की जाए। कोर्ट ने ये संज्ञान में लेते हुए दलील मंजूर कर दी और इसके बाद सेना ने साल 2012 में सर्वोच्च न्यायालय में एक बयान में कहा, ‘सैद्धांतिक तौर पर सेना के भीतर महिलाओं की भागीदारी वाली बात अच्छी तो लगती है पर उसको अमली रूप में यह अनुभव भारत में अभी सफल नहीं हुआ। हमारा समाज भी युद्ध के मैदान में महिला वर्ग को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।’

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सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शार्ट सर्विस कमिशन के अंतर्गत भर्ती हुई महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने वाली मांग पर अपनाए गए मूल्यांकन के मापदंड मनमाने और तर्कहीन हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्मी द्वारा महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के लिए जो मापदंड तय किए गए हैं वह महिलाओं को अनुपातहीन तरीके से प्रभावित करता है। यहां तक ​​कि उन महिला अधिकारियों को भी, जिन्होंने देश के लिए गौरव हासिल किया है, जिन्हें प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय असाइनमेंट में काम किया है या जिन्होंने खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि लेफ्टिनेंट जनरल शिखा यादव और कुछ अन्य अफ़सरों को भी चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ कमांडेशन (सी.ओ.आई.एस.) तथा लैफ्टिनैंट कर्नल थपलियाल को विशिष्ट सेवा मैडल (वी.एस.एम.) से सम्मानित किया गया मगर उन्हें स्थायी कमिशन नहीं दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर तंज करते हुए कहा, ‘हमें यहां यह स्वीकार करना होगा कि समाज का ढांचा पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए ही बनाया गया है।’

कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला अधिकारियों को भारतीय सेना की सेवा करने की अनुमति दी गई है, जबकि सच्ची तस्वीर अलग है। समानता का सतही चेहरा संविधान में निहित सिद्धांतों के लिए सही नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा ,’हम मानते हैं कि सेना द्वारा अपनाए गए मूल्यांकन मानदंड महिलाओं के खिलाफ प्रणालीगत भेदभाव का गठन करते हैं। एसीआर और मेडिकल मानदंडों से महिलाओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव होता हैं। इसके कारण उन्हें आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दोनों नुकसान हुए है।’ साथ ही कहा कि महिलाओं के हार्मोनल परिवर्तनों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है उनके के लिए अजीब हैं, मेनोपॉज़ या बच्चे के जन्म के कारण पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक शारीरिक परिवर्तन से गुज़रती हैं।

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न्यायमूर्ति डी.वाई चंद्रचूड़ ने इन मापदंडों पर टिप्पणी करते हुए यह भी कहा, ‘जब यह आपको सूट करता है, तो आप आज की फिटनेस की मांग करते हैं, लेकिन आप पांचवें दसवें साल में प्रदान की गई सराहनीय सेवा के सालों को नजरअंदाज कर देते हैं। इससे पता चलता है कि यह कितना विकृत है। क्या यह महिलाओं को बाहर करने का विचार है या उन्हें समान अवसर देने के लिए है?’ न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी उस महिला अधिकारी के जवाब में दी गई ,जिसे स्थायी आयोग से वंचित कर दिया गया था जबकि योग्यता के आधार पर उनकी उपयुक्तता की पुष्टि करते समय, भर्ती के पांचवे या दसवें साल के बाद उनके बीच के सेवा रिकॉर्ड की अवहेलना की गई है। मेडिकल मापदंडों में ग्रेड 1 में मनोवैज्ञानिक, श्रवण, अनुबंध, शारीरिक और आंखों की रोशनी (शेप) जो पीसी के अनुदान पर उनके विचार की तिथि के अनुसार उनके लिए होना आवश्यक है।

इस विषय में कोर्ट ने यह भी कहा कि सेना के अधिकारियों द्वारा अपनाई गई प्रशासनिक आवश्यकताएं ‘मनमानी और तर्कहीन’ है और इसे लागू नहीं किया जाएगा और  60 फ़ीसद कट-ऑफ से संतुष्ट होने वाली सभी महिला अधिकारी स्थायी आयोग की हकदार हैं। अगस्त 2020 में सेना द्वारा अपनाए गए मेडिकल मापदंड उनकी सेवा के पांचवें या दसवें वर्ष पर लागू किए जाएंगे और दो महीने के भीतर स्थायी आयोग के अनुदान के लिए गैर-जरूरी अधिकारियों के अलावा अन्य सभी अधिकारियों पर विचार किया जाएगा। आशा की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था थोड़ी बहुत तो चरमाराएगी, लेकिन अफ़सोस महिलाओं इस व्यवस्था से लड़ने के लिए 16 साल का लंबा समय लग गया।

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 तस्वीर साभार : BBC

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