नारीवाद फ्रांस से लेकर भारत तक, नारीवाद पर अंग्रेज़ी भाषा के दबदबे के बारे में मैंने क्या समझा

फ्रांस से लेकर भारत तक, नारीवाद पर अंग्रेज़ी भाषा के दबदबे के बारे में मैंने क्या समझा

लोगों मानते है कि 'फ़ेमिनिज़म' अंग्रेज़ी भाषा से जुड़ा हुआ शब्द है। जबकि हर संघर्ष में शब्दों, भाषा की एक बड़ी भूमिका होती है।

मैं फ्रांस का रहने वाला हूं। तक़रीबन दस साल से हिंदुस्तान में रहता हूं। इतने सालों बाद एक चीज़ अभी भी मुझे चौंकाती रहती है कि बड़ी संख्या में हिंदुस्तानी महिलाएं ख़ुद को फ़ेमिनिस्ट या नारीवादी कहने से इतना क्यों झिझकती हैं? हैरान इसलिए हूं क्योंकि अक्सर लोगों को नारीवादी विचार से नहीं, केवल शब्द से एतराज़ होता है। मेरी बहुत सी ऐसी दोस्त हैं। वे पूरी तरह से मानतीं हैं कि समाज में अलग-अलग स्तरों पर औरतों और मर्दों के बीच असमानता की गहरी खाई मौजूद है। असमानता की यह स्थिति उनको काफ़ी ग़ुस्सा भी दिलाती है। इन में से कई ऐसी भी हैं जो खुद स्त्रियों के अधिकारों की ख़ातिर असरदार तरीके से काम करती हैं। फिर भी उनको फ़ेमिनिस्ट कहिए उन्हें लगेगा कि आपने गाली दे दी। मेरे मुल्क में भी कुछ महिलाओं को फ़ेमिनिज़म का शब्द पसंद नहीं है। उनको यह ग़लतफहमी होती है कि नारीवाद किसी कट्टर विचारधारा का नाम है मगर हिन्दुस्तान में बात कुछ और भी है। यहां माना जाता है कि फ़ेमिनिज़म बाहर की चीज़ है, हिंदुस्तानी संस्कृति का हिस्सा नहीं। बहुत सारे सम्मानित भारतीय बुद्धिजीवी भी नारीवाद को पश्चिमी विचारधारा समझकर खारिज करते हैं।

मेरे ख़्याल से, कुछ हद तक, इस में अंग्रेज़ी ज़ुबान की ज़िम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए। लोगों को लगता है कि फ़ेमिनिज़म’ अंग्रेज़ी भाषा से जुड़ा हुआ शब्द है। एक दिन बिहार की राजधानी पटना में, एक लड़की ने मुझे कहा था, “नारीवाद की बात सिर्फ़ हाय-फाय इंग्लिश बोलनेवाली लड़कियां करती हैं, हम लोग नहीं।” हां, बिल्कुल, फ़ेमिनिज़म का हिन्दी अवतार ज़रूर होता है जिसे हम नारीवाद के रूप में जानते हैं लेकिन वह काफ़ी नहीं है। नारीवाद शाब्दिक अनुवाद ही तो है फेमिनिज़म का। लिहाज़ा लोग सोचते रहेंगे कि यह शब्द, यह विचारधारा तो विदेश से लाई गई है और यह भी सोचते रहेंगे कि इसी वजह से इसका भारतीय महिलाओं से कुछ लेना देना नहीं लेकिन क्या यह तर्क सचमुच मायने रखता है? हकीकत में जब तक आप महिलाओं और पुरुषों की बराबरी के समर्थन में हैं, चाहे आप ख़ुद को फ़ेमिनिस्ट समझें या नहीं, इससे कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन, अगर अंग्रेज़ी के ज़्यादा इस्तेमाल करने की वजह से आप अपने विचार अपनी भाषा में व्यक्त नहीं कर सकते हैं, तब फ़र्क़ पड़ता है।

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लोगों को लगता है कि ‘फ़ेमिनिज़म’ अंग्रेज़ी भाषा से जुड़ा हुआ शब्द है। एक दिन बिहार की राजधानी पटना में, एक लड़की ने मुझे कहा था, “नारीवाद की बात सिर्फ़ हाय-फाय इंग्लिश बोलनेवाली लड़कियां करती हैं, हम लोग नहीं।”

मैं अंग्रेज़ी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं हूं। अंग्रेज़ी हमारे संपर्क के माध्यमों को और भी बड़ा बनाती है, हमें उसकी ज़रूरत है। यह भी सच है कि अंग्रेज़ी विदेशी भाषा नहीं रही लेकिन अंग्रेज़ी की अहमियत कुछ ज़्यादा ही बढ़ चुकी है। समाज में अगर किसी को अपनी आवाज़ दमदार तरीके से उठानी है तो अंग्रेज़ी में ही बोलना पड़ता है। चाहे किताब, डॉक्यूमेंटरी, ट्वीट या किसी मंच पर कोई भाषण हो। हां, आप अपने विचार हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषा में भी ज़रूर पेश कर सकते हैं मगर क्या आपकी बात प्रभावशाली लोगों तक पहुंच पाएगी? हालांकि फ्रेंच पर मेरी पकड़ बहुत बेहतर है फिर भी मुझे ख़ुद अपनी पीएचडी इंग्लिश में लिखनी पड़ी है नहीं तो मेरा काम कौन पढ़ेगा? अंग्रेज़ी का बोलबाला नारीवादी आंदोलन को कमज़ोर करता है।  जिनको अंग्रेज़ी नहीं या कम आती है, वे मान्यता बहुत मुश्किल से पाते हैं। जैसे अपने एक लेख में लता नारायाणास्वामी ने तर्क किया है। इंडिया में, बड़े-बड़े एनजीओ या अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में सभी अहम बातचीत अंग्रेज़ी में होती है। नतीजा, स्थानीय बोलियों में व्यक्त किए गए विचारों पर कोई ध्यान नहीं देता। इस चक्कर में देसी फ़ेमिनिज़म की कहानी अधूरी रह जाती है, बाक़ी औरतों का नज़रिया कैसे सुनाई देगा?

मगर समस्याएं और भी हैं। अंग्रेज़ी की वजह से हमारी कल्पना का दायरा छोटा हो जाता है। जब हम दूसरी ज़ुबानों को नज़रअंदाज़ करते हैं, तो हमारी क़ाबिलियत  सीमित हो जाती है, दुनिया को समझने की, पितृसत्ता को गहराई से जानने की। एक भाषा सिर्फ़ शब्दों की एक माला नहीं, विचारों की नदी भी है। हर एक ज़ुबान से एक अलग सोचने का तरीक़ा जुड़ा हुआ होता है। अलग भाषाएं, अलग दृष्टिकोण। मिसाल के तौर पर बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनका अनुवाद अंग्रेज़ी में बिल्कुल नहीं किया जा सकता है, जैसे जुगाड़ या जी। जबकि अंग्रेज़ी में ‘लव’ के लिए एक ही लफ़्ज़ होता है, वहीं हिंदुस्तान की अलग-अलग भाषाओं जज़्बातों का इज़हार बहुत बारीकी और भावनात्मक तरीके से किया जा सकता है: प्यार, इश्क़, चाहत, मोहब्बत, इत्यादि। 

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अब महिलाओं की तकलीफ़ों से इस सब का क्या ताल्लुक़? हर एक संघर्ष, जैसे औरतों की आज़ादी का शब्दों से लड़ा जाता है। सबसे पहले समस्याओं को साफ़ तरीके से पहचानना है, फिर इनको शब्दों में ढालना है, तभी तो उनको समझना और उनका विरोध करना मुमकिन हो सकता है। अंग्रेज़ी से बहुत ऐसे शब्द आ चुके हैं, जैसे ‘टॉक्सिक मॅसक्युलिनिटी’ यानि ज़हरीली मर्दानगी या “इंटरसेक्शनैलिटी” यानि अंतरनुभागिनयता। अंग्रेज़ी में ये लफ़्ज़ बढ़िया लगते हैं मगर हिन्दी में कितने भारी और कितने बनावटी लगते हैं। हम इससे बहुत बेहतर कर सकते हैं। अंग्रेज़ी की नकल करने की जगह हमें अपनी भाषाओं की ख़ासियत का फ़ायदा उठाकर कुछ ऐसी नई संकल्पनाओं का इज़हार करना है। इस से नारीवादी आंदोलन मज़बूत हो जाएगा। मैंने इस लेख का पहला ड्राफ्ट एक स्कूल टीचर को दिखाया, पढ़कर उन्होंने कहा, “वाह, पहली बार मैं नारीवाद के बारे में कुछ पढ़ रही हूं, आम तौर पर नारीवादी बातों में ख़ुद को नहीं पहचानती हूं। नारीवादी अक्सर बड़े-बड़े शब्द इस्तेमाल करके असली मुद्दों से भटक जाती हैं।” नारीवाद आंदोलन और आम महिलाओं खासकर ग्रामीण महिलाओं के बीच जो दूरी है, वह असली है। इसे कम करना हमारी ज़िम्मेदारी है। एक विदेशी रिसर्चर के नाते, यह ज़िम्मेदारी मेरी भी है। लोगों को चर्चा में शामिल करना ज़रूरी है और यह सिर्फ़ हिन्दी और दूसरी स्थानीय भाषाओं के ज़रिए हो सकता है।

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ह्यूगो फ्रांस के रहनेवाले हैं। हिंदुस्तान के साथ उनका रिश्ता पुराना है और दिन-ब-दिन गहरा होता जा रहा है। आजकल वह पीएचडी कर रहा हैं और फिलहाल दिल्ली में रहते हैं। उनके रिसर्च का विषय भारत में शहरी विकास और औरतों और पुरुषों पर उसके प्रभाव के बारे में है। उनकी दिलचस्पी खास तौर पर छोटे शहरों में है।

तस्वीर साभार : feminisminindia.com

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