नारीवाद पितृसत्ता और बॉडी शेमिंग : नारीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन के नजरों से

पितृसत्ता और बॉडी शेमिंग : नारीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन के नजरों से

बॉडी शेमिंग का हम सभी ने प्यार-लाड़, मामूली हंसी-मज़ाक के आड़ में कभी न कभी सामना किया है और आज इसका सामान्यीकरण कर दिया जा चुका है।

नहीं चुराने दूंगी मैं किसी को मेरे माथे की ये झुर्रियां, जो उभरी हैं ज़िंदगी की खूबसूरती को हैरानी और खुशी से देखने से। मेरे होंठों के आस-पास की सिलवटें, जो मेरे बेहिचक हंसी और चुंबनों की देन है। मेरे आंखों के नीचे की ये थैलियां जो मुझे याद दिलाती है कि मैं ज़िंदगी में कितना रोई हूं। ये सब मेरी अपनी है और बहुत खूबसूरत है। दुनिया के डर से या अपनी हमेशा जवान लगने की लालसा से मैं कभी नहीं रंगूंगी अपने इन सफेद बालों को क्योंकि ये धूप में नहीं पके। ये पके हैं ज़िंदगी के अच्छे बुरे तजुर्बात से और उन तजुर्बात को मैं ज़िंदा रखना चाहती हूं।”

ये शब्द हैं अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप की जिन्हें सहर्ष अपनाकर कुछ और लफ्जों को जोड़ ‘बॉडी शेमिंग’ का विरोध कर रही हैं नारीवादी कार्यकर्ता, कवयित्री, लेखिका तथा सामाजिक विज्ञानी कमला भसीन। बॉडी शेमिंग का हम सभी ने प्यार-लाड़, मामूली हंसी-मज़ाक के आड़ में कभी न कभी सामना किया है। आज इसका इतना सामान्यीकरण कर दिया जा चुका है कि अब इसे हमारे संस्कृति में ही शामिल कर दी गई है। हालांकि इसके मूल यानी किसी व्यक्ति के शरीर को ही परम महत्व देने की परंपरा को हम अकसर नजरअंदाज़ कर जाते हैं। इसी विषय पर दिल्ली के गार्गी कॉलेज द्वारा आयोजित एक सत्र में कमला भसीन ने बॉडी शेमिंग और इसका पितृसत्ता से संबंध पर अपने विचार रखे। पितृसत्ता बाइनरी यानी द्विविचार में विश्वास करती है। पितृसत्तात्मक समाज में इंसान के मन और गुण के बजाय शरीर के बनावट और सुंदरता को ही अधिक अहमियत दी जाती है। जिस प्रकार हम विभिन्न सौन्दर्य उत्पादों, कपड़ों और आधुनिक फैशन से लैस रहने की इच्छा जताते हैं, समझ आता है कि किस हद तक शारीरिक बनावट हमारी सोच पर हावी है। किसी की सुंदरता की नींव केवल शारीरिक बनावट पर गढ़ना, पितृसत्ता की देन है।

पितृसत्ता से इसका संबंध बताते हुए कमला भसीन कहती हैं कि पितृसत्ता में शरीर को हमेशा से अत्यधिक महत्व दिया गया है और चूंकि केवल शरीर को अहमियत दी जाती है, इसलिए इसकी निंदा भी अधिक होती है। वह कहती हैं कि पितृसत्ता में ना सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुषों की शारीरिक बनावट को भी बराबर महत्व दिया जाता है। इसलिए दोनों ही वर्गों का शारीरिक बनावट के प्रतिमानों पर सटीक ना बैठने से उनका शरीर निंदा एवं हंसी का पात्र बन जाता है। किसी भी महिला के शरीर के लिए सिर्फ कोमल, सुंदर जैसे पर्यायवाची का इस्तेमाल किया जाना और पुरुष को काबिल, ताकतवर, सोचने और फैसले करने की क्षमता रखने वाला बताया जाना पितृसत्तात्मक सोच है। पितृसत्ता नारी के शरीर को प्रकृति का हिस्सा मानती है एवं उसका तन ही उसकी विशेषता बन जाती है तो दूसरी ओर पुरुष की विशेषता उसकी संस्कृति, विचार और मन है।

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अकसर यह पाया जाता है कि जिन तथाकथित चीज़ों को महिलाओं की सुंदरता के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, उनसे उनकी सामान्य गतिविधियां अवरोधित होती है। मसलन, फिटेड कपड़े या हील वाले जूते महिलाओं को आराम नहीं प्रदान करते बल्कि ये उसकी खुलकर चलने-फिरने की क्षमता को भी खत्म कर देती है। भसीन कहती हैं कि चूंकि महिला का जुड़ाव केवल शरीर से किया जाता है, इसलिए उसको वस्तुनिष्ठ बना देना लाजमी है। वह इस बात पर जोर देती हैं कि इस प्रवृत्ति के लिए कहीं ना कहीं हम खुद जिम्मेदार हैं। बजाय इसके कि हम अपने शारीरिक गठन को महत्व दें और समाज द्वारा तय किए गए प्रतिमानों को पूरा करने की कोशिश करते रहे, हमें शरीर के बाहरी दिखावट को महत्व देना बंद करना होगा। उनका मानना है कि किसी भी प्रकार की शेमिंग निंदनीय है लेकिन बॉडी शेमिंग पूरी तरह से तभी बंद हो सकती है, जब हम खुद के शरीर को इतनी अहमियत ना दें।  

पितृसत्ता ना सिर्फ शरीर के रूप को परिभाषित करती है बल्कि हमें यह बताती है कि कौन सी शारीरिक बनावट प्रशंसनीय है। इसलिए हम ना सिर्फ अलग दिखने वाली महिलाओं और पुरुषों को हीन दिखाते हैं, बल्कि ट्रांस या अन्य समुदाय के लोगों को हीन नजरों से देखते हैं। कमला भसीन बताती हैं कि हर इंसान अपने आप में अद्वितीय है। हर किसी की अपनी विशेषता है और वह अलग-अलग तरीके से सुंदर है। इसलिए एक व्यक्ति की तुलना किसी भी दूसरे से नहीं की जा सकती। एक जर्मन दार्शनिक की कृति ‘वुमन आर द लास्ट कालोनी’ का उदाहरण देते हुए वह कहती हैं कि महिला एक ‘कालोनी’ के समान है जो अब तक पितृसत्ता और पुरुषों के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाई हैं। आज भी महिलाओं के ‘शरीर’ को कभी शारीरिक काम तो कभी यौन संबंध के लिए इस्तेमाल किया जाता है। बॉडी शेमिंग के विषय में चर्चा करते हुए वह कहती हैं कि सुंदरता स्थायी नहीं है। और अगर दुनिया के निर्धारित मानदंडों के अनुसार हम महिलाओं की सुंदरता को आँकेंगे, तो कुछ ही महिलाएं उस में फिट हो सकती हैं। पितृसत्ता औरतों के लिए सिर्फ शारीरिक संरचना तय नहीं करती बल्कि यह भी बताया जाता है कि सुंदरता एक उम्र तक ही सीमित है। वह साहित्य की चर्चा करते हुए बताती हैं कि औरतों के लिए एक तय किया हुआ नजरिया हिन्दी और विशेष कर उर्दू कविताओं में आम है। इन कविताओं में औरतों की सुंदरता का सीधा संपर्क उसकी कम उम्र से है। वह इसका उदाहरण देते हुए कहती है कि जवान और सुंदर दिखना ही औरतों के लिए मुनासिब समझा जाता है। इसलिए अकसर बड़े परदे पर हम उम्रदराज नायक को तो देखते हैं पर नायिका की उम्र हो जाए तो आम जनता उसे पसंद नहीं करती। इंसान की असल खूबसूरती उसकी शिक्षा, चरित्र और सद्व्यवहार होती है।

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कमला भसीन कहती हैं कि हम सिर्फ इस बिने पर किसी से प्यार भी नहीं करते कि वह केवल सुंदर या गोरा है। इसलिए चारित्रिक विशेषताएं कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। चूंकि पितृसत्ता हर शरीर को परिभाषित करती है, इससे मर्द भी खुद भी बच नहीं पाते हैं। छोटे, कमजोर या दुबले पुरुष भी बॉडी शेमिंग का शिकार होते हैं। वह कहती हैं कि बॉडी शेमिंग का केवल पितृसत्ता से ही नहीं बल्कि पूंजीवाद और उपभोक्तावाद से भी गहरा संबंध है। हम सब कहीं ना कहीं नव उदारवादी पूंजीवाद और उपभोक्तावाद का हिस्सा और शिकार हैं। उपभोक्तावाद का भारत में उदय किस प्रकार लोगों को प्रभावित कर रहा है, इसका उदाहरण वह सत्तर के दशक में मिरांडा कॉलेज के एक घटने से देती हैं। उस वक्त कॉलेज की लड़कियों ने वहाँ हो रहे सौंदर्य प्रतियोगिता को बंद करने के लिए पुरजोर विरोध किया था। वे नहीं चाहती थी कि उनको सिर्फ सुंदरता के पैमानों पर आँका जाए। भसीन बताती हैं कि अर्थव्यवस्था में बदलाव और उपभोक्तावाद की शुरुआत के बाद, ऐसी प्रतियोगिताएं दोबारा होने लगी हैं। आज महिलाओं के समक्ष लाखों सौन्दर्य उत्पाद मौजूद हैं, जिन्हें वह अपनाना चाहती हैं। वह बताती है कि हालांकि असल में यह चुनाव नहीं, उपभोक्तावाद और पितृसत्ता की सोची समझी रणनीति है।

सत्र के अंत में गार्गी कॉलेज की नारीवाद का विषय पढ़ाती प्राध्यापिका के सवाल पर वह कहती हैं कि हमें उन बच्चों का भी मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए जो शरीर के रूढ़िवादी अवधारणा को प्रचलित करती बार्बी जैसी गुड़िया को पसंद करती हैं। यह आगे कहती हैं कि हालांकि महिलाओं को यह समझना चाहिए कि उन्हें ऐसे कोई भी प्रतिमान या मानदंडों को अपनाने की जरूरत नहीं है जो उनकी आज़ादी के आड़े आए। सिर्फ इसलिए कि बाहरी सुंदरता प्रिय है, कोई भी शारीरिक बदलाव नहीं करने चाहिए। वह खुद की लिखी एक कविता सुनाते हुए उदाहरण देती हैं कि वो अपने मन, विचार और शरीर का खयाल रखकर, अपने एवं अपनों से एक अच्छा रिश्ता कायम कर के ‘मेकअप’ तो करती हैं लेकिन चेहरे को जबरदस्ती अप्राकृतिक सुंदरता प्रदान करने वाली ‘फेकअप’ नहीं करती। मूल रूप से अपने शरीर के लिए पितृसत्ता में महिलाओं की अवधारणा को ही बदलाव की जरूरत है। वह कहती हैं कि समाज के इस पितृसत्तात्मक सोच के कारण खूबसूरत और बदसूरत औरत अपने शरीर के अलग-अलग विशेषताओं के कारण यौन हिंसा का शिकार होती हैं।

वह कहती हैं कि पितृसत्ता और उपभोक्तावाद के प्रचलन में बॉलीवुड का भी बहुत बड़ा योगदान है। वह कॉलेज के एक प्राध्यापिका की चिंता कि वह अपनी घर की तीन साल की बच्ची को इन ऐबों से दूर नहीं रख पा रहीं, कहती हैं कि हमें चकाचौंध में यह भूलना नहीं चाहिए कि ये किस प्रकार के कार्यक्रम हमें प्रस्तुत कर रहे हैं। वह कहती हैं कि इन समस्याओं का सिर्फ एक ही हल हो सकता है कि पितृसत्ता और उपभोगतवाद को खत्म किया जाए। उनका विश्वास है कि यह किसी एक व्यक्ति का काम नहीं बल्कि एक सामूहिक जिम्मेदारी है। वह मानती हैं कि अपनी आज़ादी और मौलिक अधिकारों को समझने के लिए किसी बड़े घर या बड़े कॉलेज से पढ़ी लिखी होने की जरूरत नहीं है। वह भवरी देवी और मथुरा जैसी औरतों पर जोर देती हैं, जिनके मौलिक अधिकारों की समझ और वृहद लड़ाई के कारण भारत में बलात्कार के नए कानून बने और उनमें बदलाव आए। वह बताती हैं कि पितृसत्ता और इससे जुड़ी सभी समस्याओं का हल तभी हो सकता है जब हम अपने-अपने स्तर पर इसे नकारें और एक निष्पक्ष समाज की रचना में अपनी भूमिका निभाएँ।        

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