समाजख़बर दम तोड़ती जनता के बीच चमक रहा है कोरोना वैक्सीन और राजनीति का खेल

दम तोड़ती जनता के बीच चमक रहा है कोरोना वैक्सीन और राजनीति का खेल

केंद्र सरकार द्वारा दूसरे देशों के तुलना में भारतीय लोगों को अधिक वैक्सीन देने का डंका पीटने के बावजूद पिछले दिनों आम जनता को कई राज्यों के अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में ‘नो वैक्सीन’ का बोर्ड लगा हुआ मिला।

बात शुरू करती हूं पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से जो नतीजे आने तक केंद्र सरकार से लेकर भाजपा शासित हर राज्य के आकर्षण का केंद्र बना हुआ था। जहां बंगाल की जनता चुनावी हिंसा के प्रकोप और महामारी से बचने के प्रयास में लगी रही, वहीं, राज्य की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी से लेकर बीजेपी तक हर कोई अपना उल्लू सीधा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि चुनावी प्रक्रिया किसी भी राज्य सरकार की जिम्मेदारी के अंतर्गत नहीं आती पर जहां पश्चिम बंगाल में 292 सीटों के लिए आठ चरणों में मतदान की घोषणा की गई, वहीं तमिलनाडु में 234 सीटों के लिए चुनाव एक ही दिन में निपटा दिए गए थे। कोरोना महामारी की स्थिति को देखें तो इस मामले में भारत अब दुनिया के शीर्ष पर पहुंच चुका है। आज अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी भारत की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था और सरकार की लापरवाही को कवर कर रहा है। वहीं, देश के मौजूदा हालत को देखते हुए लग रहा है कि हमारी अपनी सरकार का देश की जनता के प्रति मानो कोई दायित्व ही नहीं है। सरकार की यह बेरुखी भले कई लोगों को नयी लगे पर इस प्रवृत्ति का ईजाद कोरोना महामारी से नहीं हुआ है। 

बात कुम्भ मेले की करें, तो देश के प्रधान मंत्री से लेकर अन्य बीजेपी नेता भी इस मेले की के ब्रांड अंबैसडर बने रहे। आम जनता के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर लगातार लोग अपनी जान गंवा रहे थे, तो दूसरी ओर ऐसे जमावड़े का आयोजन पूरे जोर-शोर से हो रहा था। याद दिला दें कि पिछले दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन कोरोना संक्रमण की बढ़ती संख्या का दोष आम जनता के माथे मढ़ चुके हैं। निश्चित ही पिछले महीनों में जनता कोरोना वायरस के प्रति लापरवाह हो गई थी। लोग काम पर लौटने लगे थे, दफ्तर खुलने लगे थे और व्यापार शुरू हो रहा था। लेकिन महामारी जैसी अवस्था में जब सरकारी प्रतिनिधि खुद गलत उदाहरण पेश करे, तो आम जनता का पथ भटकना प्रत्याशित हो जाता है।

कोविड-19 से जूझते भारत को अब वैक्सीन का सहारा दिया जाने लगा है। वैक्सीन और बंगाल की जनता का उस तक पहुंच का जायज़ा लें, तो मैं दो अलग-अलग घटनाओं को साझा करना चाहूंगी। मेरी मां की एक सहेली और उनके पति वैक्सीन की दूसरी डोज़ लेने पहुंचे तो पता चला कि उन्हें वैक्सीन की कमी के कारण दूसरा डोज़ नहीं दिया जाएगा। ऐसे ही पहली ही डोज़ लेने गए एक और दंपति को इस तर्ज़ पर मना कर दिया गया कि चुनाव के कारण वैक्सीन की सप्लाई पर्याप्त नहीं हो रही है। ऐसे में सिर्फ उन लोगों को वैक्सीन दिया जा रहा है जिनका दूसरा डोज़ बाकी है। दोनों जोड़े वरिष्ठ नागरिक हैं और इनमें से एक व्यक्ति दो बार कैंसर का भी सामना कर चुके हैं।

केंद्र सरकार द्वारा दूसरे देशों के तुलना में भारतीय लोगों को अधिक वैक्सीन देने का डंका पीटने के बावजूद पिछले दिनों आम जनता को कई राज्यों के अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में ‘नो वैक्सीन’ का बोर्ड लगा हुआ मिला।

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पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा दूसरे देशों के तुलना में भारतीय लोगों को अधिक वैक्सीन देने का डंका पीटने के बावजूद आम जनता को कई राज्यों के अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में ‘नो वैक्सीन’ का बोर्ड लगा हुआ मिला। महामारी को उत्सव में बदलने की प्रक्रिया अब तक थाली बजाकर और दिया जलाकर हो रही थी मगर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 11 से 14 अप्रैल तक टीका उत्सव की घोषणा ने मानो आम जनता की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। बता दें कि स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इन दिनों के दौरान आम दिनों की तुलना में लोगों को और कम टीके लगाए गए। वैक्सीन की कमी के कारण शुरू से ही टीकाकरण अभियान धीमा चल रहा है। पिछले दिनों केरल, ओडिसा, महाराष्ट्र और राजस्थान सरकार अपने-अपने राज्यों में वैक्सीन की कमी के बारे में केंद्र को सूचित कर चुकी हैं।

ऑक्सीजन और दवाइयों की कमी के बीच अब वैक्सीन की कमी देश के सामने एक नई चुनौती बनकर उभर रही है। देश की आधी से ज्यादा आबादी ग्रामीण भारत में रहती है। देश की एक बड़ी आबादी का बिजली या इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधा से कटा या ठीक से जुड़ा ना होना, निश्चित रूप से टीकाकरण अभियान को और धीमा कर देगा। जहां सरकार टीका के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कहने को कह रही है, वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के अनुसार गावों में आज भी महज 13 फीसद लोग इंटरनेट का प्रयोग करने में सक्षम हैं। पिछले दिनों वरिष्ठ नागरिकों का टीकाकरण अभियान शुरू होने पर सरकार की ओर से कोई निश्चित दिशानिर्देश नहीं दिए गए थी। लेकिन उस दौरान अधिकतर लोग इस वेबसाईट के विषय में ना तो जान पाए और ना ही प्रयोग किए। जहां शहरी इलाकों में खबरों की आवाजाही के कारण लोग टीकाकरण के बारे में जान पाए, वहीं ग्रामीण भारत में इसकी कमी रही। वयस्कों को भी अब वैक्सीन के लिए सरकार कोविन वेबसाईट से पंजीकरण के लिए कह रही है। हालांकि अब तक दिल्ली सरकार को छोड़कर किसी राज्य ने इसे बाध्य नहीं किया है लेकिन केंद्र सरकार की सोशल मीडिया के विज्ञापनों से साफ है कि इस उम्र के लोगों में टीकाकरण पंजीकरण द्वारा ही संभव है। कोविन के साथ-साथ आरोग्य सेतु या उमंग ऐप से पंजीकरण करने की बात कही जा रही है।  

महामारी के कारण पहले से ही आर्थिक और शारीरिक कष्ट झेल रही जनता के लिए अब राजनीतिक खेल भयानक बनते जा रहे हैं। बंगाल के विधानसभा चुनाव में पूरा ध्यान और ताकत झोंक देने वाली सरकार न ही बड़ी-बड़ी रैलियां करने से बाज़ आई ना ही धार्मिक जमावड़े को रोकने की पहल की। बंगाल की रैली में उमड़ी भीड़ को देखकर महामारी के बीच देश के ‘प्रधानसेवक’ की बाछें खिल उठना अपने आप में देश की बदकिस्मती की एक नई मिसाल है जबकि इन चुनावी रैलियों पर सवाल उठते रहे, लेकिन ना ही रैली रुकी ना प्रचार और इस चक्कर में जनता दोहरी मार खाती रही। पिछले दिनों भले राहुल गांधी और उसके बाद ममता बनर्जी और बीजेपी ने रैलियों को रोकने, समय को संक्षिप्त करने या वर्चुअल करने की बात की लेकिन अब पश्चिम बंगाल, खासकर कोलकाता में एक्टिव केसेज के मामले बढ़ने लगे हैं। बंगाल और असम में चुनाव के बीच तुलनामूलक रूप से मुंबई या दिल्ली से कोरोना संक्रमण के मामले कम होने का कारण यह रहा है कि राज्य में चुनाव शुरू होते ही एकाएक प्रतिदिन होने वाली टेस्ट की संख्या में कमी पाई गई। इंडिया टूडे की एक रिपोर्ट बताती है कि बंगाल में टेस्टिंग कम होने पर भी कोरोना के एक्टिव मामलों की संख्या में पहले से कहीं ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज हुई।   

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बीजेपी सरकार ने जितनी तेजी बंगाल में अपनी संभावित जीत के बाद सभी को मुफ़्त वैक्सीन की राजनीति पर रणनीति बनाने में दिखाई, उतनी तेजी हमें देश के अस्पतालों में दवा, आक्सीजन और बेड की कमी से जूझती जनता की सुध लेने में नहीं दिखी। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक ख़बर के मुताबिक देश में ऑक्सीजन की कमी की चेतावनी सरकार को पहले ही दी गई थी। कोविड से बचाव के लिए योजना बनाने और लागू करवाने के लिए बनाए गए 11 अफ़सरों के समूह ने पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन के शुरू होने से एक हफ्ते पहले ही इस बारे में अप्रैल और फिर नवंबर में चेतावनी दी थी। इसके बावजूद आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत इतनी दयनीय है कि लोग अस्पतालों और उसके बाहर ऑक्सीजन और इलाज के इंतज़ार में मर रहे हैं। जिस देश का ‘प्रधानसेवक’ विकास को मजहब की तराजू पर आंकता हो और गांव में कब्रिस्तान के बनने पर विकास के नाम पर श्मशान का बनना जरूरी समझता हो, लाजमी है कि ढह चुकी स्वास्थ्य व्यवस्था, भूखमरी और गरीबी की आग में पूरा देश जलेगा। भारत अब तक दुनिया भर के 84 देशों में टीके की 64.5 मिलियन डोज़ निर्यात कर चुका है। देश में संभावित वैक्सीन की कमी के कारण टीकाकरण की गति में कमी होने की खबरें पहले ही बताई जा चुकी है।

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बता दें कि केंद्र के निर्देश अनुसार वैक्सीन, दवा और कोरोना संक्रमण से संबंधित सभी चीजें जैसे पीपीइ किट केंद्र का हर राज्य को मुहैया कराने का फैसला किया गया था। 1 मई से शुरू होने वाले टीकाकरण के तीसरे चरण के लिए केंद्र ने वैक्सीन के मामले यह अनुमति दी है कि राज्य सरकार उत्पादकों से सीधे तौर पर वैक्सीन खरीद सकती है। लेकिन अब वैक्सीन के मूल्यों पर एक नया प्रपंच दिख रहा है। अब तक कई राज्यों ने सभी वयस्कों के लिए मुफ़्त टीके की घोषणा कर चुकी है। इनमें कुछ राज्यों में बंगाल की तरह वैक्सीन जैसे बुनियादी जरूरत को भी चुनावी आवरण पहनते देखा गया। पहले से दवाइयों और आक्सीजन की बढ़ी कीमतें चुका रही जनता की त्रासदी का राजनीतिकरण अब आम बन चुका है। इस महामारी ने समाज में मौजूदा आय, लिंग और नस्ल की असमानताओं को उजागर किया और बढ़ाया है। स्टेट ऑफ वर्किंग के रिपोर्ट अनुसार, साल 2018 में भारत में औसतन शहरी इलाकों में आकस्मिक मजदूर 9625 हजार प्रति माह या 370 रुपए प्रति दिन कमाने की सूचना दी। स्व-नियोजित अनौपचारिक व्यवसायी की 12,500 प्रति माह या 480 रुपए प्रति दिन औसत मासिक आय है। वहीं क्लरिकल श्रमिकों में औसतन 28,125 प्रति माह या 1082 प्रति दिन की कमाई पाई गई। ऐसी स्थिति में, वैक्सीन की कीमतों का आंकलन करें, तो साधारण जनता को अपनी सुरक्षा भी भारी पड़ेगी। किसी भी गंभीर बीमारी या महामारी जैसे स्मॉल पाक्स या पोलिओ जैसे रोगों को जड़ से खत्म करने के लिए इससे पहले टीका बिना मूल्य ही दिया जाता रहा है। इन बीमारियों को सफल तरीके से विशेष कर ग्रामीण इलाकों से निर्मूल कर पाने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण निर्णय रहा था। वैक्सीन के विभिन्न दाम होने और जनता को मुफ़्त वैक्सीन मुहैया कराने को राजनीति से जोड़ने के कारण आज इसमें पारदर्शिता खत्म हो चुकी है।  

असल में कोविड के मामलों में फिर से उछाल आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यह पहले से ही उम्मीद की गई थी। किसी भी महामारी की यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है। त्रासदी यह है कि वायरस के खिलाफ हमारी लड़ाई दिशाहीन है। राजनीति के खेल और सत्ता पर बैठी सरकार के खुद के लोक- प्रसिद्धि के प्रचार के धुंद में मानो पिछला एक साल बीत गया हो। इस लंबे समय के मिलने के बावजूद कोरोना के खिलाफ भारत की लड़ाई में दिल्ली और मुंबई जैसे कई शहरों में ऑक्सीजन की आपूर्ति की कमी को कम नहीं किया जा पाना, सरकार की तैयारी में घोर कमी को स्पष्ट करती है। बहरहाल स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी सुविधाओं की कमी में जनता बदहाल है।

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तस्वीर साभार : Business Standard

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