समाजख़बर कोविड-19 : शहरों में पसरे मातम के बीच गांवों के हालात की चर्चा भी नहीं

कोविड-19 : शहरों में पसरे मातम के बीच गांवों के हालात की चर्चा भी नहीं

ग्रामीण क्षेत्र मीडिया की नज़रों से अछूते रह गए हैं, जबकि महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लॉकडाउन लगने के बाद वहां रह रहे प्रवासी मज़दूर, जो उत्तर प्रदेश या बिहार से थे, रोटी-रोजी के साधन बंद होने पर दोबारा गांवों की ओर लौट रहे हैं। इससे गांवों में संक्रमण फैलने या 'कोरोना विस्फ़ोट' होने की संभावना बहुत ज़्यादा बढ़ गई है।

बीते 21 अप्रैल को दिल्ली से बनारस आते हुए मैंने स्टेशन पर प्रवासियों की भीड़ देखी। बोरिया-बिस्तर बांधकर परिवार सहित लोग मुरझाए चेहरों से ट्रेन का इंतेज़ार कर रहे थे। बहुतों ने मास्क लगाए थे, कुछ ने खानापूर्ति की थी और कुछ ने चेहरे खुले रखे थे। मुझे बनारस आकर अपने ज़िले ग़ाज़ीपुर के लिए बस पकड़नी थी। रोडवेज़ अड्डे पर पहुंचकर देखा तो वहां रेलवे स्टेशन से भी बुरा हाल था। एक-एक सीट पर चार लोग बैठे हुए थे। जैसे ही घर पहुंची, मालूम हुआ कि मेरे इलाके में पिछले दो दिनों में आठ लोगों की मौत हो चुकी है। ग्रामीण इलाके के लिए दो दिनों में आठ मौतों का यह आंकड़ा हिला देने वाला है, हालांकि इसपर भी न सरकारी महकमा सचेत हुआ, न ही लोग। अब भी लोग बाज़ारों में जा रहे हैं और मास्क के बिना घूम रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर कोरोना के बारे में जागरूकता का स्तर बिल्कुल नगण्य है लेकिन आस-पास के माहौल को देखकर यह साफ़ है कि कोविड-19 गांवों में भी अपने पांव पसार चुका है।

देशभर में कोरोना के केस रोजाना नए आंकड़े छू रहे हैं। अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन और दवाइयों के लिए हाहाकार मचा हुआ है। स्वास्थ्य व्यवस्था की लचर हालत एकबार फिर से सबके सामने है। पिछले साल की त्रासदियों से अभी देश उबर भी नहीं पाया था कि कोविड-19 की दूसरी लहर पुराने रिकॉर्ड तोड़कर नागरिकों में दहशत फ़ैला रही है। ध्यान दें तो मार्च तक हालात इतने नहीं बिगड़े थे। देश के अलग-अलग हिस्सों में स्कूल खुलने लगे थे। छात्र-छात्राएं फिर से विश्वविद्यालयों को खोलने की अपील करते हुए घर से लौटने लगे थे। मज़दूर भी आजीविका के लिए महानगरों का रुख करने लगे थे। 2020 में मार्च से ही काम-धंधा बन्द होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति ध्वस्त हो चुकी थी इसीलिए ग़रीब जनता आजीविका की तलाश में किसी अन्य उचित विकल्प के अभाव में अपने परिवार और अपना पेट पालने के लिए जान हथेली पर रखकर फिर से दिल्ली, बम्बई और गुज़रात जैसे महानगरों की ओर चली आई।

कोरोना वायरस पूरी तरह खत्म भी नहीं हुआ था कि देशभर में सार्वजनिक और निजी दोनों ही स्तरों पर स्वास्थ्य व्यवस्था की अनदेखी होने लगी। कई जगह लोगों ने मास्क लगाना बंद कर दिया था, मेट्रो में जमकर भीड़ चढ़ती थी और प्रतिबंधित जगहों पर भी धड़ल्ले से बैठने लगे। बंगाल और असम में नेता दौरे और रैलियां आयोजित करने लगे। ‘कुंभ चलो’ का आह्वान किया जाने लगा। इस तरह महाराष्ट्र ‘एपिसेंटर’ बनकर उभरा तो वहीं दिल्ली के संक्रमण दर में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है। कुल मिलाकर देशभर में आपातकाल की स्थिति बन गई है। सरकारें लोगों से घरों में रहने की अपील कर रही हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए अधिकांश शहरों में फिर से लॉकडाउन लगा दिया गया है। अभी तक मीडिया में शहरी क्षेत्रों, वहां के अस्पतालों और संक्रमण दरों पर ही बात की जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र मीडिया की नज़रों से अछूते रह गए हैं, जबकि महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लॉकडाउन लगने के बाद वहां रह रहे प्रवासी मज़दूर, जो उत्तर प्रदेश या बिहार से थे, रोटी-रोजी के साधन बंद होने पर दोबारा गांवों की ओर लौट रहे हैं। इससे गांवों में संक्रमण फैलने या ‘कोरोना विस्फ़ोट’ होने की संभावना बहुत ज़्यादा बढ़ गई है। 

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बताते चलें कि जिस दिन दिल्ली सरकार ने एक हफ़्ते का लॉकडाउन घोषित किया, आनंद विहार बस अड्डे पर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। लोगों में अफ़रा- तफ़री मच गई और प्रवासी परिवार सहित अपना बोरिया-बिस्तर लेकर घर की ओर जाने लगे। महानगरों में काम करने आए प्रवासियों के ज़हन से अब भी पिछले साल के लॉकडाउन के दौरान की अमानवीय आपबीती की स्मृतियां ग़ायब नहीं हुई हैं। उन्हें याद है कि सामने वायरस और भूख दोनों मुंह बाए खड़े थे और सरकारों ने पूरी तरह से हाथ खींच लिया था। इसीलिए, इस बार जैसे ही उन्हें परिस्थिति का आभास हुआ, वे जल्द से जल्द महानगरों से निकलकर गांव चले जाना चाहते थे। शहर छोड़कर इतनी बड़ी आबादी के गांवों में आने से जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था वाले ग्रामीण इलाकों की स्थिति और भी अधिक गंभीर हो गई है। 

ग्रामीण क्षेत्र मीडिया की नज़रों से अछूते रह गए हैं, जबकि महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लॉकडाउन लगने के बाद वहां रह रहे प्रवासी मज़दूर, जो उत्तर प्रदेश या बिहार से थे, रोटी-रोजी के साधन बंद होने पर दोबारा गांवों की ओर लौट रहे हैं। इससे गांवों में संक्रमण फैलने या ‘कोरोना विस्फ़ोट’ होने की संभावना बहुत ज़्यादा बढ़ गई है।

प्रवासी और लॉकडाउन

स्थिति को गहराई से समझने के लिए भारत के आंतरिक प्रवास यानि देश के अंदर ही एक हिस्से से दूसरे हिस्से में होने वाले माइग्रेशन को समझना जरूरी है। पिछले साल, इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट की मानें तो आंकड़ों के अनुसार भारत की आबादी का करीब 37 प्रतिशत भाग आंतरिक प्रवास करता है। हालांकि इस संबंध में कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है लेकिन रिसर्च एंड इन्फॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर डेवलपिंग कंट्रीज़ के अमिताभ कुंडू ने साल 2011 की जनगणना, नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (NSSO) और इकनोमिक सर्वे के अध्ययन करके आकलन कर 2020 की परिस्थितियों के संबंध में बताया कि देश में क़रीब 65 मिलियन लोग आंतरिक प्रवास करते हैं जिनमें से 33 मिलियन मज़दूर हैं। इसी संबंध में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटी (CSDS) के एक शोध में पाया गया कि भारत के बड़े शहरों की तक़रीबन 29 प्रतिशत आबादी दिहाड़ी मज़दूरी करती है। ये उन्हीं लोगों के आंकड़ें हैं, जो इस महामारी के दौरान महानगर छोड़कर अपने गृहराज्य वापस जाना चाहते होंगे। लॉकडाउन में फैक्ट्री, दुकानें, ढाबे आदि बंद हो जाने पर दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले लोगों के पास राशन का बड़ा स्टॉक ख़रीदने और कमरे का किराया चुकाने के पैसे नहीं बचते। बाहर निकलने पर पुलिस की लाठी और वायरस और अंदर भूखे रहने के डर के कारण मज़दूर अपनी पूरी जमापूंजी लगाकर टिकट ख़रीद रहे हैं और किसी भी तरह गांव आने चाहते हैं।

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गांवों और कस्बों की मौजूदा स्थिति

अगर केवल उत्तर प्रदेश के बनारस की बात करें तो रेलवे के अधिकृत ऐप IRCTC के मुताबिक़ दिल्ली से बनारस के बीच इस समय क़रीब 14 ट्रेनें चलायी गई हैं, जिनमें से 8 रोज़ाना चल रही हैं, फिर भी मुश्किल से ही टिकट मिल रहा है। इसके अलावा लोग बस और निजी वाहनों से भी गांवों में आ रहे हैं। इस तरह, एक बड़ी आबादी रोज़ाना शहरों से गांवों में आ रही है और इस तरह कोरोना भी सीधे गांवों में पहुंच रहा है। मैं अगर अपने गांव की बात करूं तो इस दौरान जो लोग दिल्ली से यहां आ रहे हैं, वे खुलेआम बिना कोरोना से बचने के नियम का पालन किए घूम रहे हैं। यह समय रबी फसलों के कटाई और मड़ाई का है। किसानों के लिए यह सबसे ज़रूरी समय है, इसमें वे मज़दूरों की सहायता से गेहूं की मड़ाई करने में लगे हैं। इस तरह, लोगों का एक दूसरे से सीधा संपर्क हो रहा है। यहां बाज़ार भी रोज़ खुल रहे हैं, जिससे शहरों से यहां आए लोग बाज़ारों में भी घूम रहे हैं। दरअसल, सरकारों ने ज़िम्मेदारी लेते हुए कोरोना महामारी की समस्या को सीधे तौर पर नागरिकों के सामने नहीं रखा, इसीलिए ग्रामीण जनता अभी भी इसे उतनी गंभीरता से नहीं ले रही है। कोरोना की गंभीरता को लेकर भारतीय जनता इस समस्या को लेकर अभी भी इतनी कम जागरूक है कि बंगाल की चुनावी रैलियों में लोग बड़े-बड़े समूहों में आ रहे थे लेकिन सरकार और प्रशासन ने तब भी सुध नहीं ली और लगातार झूठ बोलकर अपनी थोथी छवि बनाए रखनी चाही।

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प्राइमरी हेल्थ सेंटर की स्थिति और कोरोना के बढ़ते आंकड़े

कोरोना की दूसरी लहर में देशभर की मेडिकल अव्यवस्था खुलकर सामने आ गई है। बहुत से मरीज़ों को बेड नहीं मिला, बहुत सारे लोग ऑक्सिजन की कमी से मर गए, कहीं इंजेक्शन नहीं मिल रहा तो कहीं दवाओं की कालाबाज़ारी शुरू हो गई। दिल्ली के सरकारी लोहिया अस्पताल से लेकर गंगाराम और मैक्स जैसे निजी अस्पतालों में भी बेड से लेकर ऑक्सिजन की कमी हो गई। इन अस्पतालों ने ऑनलाइन ट्वीट करके जनता के सामने अपनी समस्या रखी और सरकारों से सहयोग मांगा। इस प्रकार, अगर देश की राजधानी, जहां सीधे मीडिया की नज़र होती है, जहां बड़े सरकारी और निजी अस्पताल हैं, वहां, ऐसे हालात हैं तो ग्रामीण क्षेत्र में कोरोना विस्फ़ोट होने पर क्या आलम होगा, यह अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। इसमें भी बात अगर उत्तर प्रदेश की हो तो यहां के हालात और भी जर्जर हैं। राज्य में सामान्य परिस्थितियों के लिहाज़ से भी डॉक्टरों और मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है। यहां के 942 प्राइमरी हेल्थ सेंटर पानी, बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों के बिना काम कर रहे हैं। इस संबंध में 25 नवंबर 2019 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक आर्टिकल के अनुसार केंद्र की ओर से लोकसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक उत्तर प्रदेश का डॉक्टर: मरीज़ अनुपात और संरचनागत ढांचा पूरे देश की तुलना में सबसे ख़राब है। यह आंकड़ा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए गया पेश किया था।

विरोधाभाष देखिए कि केंद्र और राज्य दोनों ही जगह बीजेपी की सरकार होने के बावजूद हालातों में न तो सुधार किया  गया है, न ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा कोरोना महामारी के समय कोई ठोस कदम उठाया गया है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी ही है कि सबसे बड़ी आबादी वाले, आर्थिक रूप से पिछड़े, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था वाले राज्य का मुख्यमंत्री राज्य को कोरोना की आपदा से सुरक्षित करने में लगने की बजाय कुछ दिनों पहले तक बंगाल में चुनावी रैली संबोधित कर रहा था। इसका नतीजा यह है कि हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। गांवों और कस्बों में न केवल लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं बल्कि मौत के आंकड़ों में भी बढोत्तरी हुई है। कोरोना के पहले दौर में गांवों में हालात इतने बदतर नहीं थे। इस प्रकार, शहरी आबादी के गांवों में आने और खुलेआम घूमने से संक्रमण फैलने की सम्भावना बढ़ गई है। इसी समय पंचायत चुनाव भी हो रहे हैं, लोग स्वास्थ्य मापदंडों को ताक पर रखकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं। शादी और दूसरे समारोहों का आयोजन हो रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में मौजूदा समय की गम्भीरता को जागरूकता के अभाव में नज़रंदाज़ कर ग्रामीण सीधे तौर पर बड़ी समस्या को निमंत्रण दे रहे हैं।

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तस्वीर साभार : Al Jazeera

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