समाजख़बर जातिगत भेदभाव और कोरोना की दूसरी लहर वंचित तबको पर दोहरी मार है

जातिगत भेदभाव और कोरोना की दूसरी लहर वंचित तबको पर दोहरी मार है

गरीब, मज़दूर और निचली और वंचित तबकों के लिए ये कोरोना संक्रमण मानो एक़बार फिर छुआछूत की कुरीति को दबे पांव बढ़ावा देने लगा है।

गांवों में शादी-ब्याह और पंचायत चुनाव की वजह से कोरोना का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। उत्तर प्रदेश के बनारस ज़िले के गांव भी कोरोना महामारी से अछूते नहीं हैं। बनारस ज़िले में हर दिन कोरोना से संक्रमित होनेवाले मरीज़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। मेरे गांव में भी आए दिन लोगों की मौत हो रही है। सीमित जानकारी और संसाधनों के अभाव में गांव में कोरोना जांच का स्तर भी बहुत कम है। ज़्यादातर लोग कोरोना वायरस के बारे में जागरूक ही नहीं है, उन्हें सर्दी, खांसी और बुख़ार जैसे लक्षणों के बारे में जानकारी है, जिसे वे सामान्य मानकर नज़रंदाज़ कर रहे हैं। इसकी वजह से चार-पांच दिन बुख़ार, सर्दी और खांसी जैसे लक्षणों के गंभीर हो जाने के बाद उनकी मौत हो जा रही हैं। चूंकि मेरे गांव में जिन लोगों की हाल में मौत हुई है उसमें से अधिकतर लोगों की कोरोना जांच नहीं हुई थी इसलिए ये मौतें गांव के रहस्यमयी बनती जा रही हैं।

कोरोना संक्रमण ने लोगों को स्वच्छता की तरफ़ आगे बढ़ने को तो मजबूर किया है, लेकिन ज़मीनी स्तर की बात करें तो इससे जातिगत छुआछूत अब और अधिक साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा है। इस जातिगत भेदभाव के व्यवहार की मार हम आए दिन झेल रहे हैं और हमारा क़सूर सिर्फ़ यही है कि हम समाज की तथाकथित निचली जाति से ताल्लुक़ रखते हैं। गांव के प्राइवेट डॉक्टर भी दूसरे लोगों की अपेक्षा हमलोगों से ज़्यादा बुरा बर्ताव करने लगे हैं। जहां वे अपने बाक़ी मरीज़ों को सैनेटाइज़ करने के बाद बाहर की कुर्सी पर बैठने की इजाज़त देते हैं तो वहीं हमलोगों को क्लिनिक में घुसने की मनाही है। वे दूर खड़े होकर ही मरीज़ की दिक़्क़त पूछकर उसको दूर से दवा का पर्चा दे देते हैं। कई बार ये दवा काम नहीं करती है, क्योंकि न तो हरिजन बस्ती के मरीज़ों का बुख़ार मापा जाता है और न डॉक्टर उनका परीक्षण करते है। चूंकि इन दिनों कोरोना का संक्रमण गांव में भी तेज़ी से बढ़ रहा है इसलिए डॉक्टर सर्दी, ज़ुकाम और खांसी सुनते ही पहले कोरोना की जांच के लिए बोल देते है।

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बेशक कोरोना एक जानलेवा संक्रमण है, लेकिन समाज के वंचित तबके के लिए इस संक्रमण का प्रभाव बेहद वृहत है। गरीब, मज़दूर और निचली और वंचित तबकों के लिए ये संक्रमण मानो एक़बार फिर छुआछूत की कुरीति को दबे पांव बढ़ावा देने लगा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कोरोना जांच केंद्रों की संख्या बेहद सीमित है और जिन जगहों पर प्राइवेट स्तर पर ये जांच हो भी रही है उसकी फ़ीस इतनी ज़्यादा है कि ये मज़दूर परिवार की पहुंच से भी बाहर है। इससे लोगों में एक डर यह भी बढ़ने लगा है कि अगर वे जांच को जाते है और किसी का टेस्ट पॉज़िटिव आता है तो फिर पूरे परिवार को जांच करवानी पड़ेगाी और स्थिति ऐसी बन जाएगी कि संक्रमण के डर से वे किसी से भी मदद नहीं ले पाएंगें, इसलिए अब लोग जांच से कतराने भी लगे हैं। इसके साथ ही, लोगों में कोरोना की जानकारी से ज़्यादा डर फैला दिया गया है, जिससे हमारी बस्ती के लोग डॉक्टर के पास जाने की बजाय ख़ुद से दवा लेकर अपनी सर्दी, खांसी और जुकाम का इलाज कर रहे हैं।  

सिर्फ़ चिकित्सा ही नहीं सरकारी राशन और मज़दूरी के काम की जगहों पर आए दिन भेदभाव और छुआछूत का व्यवहार बढ़ रहा है। यही वजह है कि पिछले महीने, जब से कोरोना की दूसरी लहर शुरू हुई तब से गांव में कोटे से राशन वितरण का काम भी सीमित होता गया। हरिजन बस्ती के लिए पिछले दो-तीन बार से राशन ही नहीं बच पा रहा है। पूछने पर कोटेदार कोरोना की वजह से कम राशन होने या फिर कोरोना के टीके की अनिवार्यता बताकर अधिकतर परिवारों को राशन देने से मना कर दे रहा है। गांव के मज़दूर परिवार में सरकारी कोटे से मिलने वाला राशन परिवार का पेट पालने में अहम भूमिका निभाता है और जब महामारी के दौर में जब मज़दूरों को संक्रमण के डर से नियमित काम नहीं मिल पा रहा है, ऐसे में कोटेदारों का ये रवैया मज़दूर परिवारों को मानसिक रूप से तोड़ने का काम करता है।

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कोरोना के बढ़ते संक्रमण ने मज़दूरी के काम को भी प्रभावित किया है, जिससे लोगों को रोज़गार मिलने में काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। इन्हीं कारणों के चलते, अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर लोग गांव में होने वाले शादी, ब्याह और अंतिम संस्कार जैसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में छोटे-मोटे मज़दूरी का काम करने को मजबूर हैं, जिससे संक्रमण का ख़तरा बढ़ना भी स्वाभाविक है।

बेशक कोरोना एक जानलेवा संक्रमण है, लेकिन समाज के वंचित तबके के लिए इस संक्रमण का प्रभाव बेहद वृहद है। गरीब, मज़दूर और निचली और वंचित तबकों के लिए ये संक्रमण मानो एक़बार फिर छुआछूत की कुरीति को दबे पांव बढ़ावा देने लगा है। संक्रमण की आड़ में स्वास्थ्य, सरकार और समाज इस कदर भेदभाव कर रही है कि उसकी शिकायत भी नहीं की जा सकती है। इसके चलते गांव में लोग डॉक्टर और अस्पताल के चक्कर काटने की बजाय अपने घर-गांव में तड़पना चुनने को मजबूर है। क्योंकि उन्हें ये अच्छे से पता है कि जैसे ही वे सिस्टम से सुविधाओं की उम्मीद करेंगें, उन्हें सिरे से दरकिनार कर मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा, क्योंकि वे किसी विशेष जाति से ताल्लुक़ रखते हैं। 

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तस्वीर साभार : ET Health

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