समाजख़बर विज्ञापनों के ज़रिये लैंगिक भेदभाव को और मज़बूत किया जा रहा है : UNICEF

विज्ञापनों के ज़रिये लैंगिक भेदभाव को और मज़बूत किया जा रहा है : UNICEF

यह शोध यह भी बताता है कि महिला पात्रों को पुरुष पात्रों के मुकाबले 9 गुना ज्यादा खूबसूरत और आकर्षित दिखाया जाता है। लगभग 66.9% औरतों को हल्का या फिर मध्य हल्का रंग में दिखाया जाता है जिसकी वजह से समाज में इस धारणा को भी मज़बूती मिलती है कि गोरी औरतें ही खूबसूरत और आकर्षित होती हैं।

टीवी पर चलते विज्ञापन कितने मनोरंजक होते हैं न। चंद मिनटों या सेकंड में ही वह काफी अहम बात कह जाते हैं। आपने अक्सर अपने आसपास छोटे बच्चों में भी विज्ञापनों के प्रति आकर्षण देखा होगा। भले ही लोग सीरियल, प्रोग्राम या फिल्म ना देखें लेकिन विज्ञापन आते हैं उनकी भी नज़रें ठहर जाती हैं लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिन विज्ञापनों को हम इतने गौर से देखते हैं वहां भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है। इन विज्ञापनों में भी हमेशा पितृसत्तात्मक रवैया ही देखा जाता है और ये समाज में पहले से मौजूद पितृसत्तात्मक धारणा को और मज़बूत करते हैं। यह मैं नहीं बल्कि हाल ही में अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनाइटेड नेशन चिल्ड्रेन इमरजेंसी फंड (UNICEF) द्वारा जारी की गई रिपोर्ट- Gender Bias and Inclusion in Advertising in India कहती है।

इस रिपोर्ट में यह पाया गया है कि विज्ञापनों में औरतों को सार्वजनिक जगहों पर, रोज़गार में, नेता, निर्णायककर्ता के रूप में बेहद कम या न के बराबर दिखाया जाता है। इस स्टडी का उद्देश्य भारतीय टेलीविजन और यूट्यूब के विज्ञापनों में लैंगिक रूढ़िवाद और महिलाओं के प्रतिनिधित्व को मापना था। इस स्टडी में टेलीविजन और यूट्यूब पर 1,000 सर्वाधिक देखे जाने वाले विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया और यह पाया गया कि विज्ञापनों में लड़कियों और महिलाओं को स्क्रीन समय (59.7%), बोलने का समय (56.3%), व 49.6% पात्रों के रूप में दर्शाया जाता है। लेकिन ज्यादातर समय इन विज्ञापनों में महिलाओं को घरेलू या फिर सौंदर्य उत्पाद बेचते हुए ही दिखाया जाता है। आपने भी अक्सर किसी डिटर्जेंट या फिर खाने-पीने से जुड़ी चीज़ों के विज्ञापन में महिलाओं को अपने परिवार का देखभाल करते हुए देखा होगा। ऐसे विज्ञापनों में वह अपने महिला दर्शकों से भी उस डिटर्जेंट या फिर खाद्य सामग्री को अपनाकर अपने परिवार की देखभाल करने के लिए प्रेरित करती है। इस तरह से भारत के विज्ञापनों में महिलाओं की स्थिति पारंपरिक लैंगिक भूमिका को सुदृढ़ करती है। पीढ़ी दर पीढ़ी यदि लोग उसी लैंगिक भेदभाव को अपनाते रहेंगे तो इस समाज का विकास सीमित हो जाएगा।

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यूनिसेफ के जेंडर बायस एंड इंक्लूजन इन एडवरटाइजिंग इन इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में यह साफ किया है की पुरुषों को घर में घरेलू कामों और महिलाओं को वर्किंग महिला के रूप में बहुत कम दिखाया जाता है। पुरुषों की तुलना महिलाओं को ज्यादातर शॉपिंग करते (4.1% की तुलना में 2.3%), घर की सफाई करते (4.8% की तुलना में 2.2%), खाने के सामान खरीदते या बनाते हुए (5.4% की तुलना में 3.9%) दर्शाया जाता है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को ज्यादातर शादीशुदा ही दिखाया जाता है। विज्ञापनों में पुरुष पात्रों को ज्यादातर अपने भविष्य के बारे में फैसले लेते हुए दिखाया जाता है जैसे, कौन सी कार खरीदनी चाहिए, किस फंड में पैसा निवेश करना चाहिए, कौन सी बीमा पॉलिसी खरीदनी चाहिए, इत्यादि-इत्यादि। वहीं, महिला पात्रों को ज्यादातर घरेलू फैसले लेते हुए दिखाया जाता है। जैसे, कौन सा तेल, नमक खरीदना चाहिए, कौन सा क्रीम बेस्ट-एवर निखार देगा, कौन सा चावल अपनाए, घर की सफाई कैसे करें इत्यादि-इत्यादि। विज्ञापन बनाने वाले विज्ञापनों में हमेशा पुरुष पात्रों को महिला पात्रों के मुकाबले ज्यादा बुद्धिमान और हास्यजनक दिखाते हैं।

यह शोध यह भी बताता है कि महिला पात्रों को पुरुष पात्रों के मुकाबले 9 गुना ज्यादा खूबसूरत और आकर्षित दिखाया जाता है। लगभग 66.9% औरतों को हल्का या फिर मध्य हल्का रंग में दिखाया जाता है जिसकी वजह से समाज में इस धारणा को भी मज़बूती मिलती है कि गोरी औरतें ही खूबसूरत और आकर्षित होती हैं।

यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि महिला पात्रों को पुरुष पात्रों के मुकाबले 9 गुना ज्यादा खूबसूरत और आकर्षित दिखाया जाता है। लगभग 66.9% औरतों को हल्का या फिर मध्य हल्का रंग में दिखाया जाता है जिसकी वजह से समाज में इस धारणा को भी मज़बूती मिलती है कि गोरी औरतें ही खूबसूरत और आकर्षित होती हैं। उन्हें पुरुषों के मुकाबले 6 गुना ज्यादा खुले कपड़ों में दिखाया जाता है और 4 गुना ज्यादा नग्न रूप में चित्रित किया जाता है। महिलाओं का विज्ञापनों में 5 गुना ज्यादा सेक्सुअल ऑब्जेक्टिफिकेशन किया जाता है। सेक्सुअल ऑब्जेक्टिफिकेशन असल जीवन में एक गंभीर समस्या है। इसकी वजह से महिलाएं और लड़कियां शारीरिक घृणा और अवसाद का सामना करती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि विज्ञापन बनाने वाले महिलाओं को सेक्स वस्तु के रूप में पेश करते हैं। उन्हें इसके नकारात्मक प्रभाव जैसे अमानवीकरण और व्यक्तिगत नुकसान को भी ध्यान में रखना चाहिए।

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विज्ञापन बनाने वाले रंगों के माध्यम से भी पक्षपात करना नहीं छोड़ते। विज्ञापनों में ज्यादातर गुलाबी रंग लड़कियों और औरतों को आकर्षित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। वहीं, लड़कों और पुरुषों को आकर्षित करने के लिए नीले रंग का इस्तेमाल किया जाता है। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है किंडर जॉय का विज्ञापन। जिसमें यह दर्शाया गया है कि यदि आप पिंक कलर का किंडर जॉय खरीदेंगे तो उसमें आपको लड़कियों के लिए खिलौने मिलेंगे जैसे- बार्बी, डॉल्स, इत्यादि। वहीं यदि आप ब्लू कलर का किंडर जॉय खरीदेंगे तो आपको लड़कों के लिए खिलौने मिलेंगे जैसे- रेसिंग कार, सुपर हीरोज, इत्यादि।

विज्ञापन इसलिए बनाए जाते हैं ताकि उसके ज़रिये लोगों की विचारधारा को बदलकर करके वांछित विचारों को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। सीधे सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि विज्ञापन लोगों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं तभी तो वे किसी वस्तु, उत्पाद, शिक्षा, नीति, समस्या या विचारधारा के प्रति आकर्षित होकर उसे अपनाते हैं। विज्ञापन न केवल किसी व्यक्ति विशेष के निर्णयों को प्रभावित करते हैं बल्कि संपूर्ण समाज के दृष्टिकोण को बदलने की शक्ति भी रखते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है परिवार नियोजन, सर्व शिक्षा अभियान आदि। इसके विज्ञापनों के माध्यम से ही हम इन सरकारी नीतियों का प्रचार-प्रसार आम जनता के बीच कर पाए हैं। इसलिए विज्ञापनों का हर प्रकार से समान होना बहुत आवश्यक है क्योंकि विज्ञापन हमारे समाज पर अपना एक गहरा असर छोड़ते हैं। जिन घरेलू कामों को हम औरतों के कंधों पर डालकर आम मान लेते हैं असल में वह कभी आम नहीं हो सकते। जिस समानता का हम नारा बुलंद करते चलते हैं असल में वह समानता हर स्तर पर आनी चाहिए।

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तस्वीर : गूगल

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