संस्कृतिमेरी कहानी बस्तर से आनेवाली मेरी आदिवासी मां का संघर्ष जो अब दसवीं की परीक्षा की तैयारियों में जुटी हैं

बस्तर से आनेवाली मेरी आदिवासी मां का संघर्ष जो अब दसवीं की परीक्षा की तैयारियों में जुटी हैं

हमारी पढ़ाई-लिखाई और घर की बाकी जरूरतों के लिए मां ने महुआ के शराब बनाए, खेतों में मजदूरी की, दूसरों के घरों में काम किए।

कहा जाता है कि मन में पढ़ने की ललक हो तो उम्र मायने नहीं रखती और ना ही शिक्षा पाने के लिए उम्र की कोई तय सीमा है। इसी बात से प्रेरित होकर मेरी मां ने इस बार स्टेट ओपन बोर्ड से दसवीं की परीक्षा देने का निर्णय लिया। मां अपने बचपन को याद करते हुए बताती हैं कि चार भाई-बहनों में वह सबसे छोटी हैं, लगभग डेढ़ दो साल की उम्र में ही नानी के गुज़रने के बाद नाना ने दूसरी शादी कर ली थी। किसी अन्य बच्चे की तरह उनका बचपन सुखद नहीं रहा उन्हें अपने भाई बहनों से बिछड़ना पड़ा। उनके भाइयों को रहने और पढ़ने लिए अनाथालय भेज दिया गया और बहन को ननिहाल वाले लेकर चले गए। मां उस समय बहुत छोटी थीं इस वजह से उनके लालन-पालन की जिम्मेदारी दादी ने ले ली। वह जब थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्हें स्कूल भेजने के बजाय उन्हें गाय बकरी चराने के लिए भेज दिया जाता। उनकी दादी का कहना था,”लड़की अगर स्कूल जाएगी तो घर के काम और गाय-बकरी की देखभाल कौन करेगा?” हालांकि नाना एक सरकारी ड्राइवर की नौकरी पर थे महीनों बाद जब वह घर आते तब मां को हिंदी की वर्णमाला और गिनती सिखाया करते। उन्होंने भी औपचारिक रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी दूर शहर में लोगों के बीच रहते हुए उन्हें सिर्फ थोड़ा बहुत ही अक्षर ज्ञान था।

पंद्रह-सोलह साल की उम्र में ही मां का माहला (सगाई) उनके के बुआ के बेटे से कर दिया गया। वह इस रिश्ते से खुश थीं कि उनका होने वाला ससुराल उनकी बुआ का घर हैं लेकिन मां की मौसी चाहती थी कि उनकी शादी उनके भतीजे से हो, इस वजह मां का पहला रिश्ता तोड़ दिया गया। साल भर बाद ही उनकी शादी उनकी मर्ज़ी के खिलाफ मौसी मां के भतीजे से कर दी गई लेकिन कुछ ही दिनों में मां वहां से भागकर आ गई। इस बात से नाराज़ होकर नाना ने मां की बहुत पिटाई की और घर से निकाल दिया। वह अपने काका-काकी के घर रहने लगीं। उन्हें इतना अधिक मार पड़ी था कि हफ़्तों तक शरीर पर नीले निशान दिखाई पड़ते थे

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मेरे लिए मां और पापा का अलग होना किसी भी बुरे सपने जैसा था इस बात से मैं मां से नाराज़ भी रहती लेकिन वक्त के साथ मुझे समझ आया कि किसी भी बुरे रिश्ते में रहने से बेहतर है, ऐसे रिश्ते का ना होना और मैंने मां के उस वक़्त के फैसले का सम्मान किया।

कुछ दिनों बाद ही मां के दूर के मामा-मामी उन्हें अपने साथ घरेलू काम के लिए लेकर गए चले गए और फ़िर उन्होंने ने ही मां को सिलाई प्रशिक्षण के लिए बाहर भेज दिया जहां पर उनकी मुलाक़ात एक मैडम से हुई जिन्होंने मां को प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से पांचवी की परीक्षा देने का सुझाव दिया। यहां कुछ अच्छे नंबरों से पास होने पर मन में आगे और पढ़ने की इच्छा जाग उठी और आठवीं तक उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके बाद नौवीं और दसवीं के लिए एक स्वयंसेवी संस्थान के आश्रम में उनका दाखिला करा दिया जहां वह नौंवी तो ठीक-ठाक नंबर से पास होने में सफ़ल रहीं लेकिन दसवीं में मैथ्स की वजह से पिछड़ गई। फेल होने के कारण उन्हें पढ़ने का दोबारा मौका नहीं दिया गया और एक बार फ़िर से उनकी शादी करवा दी गई। इस बार शादी ऐसे इंसान से हुई जो पहले से ही एक बच्चे के पिता थे। मां ने इसे स्वीकार कर आगे बढ़ने का फ़ैसला किया उन्हें लगा अब आगे की जिंदगी अच्छी रहेगी, गरीबी में सही लेकिन सुखदायी ज़िंदगी नसीब होगी लेकिन ये भ्रम कुछ दिनों बाद ही टूट गया।

वह शराब पीकर आते, नशे में गाली गलौज करते, मां के चरित्र पर शक करते और कभी मारते-पीटते। उन्होंने कभी मां को एक साथी होने के नाते प्यार और सम्मान नही दिया ना ही कभी ख्याल रखा। हालांकि पापा हम तीनों भाई बहनों में सबसे ज्यादा प्यार मुझसे करते थे। मेरे लिए मां और पापा का अलग होना किसी भी बुरे सपने जैसा था इस बात से मैं मां से नाराज़ भी रहती लेकिन वक्त के साथ मुझे समझ आया कि किसी भी बुरे रिश्ते में रहने से बेहतर है, ऐसे रिश्ते का ना होना और मैंने मां के उस वक़्त के फैसले का सम्मान किया। शायद वह मेरे लिए कुछ हद तक एक अच्छे पिता थे लेकिन कभी भी वह एक अच्छे साथी नहीं बन पाए ना ही उन्होंने कभी इस बात को लेकर अपनी जिम्मेदारी समझी।

हमारे पैदा होने के लगभग छह-सात सालों बाद मां ने तंग आकर वहां से निकलने का इरादा किया। बिना यह सोचे कि आगे ठौर ठिकाना कहां होगा? आखिरकार लौटकर मायके ही आई लेकिन किसी ने उन्हें नहीं अपनाया। कुछ दिन उनकी बुआ ने अपने घर पर रखा और कुछ दिन चचेरे भाई ने घर पर जगह दी। यहां भी सबके ताने सुनकर मां ने गांव में हीं एक खाली पड़े मकान जहां पर वनोपज संग्रहण करके रखा गया था उस घर के आधे हिस्से में रहना शुरू किया। मां को काकी और भाभी से कुछ बर्तन मिले, किसी ने थोड़ा राशन दिया और इस तरह जिंदगी फिर से शुरू हुई। हमारी पढ़ाई-लिखाई और घर की बाकी जरूरतों के लिए मां ने महुआ के शराब बनाए, खेतों में मजदूरी की, दूसरों के घरों में काम किए। हमारी लगभग आठवीं तक की पढ़ाई और बाक़ी जरूरतों का खर्च इन्हीं सब से पूरा हुआ।

बाकियों की तरह छत्तीसगढ़ में भी लोग बस्तर के लोगों के बारे में यहीं सोचते हैं कि बस्तर के लोग उनकी तरह सभ्य नहीं होते। वे जंगली घास-फूस ही खाते हैं। हमारी बोली भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाया जाता।

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साल 2009 में जब लकड़ी तस्करों ने पापा की हत्या कर दी तब समाज ने इसका आरोप भी मां पर लगाया गया। पापा जंगल डिपार्टमेंट में एक संविदा कर्मी थे कुछ ही समय पहले उनकी नियुक्ति स्थायी पद पर हुई थी। “बच्चों का आधार एक पिता से है”, बाकी समाज की तरह मां ने भी यही सोचा और हमें वापस उसी घर में लेकर चली आई। उस दौरान पूरे गांव और समाज ने एकतरफा फैसला सुनाया और हमें वहां से निकाल दिया गया। हम फिर से अपने किराए के घर में आ गए। अनुकंपा नियुक्ति का आदेश जब मां के लिए आया तब परिवारवालों ने इस बात को छुपाकर रखा। पांच साल की कानूनी लड़ाई के बाद आखिरकार साल 2014 में मां को अनुकंपा नियुक्ति का आदेश पत्र मिला। वहां भी ऑफिस में नौकरी ना देकर, उन्हें ढाई सौ किलोमीटर दूर एक नए शहर में भेज दिया। वह शहर हम सबके के लिए नया था।

बाकियों की तरह छत्तीसगढ़ में भी लोग बस्तर के लोगों के बारे में यहीं सोचते हैं कि बस्तर के लोग उनकी तरह सभ्य नहीं होते। वे जंगली घास-फूस ही खाते हैं। हमारी बोली भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाया जाता। हमसे कहा जाता, “आदिवासी तो काले होते हैं आप कैसे गोरे क्यों हैं, आप हिंदी कैसे बोल लेते हैं?” लेकिन मां ने इन सब बातों को उतनी तवज्जो नहीं दी और ना ही इसे अपमान की तरह सहा। ज़रूरत पड़ने पर जवाब दिया और हमें भी यहीं सिखाया। हमारी पढ़ाई तो चल रही पर अब मां को भी अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। यह सोचकर हमने उनसे बात कि तब वह पहले तो अपनी बढ़ती उम्र के कारण पहले तो हिचक रही थी लेकिन जब यूट्यूब पर सर्च करके उन्हें हमने केरल की कार्तियानी अम्मा के बारे में बताया जिन्होंने 96 साल की उम्र में परीक्षा पास की तो मां परीक्षा में बैठने के लिए मान गई। मां को देखकर ही उनके साथ काम करने वाली सुलोचना मौसी ने भी इस बार परीक्षा फॉर्म भरा हैं जिनकी पढ़ाई पांचवी तक हुई थी और बचपन में छोटे बहनों की देखभाल करने के लिए उनकी पढ़ाई बीच में ही छुड़वा दी गई थी।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि मेरी मां प्रगतिशील विचारों वाली हैं। वह एक पितृसत्तात्मक समाज और परिवार में पली-बढ़ी हैं कहीं ना कहीं उनकी सोच वैसी ही हैं। इस बात को लेकर कई बार हमारे बीच मतभेद भी होता है लेकिन बारहवीं के बाद जब दादी ने मेरी शादी को लेकर मां पर दबाव बनाया तो मां ने इसे सिरे से इनकार कर दिया उन्होंने कहा कि यह अभी और पढ़ेगी। मां हमेशा कहती हैं, “समाज और परिवार किसी की भी ज़िंदगी का सिर्फ फैसला ले सकता है, वह ख़ुद ऐसी ज़िंदगी जीने के लिए तैयार नहीं सकता।” घर और ऑफिस के कामों से समय निकालकर वह सिलेबस की किताब पढ़ती हैं अपनी लिखावट और भी बेहतर करने की कोशिश करती हैं। हमने घर के कामों का बंटवारा कर लिया है ताकि उन्हें अपने लिए भी समय मिल पाए। हमारी योजना है कि अगले साल वह बारहवीं की परीक्षा दें और फिर होम साइंस से ग्रेजुएशन की डिग्री भी हासिल करें।

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तस्वीर साभार : DNA

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