समाजख़बर कोरोना की दूसरी लहर से कितने प्रभावित हैं ग्रामीण दलित बच्चे

कोरोना की दूसरी लहर से कितने प्रभावित हैं ग्रामीण दलित बच्चे

अब अगर बात करें बच्चों के खाने की तो दलित परिवारों में पौष्टिक आहार की कमी रहती है। ज़्यादातर मज़दूर परिवार के बच्चे नमक-चावल या चटनी-रोटी पर अपना दिन गुज़ार देते हैं।

कोरोना की दूसरी लहर ने ग्रामीण क्षेत्रों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। इन इलाकों में लगातार हो रही मौतें, कोविड के आंकड़ों के तौर पर दर्ज भी नहीं की जा रही है। खासकर बात अगर उत्तर प्रदेश की करें तो यहां पंचायत चुनाव के बाद से हालत और भी बिगड़ गए हैं। जांच न होने और स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी के कारण ग्रामीण इलाकों की स्थिति बद् से बद्तर होती चली गई है। जागरूकता के अभाव में लोग जांच करवाने से भी बच रहे हैं। इसी बीच में कोरोना की तीसरी लहर को लेकर दावा किया गया कि इसका प्रभाव सबसे ज़्यादा बच्चों पर पड़ने वाला है। हालांकि हाल ही में एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने कहा है कि अभी तक इस बात का कोई आधार नहीं है कि कोरोना वायरस की तीसरी लहर में बच्चे अधिक प्रभावित होंगे।

अलग-अलग दावों के बीच और कोविड-19 की दूसरी लहर का परिणाम देखते हुए एहतियात के तौर पर भी बच्चों को कोरोना वायरस के प्रति जागरूक करना एक सही कदम होगा। लेकिन जिस तरह के हालात गांव में हैं, उसे देखने के बाद बच्चों को कोरोना के संक्रमण से बचाना, इस वक्त अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती है। गांव के तथाकथित ऊंची जाति और वर्ग के लोग अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ने भेजते हैं और उनके घरों में भी खानपान और स्वच्छता के ज़रूरी नियमों के पालन पर ध्यान दिया जाता है। लेकिन इस वक्त गांव के गरीब-मज़दूर और दलित परिवारों की हालत बेहद दयनीय है। सदियों से चले आ रहे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक शोषण, ज्यादा बच्चों का बोझ और घर की सीमित आमदनी होने के नाते इन परिवारों में बच्चों को अच्छी परवरिश नहीं मिल पाती।

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अगर मैं अपने गांव देईपुर और ख़ासकर अपनी दलित बस्ती की बात करूं तो देखती हूं कि सरकार ने क़रीब हर दूसरे-तीसरे घर में शौचालय बनाया है, लेकिन इसके बावजूद जागरूकता की कमी के कारण परिवार के लोग और बच्चे खुले में शौच के लिए जाते हैं। छोटे बच्चों को तो घर के सामने, खुली नाली में कई बार घर के अंदर कहीं भी शौच के लिए बैठा दिया जाता है। जब बच्चे खुद से शौच करना सीख जाते है तो उन्हें शौच के बाद हाथ धोने के लिए कहा जाता है, लेकिन अच्छे से हाथ कैसे धोया जाए जिससे संक्रमण का ख़तरा कम हो इसके बारे में कुछ नहीं बताया जाता है। बाक़ी खाना खाने से पहले या कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने की आदत बच्चों में नहीं डाली जाती है। हम लोग ख़ुद जब स्कूल जाना शुरू किए तब दूसरे बच्चों की देखा-सीखी खाने से पहले हाथ धोने लगे। अब अगर बात करें बच्चों के खाने की तो दलित परिवारों में पौष्टिक आहार की कमी रहती है। ज़्यादातर मज़दूर परिवार के बच्चे नमक-चावल या चटनी-रोटी पर अपना दिन गुज़ार देते हैं। दूध और फल तो छोड़िए उन्हें नियमित रूप से सब्ज़ी भी नहीं मिल पाती है। बच्चों ख़ासकर छोटी लड़कियों को बचपन से ही घर के काम और लड़कों को खेतों के काम लगा दिया जाता है यानि कि उनके शरीर का पूरा शोषण किया जाता है लेकिन उनका पोषण पूरी तरह अधूरा रहता है।

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अब अगर बात करें बच्चों के खाने की तो दलित परिवारों में पौष्टिक आहार की कमी रहती है। ज़्यादातर मज़दूर परिवार के बच्चे नमक-चावल या चटनी-रोटी पर अपना दिन गुज़ार देते हैं।

गांव की दलित बस्तियों में अभी भी स्वास्थ्य और स्वच्छता एक बड़ी समस्या है। इसका एक कारण जातिवादी व्यवस्था तो है ही लेकिन साथ-साथ यहां लोगों के बीच हर नई चीज़ का डर है। वहीं दूसरा सरकारी सुविधाओं और नीतियों की सीमित पहुंच भी है। जैसे मैंने अपने गांव अक्सर देखा है कि जब ग्राम प्रधान दलित की बजाय किसी अन्य जाति से होते हैं तो वे चुनावी मौसम के अलावा कभी भी दलित बस्ती में कदम नहीं रखते। लोगों की मांग पर सड़क, नाली बनने के लिए पैसे पास कर दिए जाते हैं पर लोगों के बीच जागरूकता या सामाजिक बदलाव के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया जाता है। अब साफ़ है कि हाशिये पर गए समुदायों की स्वच्छता और पोषण पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो हम कोरोना जैसी जानलेवा महामारी को मात नहीं दे सकते है और जब घर में दो वक्त के ढंग के खाने के लिए पैसे नहीं हैं तो फिर मास्क और सैनेटाइज़र के खर्चे तो नामुमकिन हैं।

अब अगर मैं मुसहर समुदाय की बात करूं तो मुसहर बस्ती में बच्चों को पढ़ाते हुए मैंने यह अनुभव किया है कि उनकी समस्याएं और भी ज़्यादा जटिल हैं। मुसहर परिवार आर्थिक रूप से ज़्यादा कमजोर है क्योंकि अधिकांश परिवार ईंट भट्टों पर मज़दूरी का ही काम करते हैं। आर्थिक रूप से बेहद कमजोर होने के कारण, उनकी जीवनशैली भी काफ़ी दयनीय है। पोषण के नामपर यहां के बच्चों के खाने की थाली में रोटी, पानी या सूखा चावल ही ज़्यादातर देखने को मिलता है। बड़े लोग मांसाहारी खाना खाते हैं लेकिन ज़्यादा मसालेदार होने के कारण बच्चे इसे नहीं खा पाते हैं।

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स्वच्छता के बारे में अगर बात करें तो अब धीरे-धीरे मुसहर बस्ती में आवास योजना के तहत उनके सिर पर पक्की छत बनना शूरू हुई है पर फ़िलहाल यहां शौचालय बहुत दूर की बात है। नहाने के लिए अभी भी हर परिवार के लोग साबुन की जगह सादे पानी या मिट्टी का ही इस्तेमाल कर पाते हैं। ऐसे में हम समझ सकते हैं कि मास्क, हैंडवाश और सेंटाइज़र जैसी चीजें इनके कितने पहुंच में होगी। साल 2019 में आये ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में भुखमरी की स्थिति काफी गंभीर है। रिपोर्ट के मुताबिक, कुल 117 देशों में भारत 102वें पायदान पर रहा। यह दक्षिण एशियाई देशों में सबसे निचला स्थान है। इस रिपोर्ट के मुताबिक हमारा देश यहां पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे है। वहीं, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) की रिपोर्ट भी बताती है कि सबसे ज़्यादा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। यह बताता है कि देश में पिछले सात दशक से लागू स्वतंत्र शासन में विकास और कल्याण की नीतियों का लाभ निचले स्तर के लोगों को नहीं मिला।

‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन-2019’ के अनुसार, दुनिया में 5 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक 3 बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण या कम वजन की समस्या से ग्रस्त है। पूरी दुनिया में लगभग 200 मिलियन और भारत में प्रत्येक दूसरा बच्चा कुपोषण के किसी-ना-किसी रूप से ग्रस्त है। आप सोच कर देखिए कि जब हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, तो हम दुनिया से विकास की प्रतिस्पर्धा कैसे कर पायेंगे? रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई थी कि वर्ष 2018 में भारत में कुपोषण के कारण पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 8.8 लाख बच्चों की मृत्यु हुई, जो कि नाइज़ीरिया (8.6 लाख), पाकिस्तान (4.09 लाख) और कांगो गणराज्य (2.96 लाख ) से भी अधिक है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में 6 से 23 महीने के कुल बच्चों में से मात्र 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही संतुलित आहार मिल पाता है।

कोरोना महामारी की इस दूसरी लहर में अब डबल मास्क लगाने को कहा जा रहा है। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए ज़ोर दिया जा रहा है और कोरोना के टीकाकारण के लिए ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन करवाया जा रहा है। इन सबके बीच हम जब गांव के दलित बस्तियों को देखते हैं तो ये सब चीज़ें इन बस्तियों से बेहद दूर पाते हैं क्योंकि अभी यहां बुनियादी स्वच्छता और स्वास्थ्य ही बड़ा सवाल है। लेकिन ऐसा नहीं है कि कोरोना के संक्रमण से ये बस्तियां अछूती हैं। यहां भी कोरोना के केस दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसे में बच्चों को हम कैसे कोरोना से बचने के लिए तैयार करें ये एक चिंता का विषय है। सरकार की तरफ़ से इस दिशा में जो भी योजना बनायी जा रही है वे सब प्रिविलेज्ड समुदायों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं लेकिन समाज के हाशिए में बसने वाले दलित समुदाय के लिए अभी ये बेहद कारगर साबित नहीं हो रही हैं।   

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तस्वीर साभार: BBC

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