इंटरसेक्शनलजाति जातिवादी टिप्पणियां : व्यापक जवाबदेही और कार्रवाई के बिना प्रगतिशीलता मात्र एक बाज़ार

जातिवादी टिप्पणियां : व्यापक जवाबदेही और कार्रवाई के बिना प्रगतिशीलता मात्र एक बाज़ार

पितृसत्ता से हम कैसे लड़ते हैं और वह हमें कैसे समाज में प्रभावित करती है ये बात अलग जाति और वर्ग से आने वाली महिलाओं के लिए अलग हैं।

भारत में जाति व्यवस्था और जातिगत भेदभाव इतने पुराने हैं कि शोषक और शोषित जाति, दोनों ही पर इसका प्रभाव है। अंतर यहां देखने मिलता है कि यह प्रभाव किस पर किस तरह से पड़ रहा है और उससे बाहर आने के लिए एक व्यक्ति और समाज क्या तरीक़े चुन रहा है। पिछले कुछ दिनों से भारत के ऑनलाइन स्पेस में काफ़ी कुछ चल रहा था। भारत में स्टैंड-अप कॉमेडी करने वाले कई लोग जैसे अबिश मैथ्यू, अतुल खतरी, वीर दास, वरुण ग्रोवर, अदिति मित्तल के पुराने ट्वीट्स सामने आए जिसमें वे उत्तर प्रदेश की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री का मज़ाक बना रहे हैं, उनपर जातिवादी टिप्पणियां कर रहे हैं। मायावती प्रभु दास जनता के बीच ‘बहनजी’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वह चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। वह बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष हैं। मायावती के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में बेहतरी के कई काम हुए हैं जिनमें 2007 में यमुना एक्सप्रेस-वे प्रॉजेक्ट पर मंजूरी, इलाहाबाद में बना उत्तर प्रदेश का पहला सोलर प्लांट, आंबेडकर ग्रामीण समग्र विकास योजना, लड़कियों के लिए आर्थिक सहायता की योजना जैसी कई योजनाएं शामिल हैं।

मायावती को दलित-बहुजन समाज में विशेष दर्जा इसलिए प्राप्त है क्योंकि उन्हें सत्ता न तो उनके परिवार के कारण मिली, न ही किसी तथकथित उच्च जाति की पहचान के कारण। वह ज़मीन से जुड़ी नेता रहीं हैं जिन्होंने एक समय में “तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” जैसा नारा दिया था। भारत की राजनीति में शोषित जाति से आने वाली किसी महिला का संघर्ष कठिन तब हो जाता है जब वह खुलेआम शोषक जातियों और उनके ब्राह्मणवाद को चुनौती देती हो। ऐसी महिला का मज़ाक स्टैंड-अप कॉमेडीयिन उनकी यौनिकता, वेषभूषा, शारीरिक बनावट, उनके द्वारा बनाई गई मूर्तियों के कारण करते दिखे। जो कि अपने आप में जातिवादी और पितृसत्तामक है। इसे चुटकुले की तरह नहीं बल्कि शोषित जाति से आने वाली महिला के ऊंचे कद के कारण आंखों में हुई किरकिरी की तरह देखा जाना चाहिए। फेमिनिज़म इन इंडिया की संस्थापक जपलीन पसरीचा ने भी मायावती और बिहार के बहुजन नेता लालू प्रसाद यादव का मज़ाक उड़ाते हुए एक ट्वीट किया था। ‘शी द पीपल टीवी’ की संस्थापक शैली चोपड़ा भी मायावती पर किए गए इन जातिवादी चुटकुलों के ट्रेंड में शामिल थी। ‘आर्टिकल -15’ के अभिनेता आयुष्मान खुराना का भी ऐसा एक ट्वीट और अभिनेता रणदीप हुड्डा का भी एक ऐसा ही वीडियो सामने आया है।

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ट्वीट्स के मालमे में कई लोग ये तर्क देते हुए नज़र आए कि उन्होंने यह ट्वीट कई सालों पहले किया था। ये ट्वीट्स पुराने ज़रूर हैं लेकिन ऐसे ट्वीट लिखने के साल भर के भीतर ही प्रगतिशील मंचों के संस्थापक बन गए। उन्होंने इस पहचान से अब तक नाम बनाया, फिर चाहे वह बात उन स्टैंडअप कॉमिक कि हो जो 2014 के बाद से मोदी सरकार विरोधी चुटकुले सुनाकर अपनी प्रगतिशील और सत्ता विरोधी छवि बेच रहे हैं या बात हो फेमिनिज़्म इन इंडिया जैसे समावेशी नारीवादी वेबसाइट की संस्थापक की। इस वेबसाइट के साथ मैं साल 2020 नवंबर से जुड़ी हूं। मेरे व्यक्तिगत अनुभव में मैंने कभी असहज महसूस नहीं किया, लेकिन इस संस्था के बनने के मात्र एक साल पहले संस्थापक द्वारा किया गया ट्वीट मेरे लिए व्यक्तिगत और व्यवसायिक दोनों की तरीक़े से परेशान करने वाला था। संस्थापक ने अन्य कई लोगों की तरह ट्वीट के लिए ट्विटर पर माफ़ी मांगी थी। मेरी मांग पर संस्थापक ने ‘फेमिनिज़्म इन इंडिया’ की कम्युनिटी के भीतर इस संवाद को शुरू किया। इस संवाद के दौरान मैंने पाया कि समावेशी नारीवाद पर लिखने वाली कई सवर्ण लोग अपनी जातिगत पहचान से मिलने वाली सुविधाओं को लेकर जागरूक नहीं हैं। वे जेंडर की पहचान के आधार पर सभी औरतों के अनुभवों को एक बराबर देखना चाहते हैं। यह बात साफ़ है कि पितृसत्ता से हम कैसे लड़ते हैं और वह हमें कैसे, कितने तरीकों से समाज में प्रभावित करती है ये बात अलग-अलग जाति और वर्ग से आने वाली महिलाओं के लिए अलग हैं।

भारत की लड़ाई पितृसत्ता से नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से है

किसी सवर्ण द्वारा जातिगत भेदभाव किए जाने और बाद में जब उसे सालों बाद चिन्हित किया जाए तब उसपर केवल एक माफ़ीनामा लिख देना ना कोई बहादुरी का काम है ना ही अपने आप में एक पर्याप्त क़दम है। ख़ासकर तब जब संस्था नारीवाद के स्तभों पर टिकी हो। इसके साथ ही अन्य सवर्ण किसी माफ़ीनामे को कुबूलने के हक़दार नहीं हैं। वह इसलिए क्योंकि वे जातिगत भेदभाव और पीढ़ियों द्वारा झेले गए शोषण को उन्होंने नहीं महसूस किया है। वे इससे सीधे तौर पर प्रभावित नहीं हैं। वे इस बात को भी नहीं समझते कि किसी बहुजन के संघर्ष पर जातिवादी चुटकुले इन संस्थाओं में काम कर रहे दलित-बहुजन-आदिवासी कर्मचारियों के लिए बार-बार अपनी जगह और अपनी पहचान याद दिलाया जाना जैसा है। वह ना चाहते हुए भी इन घटनाओं के कारण समावेशी नारीवाद में हिस्सा लेती शोषक जाति से आने वाली महिलाओं की सहयोगिता को लेकर संशय में रहती हैं। लंबे समय तक भारत की सवर्ण नारीवादियों ने दलित-बहुजन नारीवादियों को, पश्चिमी नारीवादियों ने ब्लैक और गैर-पश्चिमी महिलाओं को नारीवाद की मुख्यधारा से अलग रखा। भारत की लड़ाई पितृसत्ता से नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से है। इस पितृसत्ता को चिन्हित किए बिना सारे नारीवाद का विमर्श केवल और केवल तथाकथि ऊंची जाति की महिलाओं तक सीमित है। यह केवल उनके अनुभवों और उनकी आज़ादी के बारे में हैं जिसमें कई बार वे अपनी जातिगत पहचान के कारण मिले आगे बढ़ने के मौक़े नहीं देखती इसलिए जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पाखंडों को लेकर आलोचनात्मक नज़रिया नहीं रख पातीं। 

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समावेशी नारीवाद सच में समावेशी तभी हो सकता है जब जेंडर के अलग-अलग मानकों पर बात करते हुए हम जाति की पहचान और उससे पैदा हुए संघर्षों को न भूलें। इसलिए सामाजिक शक्ति श्रेणी में सबसे नीचे खड़ी महिलाएं, दलित महिलाएं, दलित क्वीर, शोषित जातियों से आने वाली अलग-अलग राज्यों की महिलाएं, आदिवासी और बहुजन महिलाएं समावेशी नारीवाद में आगे खड़ी हो। संस्थाओं और संस्थानों में उनकी हिस्सेदारी देश में बहुजनों की जनसंख्या के अनुपात में हो। जब उनके ऊपर उच्च जाति की महिलाओं के अनुभवों को सार्वभौमिक क़रार दिये जाने पर प्रतिरोध की जगह हो। नारीवाद के अंदर जब उच्च जाति की महिलाएं सभी महिलाओं को केवल एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देख लेती हैं और अपने विमर्श गढ़ देती हैं, तब शोषित तबक़े की महिलाओं के लिए स्थितियाँ बद्दतर हो जाती है क्योंकि उच्च जाति की महिला द्वारा दिखाया गया आंतरिक स्त्रीद्वेष सबसे ज़्यादा घातक है।  दूसरी बात, कई बार उच्च जातियों की सहभागी महिलाएं सच में ख़ुद पर काम करना और नारीवाद में समावेशिता लाना चाहती हैं लेकिन उनके द्वारा शोषक तबके को ठेंस पहुंचाए जाने के बाद भी उस तबक़े की महिलाएं जितना मानसिक श्रम इस बात पर लगा रहीं हैं कि अन्य महिलाएं उनका पक्ष समझें। यह क्रिया बहुत थकाऊ हो जाती है। अक्सर इस मेहनत को कोई पहचान भी नहीं मिलती। यह बात यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या प्रगतिशील होने की क्रिया में रहने वाले शोषण समुदाय के लिए शोषित समुदाय मात्र विषय वस्तु से अधिक कोई ख़ास अहमियत नहीं रखती। ये बातें मैंने पिछले कुछ दिनों के निज़ी अनुभवों से पाया है।

भारत की लड़ाई पितृसत्ता से नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से है। इस पितृसत्ता को चिन्हित किए बिना सारे नारीवाद का विमर्श केवल और केवल तथाकथित ऊंची जाति की महिलाओं तक सीमित है।

बताते चलें कि कुछ संस्थानों के संस्थापक, कई कॉमेडियन और अभिनेताओं ने अपनी जातिवादी टिप्पणी के लिए माफ़ी नहीं मांगी है जबकि माफ़ी मांगना उनकी जवाबदेही का एक बहुत छोटा हिस्सा होगा। इस समाज को सोचना चाहिए कि प्रगतिशीलता के मंच पर खड़े हो कोई भी व्यवसाय कर रहा इंसान प्रगतिशीलता को बाज़ार में भंजा रहा है या सच में जवाबदेह है। जातिगत भेदभाव पर बनी एक औसत फ़िल्म ‘आर्टिकल-15’ जिसकी आलोचना इस बात को लेकर हो चुकी है कि उसमें शोषक औए रक्षक दोनों उच्च जाति के लोग हैं। दूसरी तरफ़ हैं शोषित द्वारा उनकी पहचान को समाज में दमख़म से रखने पर बनीं फ़िल्में जैसे ‘काला’,’करनन’,’असुरन’। इन दोनों फिल्मों की कहानी कहने का भेद इस बात को प्रमाणित करता है कि फ़िल्म बनानेवाले का गेज़ कैसा है, फ़िल्म प्रगतिशील है या प्रगतिशीलता बेचने के मकसद से बनाई गई है। हालांकि इस फ़िल्म से आयुष्मान खुराना ने नाम कमाया था, लेकिन उनका ट्वीट ख़ासकर इस फ़िल्म से कमाए नाम पर कला बनाम कलाकार और प्रगतिशीलता बनाम प्रगतिशीलता के बाज़ार पर व्यंग ही है। 

आरक्षण पर मीम, चुटकुले बनाना जातिवाद ही है

ऐसे ट्वीट्स के साथ कई ऐसे वीडियो और ट्वीट्स भी सामने आए हैं जिसमें जातिगत आरक्षण और उसे पाने वाली जातियों का मज़ाक उड़ाते हुए उन्हें नाक़ाबिल बताया गया है। इसमें कनन गिल, नेवेल शाह, भुवन बम जैसे कॉन्टेंट क्रिएटर्स के नाम शामिल हैं। अगर आपको ऐसी ही कई और जातिवादी टिप्पणियां किसी प्रसिद्ध चेहरे के अकाउंट पर दिख जाए तो हैरान मत होइएगा क्योंकि शोषक जातियों को शोषित जातियों द्वारा अपना हक़ लेना गैर-बराबरी लगता है। आरक्षण सामाजिक बराबरी और प्रतिनिधित्व में हज़ारों सालों से पीछे रह गए समुदायों को उनके हिस्से की जगह देने के लिए की गई सकारात्मक कार्रवाई है। भारत में शुरू से शिक्षा और नौकरियों पर विशेष जातियों का आधिपत्य रहा है और है। उदाहरण के तौर पर, साल 2017 तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर्स के 1098 मौजूद पदों में से शून्य ओबीसी नियुक्ति थी और 2590 एसोसिएट प्रोफ़ेसर्स के पद पर भी शून्य ओबीसी नियुक्ति थी। वहीं, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के सामाजिक विज्ञान के डीन कौशल मिश्रा अपने फ़ेसबुक पेज पर डॉक्टर आंबेडकर और आरक्षण का मज़ाक उड़ा सकते हैं तो क्या इससे यह बात जाहिर नहीं होती कि जातिगत दंभ किस तरह से लोगों में भरा हुआ है। सोचिए कि ऐसे प्रोफ़ेसर्स क्लासरूम में आरक्षित जातियों से आने वाले विद्यार्थियों के साथ क्या भेदभाव नहीं करते होंगे।

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इधर कई लोग ये तर्क लेकर आ रहे हैं कि इस तरह से हमें लोगों को ‘कैंसल कल्चर’ का शिकार नहीं बनाना चाहिए। कैंसल कल्चर से इन प्रभावशाली लोगों का करियर प्रभावित हो ऐसा होने की संभावना न्यूनतम है। ऐसा हम भारत के #MeToo आंदोलन के दौरान देख चुके हैं। अतुल खतरी ने माफ़ीनामा नहीं लिखा, फिर भी उनका हाल ही में एक शो बुक हुआ है। समाज के ज्यादातर ऊंचे मंचों पर ऐसे लोग हैं जो एक कदम आगे बढ़ाकर बाज़ार में फिट होने की कोशिश करते हुए सत्ता पर चुटकुले बना भी लें तो अपने क्लोज़ सर्किल में, अपने जाति समुदायों में जातिवादी मज़ाक, टिप्पणियों और मुहावरों पर कभी बात नहीं करेंगे। ऐसे लोग आगे साथ में काम करने से कतराएंगे नहीं क्योंकि मामला इनके व्यवसाय का है। ये लोग ‘कैन्सल कल्चर’ का हवाला देकर एक माफ़ीनामे में मामला रफ़ा-दफ़ा कर देंगे।

नीति पाल्टा समेत कुछ कमेडियन ये कहते हुए पाए गए कि किसी समुदाय से किसी एक व्यक्ति का मज़ाक उड़ाना पुरे समुदाय का मज़ाक उड़ाना नहीं है। ऐसी टिप्पणियां लापरवाही क साथ-साथ एक बेहूदी जिद से भरी है। रोहित विमुला ,पायल तड़वी, अनिल मीणा की संस्थागत हत्याएं इस बात का प्रमाण हैं कि बात इतनी सीधी नहीं है। जाति सूचक गालियां, आरक्षण को बिना जाने शोषक समुदाय द्वारा समाज में हर जगह आरक्षित जातियों का मज़ाक उड़ाना, दलित-बहुजन-आदिवासी समाज पर, उनके नेताओं पर व्यक्तिगत संदर्भ में घटिया बातें करना। किसी भी विश्वविद्यालय, नौकरी की जगह, किसी अन्य स्पेस में इन जातियों से आनेवाले लोगों के रोज़मर्रा के जीवन को ट्रिगर से भर देते हैं। जाति आधारित भेदभाव पर हमें खुद को, आसपास के लोगों को जिम्मेदारी के घेरे में लाना होगा, उचित कार्रवाई के साथ जवाबदेही की बात करनी होगी।

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तस्वीर साभार : Newsclick

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