इंटरसेक्शनल पुरुष को महान मानने वाले समाज में महिला नेतृत्व की स्वीकृति का सवाल | नारीवादी चश्मा

पुरुष को महान मानने वाले समाज में महिला नेतृत्व की स्वीकृति का सवाल | नारीवादी चश्मा

वो समाज जहां आज भी नई पैकिंग के साथ पुरुष को महिलाओं से महान माना जाता है वहाँ महिला नेतृत्व की सामाजिक अस्वीकृति एक समस्या बन जाती है।

बदलते समय के साथ भारतीय समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में कई बदलाव होते दिखाई पड़ते है। ये बदलाव कितने सही या ग़लत है इसपर कुछ भी कह पाना मुश्किल है। लेकिन ये ज़रूर कहा जा सकता है कि धीरे-धीरे ही सही भारतीय समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पिछले कई सालों से बेहतर हुआ है। कई क्षेत्रों में महिलाएँ न केवल अपनी भागीदारी दर्ज़ करवा रही हैं बल्कि नेतृत्व की भूमिका में भी है। पर जब हम महिला नेतृत्व की बात करते है तो इसके प्रभाव को सरोकार में समझने के लिए इस नेतृत्व की स्वीकृति का स्तर या प्रतिशत समझना भी ज़रूरी हो जाता है। साथ ही ये यह भी बताने मदद करता है कि ये नेतृत्व कितना सतत होगा। आज एक तरफ़ भले ही अलग-अलग क्षेत्रों में बढ़ते महिला नेतृत्व की संख्या देखकर हम पीठ को ठोंके लेकिन महिला नेतृत्व की इस पितृसत्तात्मक समाज में स्वीकृति एक बड़ा सवाल है। इस जीवंत उदाहरण हम आए दिन खबरों, सोशल मीडिया, कार्यक्षेत्र और निजी जीवन में भी देखते है, जब आगे बढ़ती महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की जाती है।

रूपापुर गाँव की सोनी (बदला हुआ नाम) ने जब आर्थिक तंगी से परेशान होकर काम करना शुरू किया तो धीरे-धीरे परिवार की आर्थिक बागडोर सोनी के हाथों में आने लगी। इससे परिवार में सोनी की इज़्ज़त तो बढ़ी, लेकिन इस बढ़त की बेहद निर्धारित सीमा भी है। सोनी को हमेशा अपने पति और परिवार वालों से ताने सुनने पड़ते है। किसी भी मुद्दे पर उसके निर्णय तो दूर विचार को भी किसी भी तरह की तवज्जो नहीं दी जाती। इतना ही नहीं, पारिवारिक दबाव के चलते वो अपने परिवार की पहली और आख़िरी कामकाजी महिला बनकर ही रह गयी।

वहीं, बनारस की एक स्वयंसेवी संस्था में काम करने वाली दीपा (बदला हुआ नाम) ने जब घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ गाँव में उसे ख़ूब समर्थन मिला। पुरुषों और ज़नप्रतिनिधियों ने भी गाँव में बढ़ती घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ दीपा का साथ दिया। लेकिन जैसे ही इन समर्थक पुरुषों के घरों में होने वाली घरेलू हिंसा की बखिया उधड़ने लगी तो सभी पुरुषों ने दीपा के ख़िलाफ़ ऐसा अभियान शुरू किया कि अंतिम में चारित्रिक टिप्पणियों से तंग आकर दीपा ने नौकरी ही छोड़ दी।

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दीपा और सोनी अलग-अलग गाँव और सामाजिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक़ रखती है, लेकिन जब हम उनके नेतृत्व की सामाजिक स्वीकृति की दशा को देखते है तो उनके संघर्ष एक से लगते है। पर वास्तव में ऐसा नहीं है, अगर इन संघर्षों का भी बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो इसकी भी कई परतें दिखाई पड़ती है। महिला की जाति, धर्म, वर्ग, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रस्थिति ये सभी उसके संघर्षों पर प्रभाव डालती है। समाज में ऊँच-नीच की परतों के बीच हम कभी भी एक महिला के संघर्ष को दूसरी महिला के संघर्ष से नहीं आंक सकते है। राजनीति में महिला नेताओं पर आए दिन होने वाली भद्दी टिप्पणियाँ भी इस महिला नेतृत्व की सामाजिक अस्वीकृति का ही उदाहरण है। ये सामाजिक अस्वीकृति ही है जो महिलाओं के संघर्षो को कई स्तर पर बढ़ाने का काम करती है।  

वो समाज जहां आज भी नई पैकिंग के साथ पुरुष को महिलाओं से महान माना जाता है वहाँ महिला नेतृत्व की सामाजिक अस्वीकृति एक समस्या बन जाती है।

समय के बदलाव के साथ हमने महिलाओं को नेतृत्व में आने के लिए ख़ूब प्रोत्साहित किया है, नतीजतन आज क़रीब हर दूसरे क्षेत्र में महिला नेतृत्व को देख पाते है। पर हमने महिला नेतृत्व की सामाजिक स्वीकृति की तरफ़ कोई काम नहीं किया। यही वजह है कि महिलाएँ नेतृत्व में तो आ रही है लेकिन उनके विचार और कार्यनीति ज़मीन तक नहीं पहुँच पाती है क्योंकि समाज की कोशिश एकतरफ़ा रही।

सच्चाई यही है कि आज भी हमारे समाज में जब कोई पुरुष महिला उत्थान, सशक्तिकरण या महिला से जुड़े मुद्दों पर काम करता है तो उसे महान बताकर ज़्यादा तवज्जो दी जाती है। लेकिन जैसे ही कोई महिला इन मुद्दों पर पहल करती है तो उसे पुरुष के बराबर न तो सम्मान मिलता है और न आगे बढ़ने का प्रोत्साहन। वो समाज जहां आज भी नई पैकिंग के साथ पुरुष को महिलाओं से महान माना जाता है वहाँ महिला नेतृत्व की सामाजिक अस्वीकृति एक समस्या बन जाती है।

ये अस्वीकृति ही है जो ज़मीनी स्तर पर, हमारे घरों में महिलाओं को दो पायदान पीछे करने की साज़िश करती है। भाषण में हमेशा कह दिया जाता है कि महिलाएँ आज हर क्षेत्र में आगे है। पर जब हम अपने घर और आसपास की महिलाएँ देखते है तो उन्हें इन महिलाओं के इर्द-गिर्द भी नहीं पाते है। इसलिए ज़रूरी है कि न केवल खबरों की सुर्ख़ियों बल्कि समाज की इकाइयों में भी महिला नेतृत्व को स्वीकार करने की दिशा में काम किया जाए और न केवल नेतृत्व को बढ़ाने बल्कि इसे स्वीकारने की दिशा में समान बल और सोच के साथ काम किया जाए। तभी हम आने वाले समय में नेतृत्व घर से लेकर देश और समाज के शीर्ष पर महिला नेतृत्व का प्रभाव और इसकी सतता देखने को मिल पाएगी।  

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तस्वीर साभार : knowledge.insead

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