इंटरसेक्शनलजाति असुरन : पूंजीवादी सवर्ण ज़मीदारों के शोषण और दलितों के संघर्ष को दिखाती फिल्म

असुरन : पूंजीवादी सवर्ण ज़मीदारों के शोषण और दलितों के संघर्ष को दिखाती फिल्म

असुरन, दलित नज़रिए से बनी अपनी बात प्रतिरोध के माध्यम से रखती फ़िल्म है। इसका लेखन और निर्देशन तमिल डायरेक्टर वेत्रिमरण ने किया है।

असुरन, दलित नज़रिए से बनी अपनी बात प्रतिरोध के माध्यम से रखती फ़िल्म है। इसका लेखन और निर्देशन तमिल डायरेक्टर वेत्रिमरण ने किया है। फिल्म पूमनी के उपन्यास वेक्कई पर आधारित है और फ़िल्म का प्लॉट 1968 में तमिलनाडु में घटे किलवेडमानी नरसंहार से प्रभावित बताया जा रहा है। बात शुरू करेंगे फिल्म के नाम से। असुरन जिसे हिंदी में ‘असुर’ उच्चारित करते हैं। भारत के हिन्दू प्राचीन धार्मिक काल को पढ़ते हैं तो पाते हैं, वेद, पुराण में देवताओं/देवों और असुरों की बात प्रमुख रूप से कही जाती है। इनके अनुसार जो धर्म का पालन करते हैं, धार्मिक सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण करते हैं वे अच्छे हैं इसीलिए वे देवता हैं और जो धर्म का पालन नहीं करते हैं, धार्मिक सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण नहीं करते हैं वे बुरे हैं इसीलिए उन्हें धर्म से बेदखल कर असुर की पहचान दे दी जाती है। वेत्रिमरण अपनी फिल्म को असुरों के नज़रिए से पेश कर रहे हैं यानी कि आज के समय के उस वर्ग की बात वे सिनेमा के ज़रिए कर रहे हैं जो हिन्दू धर्म के धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के ढांचे में नहीं आते हैं यानी दलितों का पक्ष वे अपनी फिल्म के रास्ते रख रहे हैं।

फ़िल्म हिंदी में देखी गई है इसीलिए फिल्म में मूल तमिल में जो नाम हैं, वे हिंदी में डब्ड होने पर बदले हैं। शिवमणि, जो पटकथा का मुख्य पात्र है उसे कलाकार धनुष ने निभाया है। हम अभी से ये बताते चलें कि लेख में आगे फिल्म के कुछ स्पॉईलर्स मौज़ूद हैं। फ़िल्म के पहले सीन में दो युवक नदी पार करते हुए चट्टानों पर बैठ जाते हैं। दूसरी ओर एक औरत, एक युवक और एक बच्ची किसी पुल के नीचे दुबक कर पुलिस से बचने की कोशिश कर रहे हैं। तीसरे सीन में मार-पीट है जिसमें एक युवक दूसरे युवक को ये कहते हुए मार रहा है कि उसकी वजह से उसका बाप मर गया। फिर पर्दे के पीछे से एक आवाज़ आती है जो तीनों सीन की पहेलियां सुलझाना शुरू करती है।

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फ़िल्म बात कर रही है बड़े जमींदारों (जो निसंदेह सवर्ण हैं) द्वारा छोटे किसानों/मेहनती मजदूरों की ज़मीन को हड़पने की। ये इस देश के लोगों की बहुत साधारण सी वैचारिकी है कि जिस के पास जितनी ज़मीन, पूंजी है उसको अपनी बात रखने में, अपना वर्चस्व स्थापित करने में उतनी ही आसानी होती है। पूरा खेल पूंजी, वर्चस्व का है और इसी खेल को असुरन पर्दे पर दर्शकों के सामने रख रही है। वेत्रिमरण ने फिल्म को बुना है। बुनने की प्रक्रिया में बुनकर जो कपड़ा बुनते हैं उसके बीच-बीच में अलग-अलग धागे इस्तेमाल होते हैं ताकि कपड़े का रंग और डिजाइन निखार कर आए। वेत्रिमरण ने वही काम असुरन के साथ किया है, उन्होंने फ़िल्म के शुरुआती सीन क्लाइमैक्स से पीछे के रखे हैं और फिर धीरे-धीरे सीन के साथ नहीं बल्कि किरदार के साथ कहानी खुलना शुरू होती है। पहले ही सीन पर कैमेरा फिर घूमता है, चट्टान पर बैठे दो व्यक्तियों में से एक शिवमणि है और दूसरा उसका छोटा बेटा चिंतामणि। छोटा किसान शिवमणि के पास तीन एकड़ ज़मीन है जो उसकी पत्नी के भाई की है जिसकी देखभाल का ज़िम्मा शिवमणि का है। शिवमणि के पास ये तीन एकड़ ज़मीन का हिस्सा कैसे आया और अब वह उसी ज़मीन के हिस्से को छोड़कर परिवार समेत दूसरे इलाकों में क्यों भाग रहा है इसके पीछे भी अपनी कहानी है। शिवमणि अपने बेटे को अपनी कहानी बताना शुरू करता है।

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शिवमणि अपनी जवानी के दिनों में अपने बाकी भाइयों के साथ संयुक्त परिवार में दलित बस्ती में रहता था। वह गांव के ही बड़े व्यापारी ठाकुर के लिए शराब बनाने का काम करता था। ठाकुर भी ठीक-ठाक तरह से पेश आता था ताकि उसके शराब का काम खूब चलता रहे। इस बीच उसे एक लड़की से प्रेम होता है जो स्कूल पढ़ने भी जाती है लेकिन एक दिन मेले से लौटते वक़्त लड़की के पांव में कांटा चुभ जाता है। इतने पर शिवमणि उसके लिए चमड़े की चप्पलें बनवा लाता है। दूसरे दिन लड़की चप्पलें पहनकर स्कूल जाती है तो व्यापारी ठाकुर का मुंशी और उसके आदमी उसे ज़लील करते हैं, पीटते हैं और चप्पलें सर पर रखवाकर पूरे गांव में घुमाते हैं। मसला चप्पल पहनना नहीं था, मसला था सवर्ण पुरुष के आगे उसके सम्मान में चप्पलें ना उतारना। आज भी कितनी ही जगहों पर हर रोज़ इसी देश में हिंसा, अमानवीय कृत्यों, जातीय दंभ से भरे हुए लोग हर दिन ऐसे करते हैं। उदाहरण के तौर पर जब दलित दूल्हे घोड़ी पर चढ़ते हैं, मसला घोड़ी पर चढ़ने से ज़्यादा सवर्णों की बराबरी करने की हिम्मत होता है।

शिवमणि को जब यह पता चलता है तो वह मुंशी और उसके आदमियों को वो खुद चप्पलों से मारता है। शिवमणि का भाई क्रांतिकारी होता है। वह उन सवर्ण जमींदार के ख़िलाफ़ जो छोटे मेहनती किसानों की जमीनें गैर कानूनी तरीके से हड़प चुके थे, लोगों को इक्कटठा कर आंदोलन करने की इच्छा में रहता था। शिवमणि को व्यापारी ठाकुर की उसके भाई के खिलाफ होती साजिशों का मालूम होता है तो नौकरी छोड़ भाई की मुहीम में साथ देता है। जमीनें वापस लेना सिर्फ ज़मीन नहीं उनके लिए अपना सम्मान, स्वाभिमान वापस लेने के बराबर था। गांव के बड़े पेड़ के नीचे सभा होती है, एक वकील को सब मामले को कानूनी रूप रेखा के हिसाब से समझाने बुलाते हैं लेकिन पुलिस वकील को बीच में रोक लेती है। स्थल पर पुलिस पहुंचती है तो सभा करने की अनुमति के बारे में पूछती है। जब किसी सवर्ण को सभा करनी हो तो पुलिस फोर्स, क्षेत्र का पूरा प्रशासन उस सभा को सुरक्षित बनाता है लेकिन जब सभाएं दलित वंचित वर्ग से आते लोग करते हैं तब अनुमति पत्र पहले मांगे जाते हैं, अनुमति पत्र हो तो भी पुलिस सुरक्षा के भाव से नहीं बल्कि ज़रा सी गड़बड़ी होने पर गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होती है। 

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पुलिस स्थल तक आती है, अनुमति पत्र मांगती है, शिवमणि घर की ओर अनुमति पत्र लेने ही जाता है कि सभा में व्यापारी और मुंशी के आदमी हिंसा करते हैं और दूसरी ओर पूरी दलित बस्ती में आग लगा दी जाती है, लोग ज़िंदा मर जाते हैं। दलित बस्तियां आज भी ऐसे ही फूंक दी जाती हैं जैसे कोई घास फूंस हों। कोरोना में लोगों को समझ आया है कि उनकी जान की कीमत शून्य है इस व्यवस्था के लिए, लेकिन इसी व्यवस्था के लिए दलित,आदिवासी लोगों की जान की कीमत हमेशा से शून्य थी/है।शिवमणि जब पूरे परिवार के लोगों के साथ अपनी प्रेमिका को भी ज़िंदा जलते देखता है तब व्यापारी के घर जाकर उसकी हत्या कर देता है। शिवमणि गांव छोड़ देता है और दूसरे गांव पहुंचता है जहां उसका परिचय एक भले आदमी से होता है जो उसे अपने घर में रखता है। गांव वाले तमाम बातें फैलाते हैं कि जवान लड़की और अनजान मर्द का एक घर में रहना ठीक नहीं। इसलिए युवक शिवमणि से अपनी बहन पार्वती से शादी करने के लिए कहता है। वह उसकी ज़मीन संभालने लगता है लेकिन एक दिन पुलिस उसे ढूंढ़ लेती है, जात-पात का झगड़ा कहते हुए कोर्ट उसे कुछ ही महीनों की सजा सुनाता है। कितना आसान है इस देश में नरसंहारों को जातीय हिंसा, धार्मिक हिंसा या मुठभेड़ करार दे देना। कुछ महीनों बाद शिवमणि लौटता है तो पार्वती से शादी करता है। इसी गांव का एक बड़ा जमींदार है नरसिम्हा जो सब दलितों की जमीनें हड़प चुका है और अब उसकी नजर शिवमणि के खेत पर है। वह एक फैक्टरी लगाना चाहता है जिसके लिए और ज़मीन चाहिए। 

फिल्म आगे बढ़ती है तो पाते हैं शिवमणि के साथ जो अतीत में हुआ उससे वो हिंसा करना छोड़ देता है यानि मारने पर उतारू होना बंद कर देता है। नरसिम्हा के बेटे से पार्वती का खेतों में एक दिन झगड़ा होता है, जिसमें उसका बड़ा बेटा गुरुमणि सभी को पीटता है। नरसिम्हा गुरुमणि को पुलिस के हवाले कर देता है। गुरुमणि को पुलिस से छुड़ाने के लिए शिवमणि जब नरसिम्हा के पास जाता है तो पूरे गांव में नंगे पैर लेटकर उससे माफ़ी मंगवाते हैं। ये माफ़ी का खेल इतना गहरा है कि शोषक शोषण भी करता है और शोषण के खिलाफ खड़ा होने पर शोषित से माफ़ी भी मंगवाता है। पुलिस की गिरफ़्त से छूटे गुरुमाणि को काफी चोटें थीं जो इस बात का प्रमाण थी कि पुलिस कस्टडी में उसे मारा गया है। जब उसे मालूम होता है कि उसके पिता से किस कदर माफ़ी मंगवाई गई है वो नरसिम्हा को बंद टॉयलेट में चप्पलों से पीटता है। इसका परिणाम ये होता है कि नरसिम्हा के बेटे और उसके आदमी गुरुमणि को उसके खेत में मार डालते हैं। चिंतामणि सब देखते हुए बचके निकल जाता है। चिंतामणि पढ़ने में अच्छा था, भाई की हत्या के बाद पढ़ाई छोड़ देता है। आगे चलकर चिंतामणि नरसिम्हा को मार डालता है और इसीलिए चिंतामणि को बचाने पूरा परिवार खुद को बचा रहा है।

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फिल्म आप जब ख़ुद देखेंगे तो पाएंगे आगे चलकर चिंतामणि को मारने की कोशिशें होती हैं, शिवमणि जान पर खेलकर बचाता है अपने बेटे को। आगे का रास्ता जानने वकील के पास जाने पर वह आत्मसमर्पण की सलाह देता है। चिंतामणि को बचाने के लिए शिवमणि खुद पर सभी आरोप ले लेता है और उससे कहता है कि “पुलिस ने अपना काम किया होता तो अन्याय के खिलाफ जैसा तुझे ठीक लगा वैसा नहीं करता, जो चिंतामणि ने किया वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने का एक मात्र तरीका नहीं था।” उससे कहता है कि चिंतामणि पढ़े-लिखे तो सवर्ण अफसरों जैसा ना बने, अपना काम ईमानदारी से करे जातिवादी ना बने, पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बने। आखिर में शिवमणि जो कहता है उसका निष्कर्ष पूरे आंबेडकरवादी मूवमेंट का फाउंडेशन स्टोन है कि ज़मीन होगी, छीन लेंगे, धन होगा लूट लेंगे लेकिन शिक्षा तुमसे कोई नहीं छीन पाएगा। इसी के साथ बाबा साहब का विचार – “शिक्षा वह शेरनी का दूध है जो पीएगा वो दहाड़ेगा” ज़ेहन में उमड़ने लगता है। पूरी फिल्म का सार आखिर की दो पंक्तियां में आ जाता है। इसी बात को शॉर्ट फिल्म के माध्यम से सरलतम तरीके से रखा जा सकता था लेकिन वेत्रिमरण ने इस कहानी को, इस वाक्य को दलितों के जीवन के पहलुओं से जोड़कर, शोषक की बर्बरता को दिखाकर ‘शिक्षा ही आज़ाद होने का रास्ता है’ के मानक को स्पष्टता दी है। जो वर्ग बर्बरता झेलता है, अब ज़रूरी है कि उसकी कहानी, उसका जीवन वो खुद दिखाए जिसमें शोषक ही मसीहा बनकर बचाने नहीं आता बल्कि शोषित संघर्ष करता है, आवाज़ उठाता है और शोषक की आंखों में आंखें डालकर हक़ छीन लेता है।

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तस्वीर साभार: The New Indian Express

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