समाजकानून और नीति तरुण तेजपाल केस : ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ की सोच को मज़बूत करता एक फैसला

तरुण तेजपाल केस : ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ की सोच को मज़बूत करता एक फैसला

कोर्ट को फैसले में यह भी बताना चाहिए था कि आखिर 'एक रेप सर्वाइवर को कैसे बर्ताव करना चाहिए?' इसका भी जवाब देना चाहिए था कि महिलाओं को अपने साथ हुए किस अपराध पर कैसे 'व्यवहार' करना है।

तहलका के एडिटर इन चीफ रहे तरुण तेजपाल को गोवा की एक अदालत ने बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपों से बरी कर दिया है। अदालत ने इस मामले में सर्वाइवर पर एक विवादित टिप्पणी भी की है। कोर्ट ने फैसला सुनाने के दौरान कहा, “पीड़िता ‘बिहेवियरल विक्टिम’ नहीं लगी। शिकायतकर्ता ने ऐसा व्यवहार नहीं किया जिससे ये महसूस हो कि उसके साथ यौन उत्पीड़न हुआ है।” इसलिए, ‘संदेह का लाभ’ देते हुए आरोपी को बाइज्ज़त बरी किया जाता है। असल में, साल 2013 में तरुण तेजपाल की एक कर्मचारी ने तेजपाल पर यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोप लगाए थे। सर्वाइवर ने बताया था कि गोवा में ‘थिंक 13’ आयोजन के दौरान तरुण तेजपाल ने उनके साथ होटल की लिफ्ट में यौन उत्पीड़न और बलात्कार किया। ऐसा लगातार दो दिनों तक हुआ। मामले में प्राथमिकी दर्ज हुई। तरुण तेजपाल पर आईपीसी की धारा 341 (गलत तरीके से रोकना), 342 (गलत तरीके से रोककर रखना), 354 (मर्यादा को भंग करने के लिए उस पर हमला या जबरदस्ती करना), 354 ए (यौन उत्पीड़न), 376 (रेप), 376 (2) एफ (महिला से ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा बलात्कार) और 376 (2) के (ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा बलात्कार) लगाई गई। 

30 नवंबर 2013 को गोवा पुलिस ने आरोपी तेजपाल को गिरफ्तार कर लिया। ढाई महीने बाद, पुलिस ने 2846 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की। हालांकि, मई 2014 में उन्हें जमानत मिल गई थी। साल 2017 में मुकदमा शुरू हुआ। तमाम घटनाक्रमों और कई सुनवाइयों के बाद, 21 मई 2021 को इस मामले में अंतिम फैसला आया। सत्र न्यायाधीश क्षमा जोशी ने 537 पन्नों के अपने फैसले में उन्हें ‘संदेह का लाभ’ देते हुए बाइज्ज़त बरी कर दिया। निचली अदालत के इस फैसले पर गोवा सरकार ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। याचिका पर दो सप्ताह में सुनवाई होने की संभावना है। मामले पर निर्णय देते हुए न्यायाधीश ने तमाम तरह की ओछी टिप्पणियां कर डालीं। इनमें से कई टिप्पणियां, समाज में चली आ रही, विक्टिम ब्लेमिंग की कुप्रथा को भरपूर समर्थन देती प्रतीत होती हैं।  

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वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक अपने फैसले के विभिन्न अंशों में कोर्ट ने कहा, “घटना के अगले दिन की तस्वीरों में पीड़िता खुश दिख रही है। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट है। वह किसी भी तरह से परेशान, सबसे अलग-थलग, घबराई हुई या ट्रॉमा में नहीं दिखती। अभियोजन पक्ष द्वारा पेश सबूत, पीड़िता की सच्चाई पर संदेह खड़ा करते हैं। इसलिए, तेजपाल को संदेह का लाभ दिया जाता है।” न्यायाधीश ने पीड़िता की व्हाट्सएप पर हुई बातों को एक अहम सबूत माना है। उन्होंने कहा कि व्हाट्सएप चैट बताते हैं कि घटना होने के बाद भी पीड़िता गोवा में रुकी रही। इतनी बड़ी बात होने के बाद भी पीड़िता ने अपने प्लान में कोई बदलाव नहीं किया, न ही वह अपनी मां से मिली।

वहीं, तरुण तेजपाल ने 19 नवंबर 2013 को पीड़िता से ईमेल लिखकर माफी मांगी थी पर, इस माफी को न्यायाधीश ने तेजपाल के खिलाफ अहम सबूत नहीं मानते हुए कहा कि हो सकता है कि इसे ‘स्वैच्छिक’ रूप से न भेजा गया हो बल्कि, पीड़िता के भारी दवाब के बाद भेजा हो। कोर्ट ने पीड़िता की मंशा पर भी सवाल उठाए कि पीड़िता ने तुरंत पुलिस में शिकायत दर्ज क्यों नहीं की? उसने एफआईआर करने से पहले महिला अधिकारों से जुड़ी वकील, महिला आयोग और कुछ पत्रकारों से बात की। ऐसी संभावना है कि इन सभी से बात करने के बाद पूरे घटनाक्रम में कुछ छेड़छाड़ की गई हो। पीड़िता पत्रकार है, वह यौन अपराधों और जेंडर से जुड़े मुद्दों पर लगातार काम करती रही है। ऐसे में उसे बलात्कार और यौन उत्पीड़न से जुड़े नए कानूनों की जानकारी थी। 

कोर्ट को फैसले में यह भी बताना चाहिए था कि आखिर ‘एक रेप सर्वाइवर को कैसे बर्ताव करना चाहिए?’ इसका भी जवाब देना चाहिए था कि महिलाओं को अपने साथ हुए किस अपराध पर कैसे ‘व्यवहार’ करना है।

हमारे समाज में पीरियड्स को लेकर अक्सर लड़कियों से कहा जाता है कि पीरियड्स के दर्द या उससे जुड़ी बात लड़कों या घर के मर्दों से नहीं करनी चाहिए। इसे सिर्फ लड़कियों को आपस में साझा करना चाहिए। कुछ इसी तरह की बात निचली अदालत ने फैसले के दौरान भी कही। अदालत ने कहा, यौन उत्पीड़न और बलात्कार की बात, पीड़िता ने अपने पुरुष दोस्तों को बताई पर अपनी महिला रूममेट को क्यों नहीं? वह अपने दोस्तों के सामने रोई क्यों नहीं? इतना ही नहीं, कोर्ट ने पीड़िता की मां पर भी अजीब और प्रतिकूल टिप्पणी की। कोर्ट का कहना था कि पीड़िता की मां का उसके प्रति व्यवहार और रवैया पीड़िता के ‘आघात की स्थिति’ के बारे में बताता है। पीड़िता की मां ने कथित हमले की जानकारी होने के बावजूद “अपनी पीड़ित बेटी को स्वाभाविक समर्थन देने के लिए अपनी कोई योजना नहीं बदली।” ये तो सिर्फ एक मामला है। ऐसा पहली बार नहीं है कि कोर्ट ने इस तरह की टिप्पणियाँ की है। इससे पहले भी कई मामलों में अदालत का पितृसत्तात्मक रवैया सामने आ चुका है। 

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साल 2020 की बात है। बलात्कार के आरोपी को अग्रिम जमानत देते हुए कर्नाटक हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी, “शिकायतकर्ता का यह बयान कि बलात्कार के बाद वह थककर सो गई, किसी भी भारतीय महिला के लिए अनुपयुक्त है। बलात्कार हो जाने पर हमारी महिलाओं का व्यवहार इस तरह का नहीं होता।” इस तरह का बयान प्रत्यक्ष रूप से सर्वाइवर पर दोषारोपण है। जो भी हुआ, उसमें आरोपी से ज्यादा सर्वाइवर को ही दोषी ठहरा देना। बलात्कार के बाद थकना नहीं है, रोना है। बेहोशी की हालत हो, फिर भी बेहोश नहीं होना है। भागकर पुलिस स्टेशन जाना है। ऐसा ही एक ‘भारतीय महिला’ को करना चाहिए। साल 2020 में ही, मध्य प्रदेश हाइकोर्ट ने यौन हिंसा की सर्वाइवर के आरोपी को जमानत दे दी लेकिन शर्त भी रखी। शर्त ये थी कि “आरोपी रक्षाबंधन पर पीड़ित के घर जाकर उससे राखी बंधवाएगा। उसे रक्षा का वचन देगा। वचन देकर भाई के रूप में परंपरा अनुसार उसे 11 हज़ार रुपए देगा और पीड़िता के बेटे को भी 5 हज़ार रुपए कपड़े और मिठाई के लिए देगा।” हालांकि इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था। ऐसा लगता है, जैसे हाईकोर्ट का कहना है कि अगली बार कोई यौन हिंसा करे तो तुरंत राखी बांध दो। भाई बना लो। उसी से रक्षा के लिए कहो। और हां, राखी का नेग मांगना नहीं भूलना हैं। 

ये सब तो हाल की बातें हैं। हमारी न्याय व्यवस्था 90 के दशक में भी पीछे नहीं थी। साल 1995 में राजस्थान की सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी बलात्कार केस में निचली अदालत ने गैंगरेप के सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। साथ ही ‘तर्क’ की हत्या करते हुए कहा था, “अलग-अलग जाति के पुरुष गैंगरेप में शामिल नहीं हो सकते। 60-70 साल के बुजुर्ग तो बलात्कार कर नहीं सकते।” न्यायाधीश भी जातिवादी मानसिकता के तहत अपना फैसला सुना रहे थे। उन्होंने कहा, “अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला से बलात्कार नहीं कर सकता क्योंकि वह अशुद्ध होती है।” ये भी कहा, “कोई पुरुष रिश्तेदार (चाचा-भतीजा) के सामने रेप नहीं कर सकता। आखिर, भंवरी के पति चुपचाप खामोशी से पत्नी का बलात्कार होते नहीं देख सकते थे।” ये केस आज तक हाईकोर्ट में लंबित है।

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अदालतें कई बार सही फैसले भी देती हैं पर टेढ़े रास्ते से। इससे भारत की सर्वोच्च अदालत भी अछूती नहीं रह पाई है। सुप्रीम कोर्ट ने शादी का वादा देकर बलात्कार करने वाले मामलों में किसी भी मध्यस्थता और समझौते पर आपत्ति जताई थी। एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ”महिला का शरीर मंदिर जैसा है। रेप के मामलों में कोई मध्यस्थता या समझौता नहीं हो सकता।” मध्य प्रदेश में निचली अदालत ने बलात्कार के आरोपी को बरी कर दिया था। इसके खिलाफ राज्‍य सरकार सुप्रीम कोर्ट गए। उस समय, याचिका को स्वीकार करते हुए कोर्ट ने ये टिप्पणी दी थी। आखिर महिला के शरीर को एक मंदिर क्यों समझा जाए। कोई भी व्यक्ति न तो महिलाओं के शरीर को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर माने। न ही संपूर्णता में उन्हें देवी। महिलाएं इंसान हैं। उनके साथ एक इंसान जैसा ही बर्ताव होना चाहिए। महिलाओं के शरीर को मंदिर नहीं, सिर्फ ‘शरीर’ ही समझे जाने की जरूरत है। ऐसा शरीर, जिसमें बलात्कार पर दर्द होता है। यौन उत्पीड़न के निशान रह जाते हैं। शरीर पर भी, मन पर भी। वो चाहें अदालतें हों, सरकारें हों या फिर समाज, उन्हें समझना होगा कि महिलाओं को ऊँचा दर्जा नहीं चाहिए है। उन्हें ‘समान दर्जा’ चाहिए है। 

कोर्ट को भी संवेदनशील मामले पर सुनवाई करते वक्त ऐसी किसी भी टिप्पणी से बचना चाहिए जो एक नागरिक की गरिमा का हनन करती हो। ‘सीसीटीवी फुटेज में, सर्वाइवर बलात्कार के बाद परेशान नहीं दिखी’, ऐसे बयान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। तब तो कोर्ट को फैसले में यह भी बताना चाहिए था कि आखिर ‘एक रेप सर्वाइवर को कैसे बर्ताव करना चाहिए?’ इसका भी जवाब देना चाहिए था कि महिलाओं को अपने साथ हुए किस अपराध पर कैसे ‘व्यवहार’ करना है। ये बयान जाहिर करते हैं कि चाहें निचली अदालत हो या सर्वोच्च, कहीं न कहीं पितृसत्ता के उसी क्रूर ढांचे को ढो रहीं हैं, जिससे इस देश की महिलाएं खुद को आज़ाद कराना चाहती हैं। 

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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया

Comments:

  1. राजीव प्रताप says:

    सभी जुड़े पहलुओं को लेख में अच्छे से समझाया है । गुड वर्क

  2. काफ़ी अच्छा लेख😌😌

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