समाजकैंपस ताइवान में बनी जेंडर न्यूट्रल यूनिफॉर्म स्कूलों में लिंगभेद खत्म करने में कितनी सफल हो पाएगी

ताइवान में बनी जेंडर न्यूट्रल यूनिफॉर्म स्कूलों में लिंगभेद खत्म करने में कितनी सफल हो पाएगी

के फैशन डिजाइनर एंगस चियांग ने पारंपरिक स्कूल यूनिफॉर्म्स को एक इंद्रधनुषी रूप दिया है। इस यूनिफॉर्म को उन्होंने जेंडर नूट्रल बनाया है।

आमतौर पर ‘स्कूल यूनिफॉर्म’ शब्द सुनते ही धूसर या गहरे नीले रंग की शर्ट-पैंट, स्कर्ट और सलवार-कमीज़ पहने स्कूल के बच्चों की तस्वीर याद आ जाती है। यूनिफॉर्म कई लोगों के लिए आम बात होगी, स्कूल की मीठी यादों के साथ। बहुत सारे लोगों के लिए यूनिफॉर्म परेशानी का विषय भी था और आज भी है। इन ‘बहुत सारों’ को परेशानी एक अदृश्य समस्या से है। वह समस्या है, स्कूल यूनिफॉर्म के ज़रिये मजबूत होती लिंगभेद की अवधारणा लेकिन कितने लोग इस परेशानी से अवगत हो इसका विरोध करते हैं। ‘यूनिफॉर्म’ का उपयोग समानता लाना है लेकिन देखा जाए तो यह ‘यूनिफॉर्म’ लड़कों को लड़कियों से अलग पेश करने की कोशिश में रहता है। बारीकी से देखने पर एहसास होता है कि ‘यूनिफॉर्म’ को सामाजिक स्तर की निचली श्रेणियों को पहचानने में इस्तेमाल किया जाता है।

भारत और विश्व के कई देशों में स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक यूनिफॉर्म पहनने का रिवाज है। यूनिफॉर्म का इस्तेमाल अलग-अलग वर्ग और जाति के छात्रों के बीच एकरूपता बनाए रखने के लिए किया जाता है। हालांकि, देखा जाए तो यह रिवाज एक तरीके से पूंजीवाद को और शक्तिशाली बनाकर अनुरूपता को बढ़ावा देता है। यूनिफॉर्म में ‘कॉलर’ और ‘टाइ’ का चलन कई दिनों से है जिससे बच्चों को यह ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ की तरफ प्रेरित करता है। इसके साथ ही साथ जेंडर के आधार पर बच्चों को अलग रखने का इरादा रखा जाता है इन यूनिफॉर्म के ज़रिये। लड़कियों के लिए स्कर्ट-शर्ट और लड़कों के लिए पैंट-शर्ट भारत में व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली सबसे प्रसिद्ध ‘यूनिफॉर्म’ हैं। यही ‘यूनिफॉर्म’ स्कूल में बढ़ रहे लिंगभेद से जुड़ी बहस के केंद्र में है।

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खासतौर पर स्कर्ट को लेकर लड़कियों और उनके माता-पिता की परेशानी भी साफ समझ आती है लेकिन ये परेशानी पितृसत्तात्मक सोच से ही उपजी है। परेशान करने वाली बात ये है कि लड़कियां स्कर्ट में खेल-कूद करने में संकोच करती हैं जबकि लड़कों को अपनी पतलून में स्कूल के मैदानों में धूम मचाने की इजाज़त होती है। लड़कियों को स्कर्ट में बड़े ध्यान से चलना पड़ता है क्योंकि लड़कों और अध्यापकों को कहीं ‘अश्लीलता’ न दिख जाए। लड़कियों की स्कर्ट की लंबाई पर या उनके शर्ट से झलक रहे ब्रा पर की जानेवाली अश्लील टिप्पणियों से लड़कियों को हतोत्साहित किया जाता है, जो एक प्रकार का उत्पीड़न ही है। इस पितृसत्तात्मक दबाव और उत्पीड़न से बचने के लिए छात्राओं में स्कूल छोड़ने की दर में वृद्धि होना स्वाभाविक होगा।

पितृसत्तात्मक समाज के पास इस समस्या का एक ही हल होता है, लड़कियों से उनके पहनावे को बदलने के लिए कहना। सलवार-कमीज़ पहनने के फायदे गिनवाए जाते हैं। जैसे, लड़कियां अब खेलकूद में मन लगाकर भाग ले सकती थी लेकिन क्या सलवार-कमीज़ पहनने से स्कूलों में होनेवाले नियमित लिंगभेद पर पर्दा पड़ जाता है? बड़े शहरों और स्कूलों में स्कर्ट को पैंट में बदल दिया जाता है। इसे जेंडर-न्यूट्रल अप्रोच माना जाता है क्योंकि अगर सब पैंट पहन रहें हैं तो पैंट को यूनिसेक्स यूनिफॉर्म का दर्जा दिया जा सकता है। यहां से दो सवाल खड़े होते हैं। पहला- क्या लड़कियों के पैंट पहनने से लिंगभेद आधारित व्यवहारों में कोई बदलाव आते हैं? दूसरा- क्या ये समस्या सिर्फ लड़कियों की है?

हर मामले में लड़कियों को दोष देना पितृसत्तात्मक समाज का एक स्वाभाविक स्वभाव होता है। लड़कियों के पहनावे पर चर्चा करना भी इसमें शामिल है। इन बातों का मकसद लड़कियों को पितृसत्तात्मक द्वारा गढ़े गए नारीत्व के सांचे में ढालना है। साथ ही लड़कों को भी पितृसत्ता द्वारा तय मर्दानगी की परिभाषा में ढालना इसका एक उद्देश्य है। लड़के कभी स्कर्ट पहनने की मांग न करें और लड़कियां कभी मर्दों की तरह न पेश आएं। मूल बात ये है कि हमारे स्कूलों में कभी भी LGBTQIA+ समुदाय की चर्चा तक न हो। यूनिफॉर्म के मुद्दों से सबसे ज़्यादा ट्रांस समुदाय को समाज ने अलग-थलग करके रखा है क्योंकि ट्रांस होना समाज के मर्द-औरत के विभाजन पर सवाल उठाता है, उसे चुनौती देता है।

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फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु में 400 से अधिक LGBTQAI+ समुदाय से आने वाले युवाओं पर यूनेस्को द्वारा किया गया एक सर्वे बताता है कि सर्वे में शामिल आधे से अधिक छात्रों ने स्कूल में होनेवाले उत्पीड़न से बचने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी। इस उत्पीड़न में बलात्कार की धमकी, मार-पीट, कमरे में बंद करना, उनका सामान गायब करना और उनके बारे में घटिया अफवाहें फैलाना शामिल था। LGBTQAI+ समुदाय को शिक्षा से दूर रखकर पितृसत्तात्मक समाज यही बताता है कि अगर कोई समाज के निर्धारित नियमों से अलग चला तो उन्हें भी बहिष्कृत किया जाएगा। शिक्षा हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार और एकमात्र उपकरण है जिसका इस्तेमाल दमनकारी ताकतों से लड़ने के लिए किया जाता है। अगर शिक्षा नहीं तब फिर विरोध के लिए मनोबल नहीं। जहां विरोध नहीं होगा वहां दमन कायम रहता है। भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक, जातिवादी, होमोफोबिक स्वभाव को देखते हुए यह कहना बिल्कुल भी गलत होगा कि ट्रांस और पूरे LGBTQAI+ समुदाय की स्थिति इस देश में बेहतर होने से कई कोस दूर है। इस देश में अभी भी समलैंगिक दंपतियों को शादी करने समेत कई अधिकार नहीं दिए गए हैं।

तस्वीर साभार: Campaign Brief Asia

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एशियाई देशों में पहला और केवल एकमात्र देश ताइवान जहां LGBTQIA+ समुदाय को संविधान ने वैवाहिक अधिकार दिए हैं। वहां के फैशन डिजाइनर एंगस चियांग ने पारंपरिक स्कूल यूनिफॉर्म्स को एक इंद्रधनुषी रूप दिया है। इस यूनिफॉर्म को उन्होंने जेंडर न्यूट्रल बनाया है। जेंडर न्यूट्रल होने का अर्थ है कि हमें नीतियों, भाषा और अन्य सामाजिक संस्थाओं में लिंग के आधार पर लोगों की सामाजिक भूमिकाओं में भेदभाव करने से दूर रहना चाहिए। समाज के लिए स्कूल यूनिफॉर्म का जेंडर न्यूट्रल होना एक जीत ही है।

एंगस चियांग के डिजाइन किए गए इन यूनिफॉर्म को ‘Project Uni-Form’ का नाम दिया गया है, जिनमें 16 अलग-अलग यूनिफॉर्म के सेट्स हैं। जो प्रत्येक छात्र को आराम-अनुसार, विविध और फैशनेबल विकल्प देती है। इन विकल्पों का रहना ट्रांस समुदाय को सकारात्मक संदेश भेजता है। एंगस चियांग के बनाए इन 16 यूनिफॉर्म ज्यादातर स्कर्ट्स ही शामिल हैं। इन 16 यूनिफॉर्म्स में शर्ट के साथ लंबी स्कर्ट सबसे प्रसिद्ध और आकर्षक यूनिफॉर्म मानी जा रही है। ये यूनिफॉर्म लड़के, लड़कियां ट्रांस बच्चों के लिए बनाया गया है। स्कर्ट को लड़कियों का कपना ही माना जाता रहा है और अगर कोई मर्द इसे पहन ले तो समाज इतना मान लेता है कि वे अपनी ‘मर्दानगी’ खो बैठे हैं। एंगस चियांग द्वारा निर्मित ‘Project Uni-Form’ विकल्प देता है समाज को स्कूलों को बच्चों के लिए समावेशी बनाने का।

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तस्वीर साभार : Branding in Asia

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