इंटरसेक्शनलजाति जातिवाद और गैरबराबरी को चुनौती देता ‘द कास्टलेस कलेक्टिव’ बैंड

जातिवाद और गैरबराबरी को चुनौती देता ‘द कास्टलेस कलेक्टिव’ बैंड

सवर्णों के बनाए संगीत की पूरी कड़ी को चेन्नई, तमिलनाडु का एक म्यूज़िक बैंड चुनौती दे रहा है जिसका नाम है,"दी कास्टलेस कलेक्टिव बैंड।"

भारत में संगीत की तमाम विविधताएं मौजूद हैं लेकिन इन संगीतों से जुड़े तमाम लोग अधिकांश समय अपनी कला को अराजनीतिक तौर पर लोगों के सामने रखते हैं। इससे यह होता है कि लोग सोचने लगते हैं कि कला का जाति, धर्म, वर्ग, जेंडर आदि से कोई लेना-देना नहीं होता जबकि कोई भी कला किसी भी समाज के ढांचे से ही पैदा होती है और उसे ही दर्शाती है। ऐसा इसीलिए भी है क्योंकि संगीत की पूरी इंडस्ट्री में सवर्णों का दबदबा है इसीलिए वे वही गाते और लिखते हैं जैसा वे चाहते हैं। लेकिन भारत के अधिकतर कलाकारों और संगीतज्ञों द्वार जाति, वर्ग, जेंडर को समाहित किए बगैर अपने गानों, कला का प्रस्तुतिकरण निसंदेह इन मानकों पर लोगों के शोषण के प्रति उनकी अज्ञानता को दिखाता है। वहीं जब सबल्टर्न लोग इन विधाओं के साथ समाज में स्थापित होते हैं तब अपना इतिहास, वर्तमान साथ लाते हैं और अपनी पहचान भी और उससे जुड़े शोषण भी।

सवर्णों के बनाए संगीत की पूरी कड़ी को चेन्नई, तमिलनाडु का एक म्यूज़िक बैंड चुनौती दे रहा है जिसका नाम है,“दी कास्टलेस कलेक्टिव बैंड।” बैंड का ये नाम 19वीं शताब्दी में जाति विरोधी एक्टिविस्ट और लेखक सी. इयोथी थैस के द्वारा ‘जाति इल्लाधा तमाइजहर्गल’ वाक्य के इस्तेमाल से आया है। इस बैंड का गठन साल 2017 में जब फिल्म निर्माता पा.रंजीत की संस्था नीलम कल्चरल सेंटर, तेनमा के मद्रास रेकॉर्ड्स के साथ मिलकर काम किया था तब हुआ था। बारह सदस्यों का यह बैंड तमिल में परफॉर्म करता है। पा.रंजीत का इस तरह का बैंड बनाने का उद्देश्य हाशिए पर गए समुदायों के कलाकारों को एक मंच देने का था। इन्होंने अपना अलग रूप तैयार किया जो भारतीय पारंपरिक और दक्षिणी रॉक म्यूजिक से भी अलग है। इनकी वेशभूषा भी अलग है जो लोगों को आकर्षित करती नज़र आती है

द कास्टलेस कलेक्टिव बैंड, तस्वीर साभार: Newsclick

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द कास्टलेस कलेक्टिव बैंड में रैपर्स, रॉक म्यूजिशियन और गायक हैं। गाना तमिलनाडु के संगीत की वह विधा है जो किसी की मृत्यु के समय में सिर्फ़ मृतक के घर में गाई जाती है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दी कास्टलेस कलेक्टिव ने गाना विधा का रूपांतरण किया, वे गाना को मंच तक लेकर आए और अपनी शैली में, अपने बोल में लोगों के सामने गया। ‘थलाईवा‘ इनके द्वारा गाया गया इसी तरह का गाना था। नवंबर 2019 तक बैंड ने अपने 35 गाने गाए हैं। इन्होंने जय भीम एंथम रैप गाया है जो बाबा साहब आंबेडकर के जीवन पर आधारित है। वहीं, इस बैंड का ‘कोटा’ गाना, आरक्षण के मुद्दे पर आधारित है।

यह बैंड अपने संगीत के माध्यम से इस समाज की क्रूरतम जाति व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं, विभिन्न तरीके के भेदभाव, असामनता, ऑनर किलिंग के ख़िलाफ़ गाते हैं। अपनी आवाज़ में दलित असर्शन की बात करते हैं, और क्वीर समुदाय के अधिकारों की पैरवी करते हैं। बैंड में इस वक़्त कुल 12 लोग हैं जिनमें तेन्मा ( नेता और संगीत निर्माता), गायक मुथू, बाला चन्दर, इसावैनी, अरिवू, चेल्लमुथू, धरनी (ढोलक), सरथ (सत्ती), गौतम (कट्टा मॉलम), नंदन (परई और तवील), मनु (ड्रम) और साहिब सिंह (गिटार), आदि हैं।

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बैंड ने अपना पहला कॉन्सर्ट 6 जनवरी 2018 में किया था जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल होने आए थे। साल 2019 में ‘डब्बा डब्बा’ नाम का गाना इन्होंने गाया जो एक तरह से राजनेताओं पर व्यंग था जो चुनावों के समय बड़े-बड़े वायदे करते हैं लेकिन सत्ता में आते ही सब वायदे भूल जाते हैं। गाने के बोल कुछ ऐसे थे कि “ओ मेरे प्यारे बेलट बॉक्स, मेरी व्यथा सुनो।” अगस्त 2020 में इन्होंने अपना पहला वर्चुअल कॉन्सर्ट भी किया था। 

वेबसाइट द लाइव मिंट एक लेख के अनुसार तेनमा एक इंटरव्यू में कहते हैं कि उनके संगीत में वामपंथ और आंबेडकरवाद पर तमाम गाने हैं जिन्हें वे दोनों विचारधाराओं से आते लोगों के नाम का इस्तेमाल कर गाते हैं। साथ ही वह ब्लैक आर्ट्स मूवमेंट से भी प्रभावित रहे हैं और समानता की राजनीति का इस्तेमाल वर्षों से अंदर दबे दर्द को उजागर करने के लिए करते हैं। तेनमा कहते हैं, “हम बहुत पुरानी व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं ताकि मानवीय गरिमा स्थापित हो सके। आख़िर में हम समाज में बातचीत का पूरा दिस्कोर्स अपने गानों के माध्यम से बनाना चाहते हैं।” साल 2020 में बीबीसी ने विश्व की सौ सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची में दी कास्टलेस कलेक्टिव बैंड की एकमात्र महिला गायक इसावैनी को भी रखा था। इसावैनी एक लंबे वक़्त से इस बैंड में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती रही हैं।

ऐसा क्यों है कि जब कोई भी कलाकार सबअल्टर्न से आता है तब वह अपनी कला को सिर्फ मनोरंजन के रूप में नहीं देखता है लेकिन सवर्ण कलाकारों की कला में, मनोरंजन का उद्देश्य अधिकाधिक होता है। कोई भी व्यक्ति या वर्ग विशेष बहुत लापरवाह या समाज के तमाम ढांचों और शोषण से ख़ुद को मुक्त तब पाता है जब वह उन शोषण में धंसा हुआ नहीं होता, उनसे पीड़ित नहीं होता। जब मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से ऐसी आज़ादी मिलती है तब ये चीज़ उनकी कला में भी दिखती है और यह कला भी फिर संकुचित हो जाती है क्योंकि उसके ज़रिये विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की बात ही कही जा रही है जो कि बहुत कम हैं। इसका मतलब पूरा नैरेटिव उन चुनिंदा लोगों के लिए तैयार किया जाता है जिनके पास सारे संसाधन उपलब्ध हैं और सत्ता के साथ-साथ मार्केट पर पूरा कंट्रोल है। सत्ता या पाव, पूरा संघर्ष समाज में इसी का है कि कौन कितनी पावर किस पर रख रहा है लेकिन यह अमानवीय भी है क्योंकि सत्ता किसी भी अन्य शोषित वर्ग के मूल मानवाधिकारों के उल्लघंन पर स्थापित होती है।

वहीं, सबअल्टर्न अपनी कला, अपने संगीत को सिर्फ मनोरंजन के तौर पर इसीलिए नहीं देखता क्योंकि उसने आस-पास वे लोग देखे हैं जिनका रोज़ का संघर्ष ये है कि वह दो वक़्त की रोटी कैसे कमाए। वह धन्ना सेठों के पास बंधुआ मजदूरी करता है, ऊंती जाति से आनेवाले लोग अपना वर्चस्व उनहीं लोगों पर दिखाते हैं, पानी तक के लिए दलितों-बहुजनों को मार दिया जाता है। पुलिस स्टेशन में एफआईआर नहीं होती, न्याय के नाम पर गालियां मिलती हैं और जब इन समुदायों से निकले लोग किसी कला या क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं तब वे अपना इतिहास लेकर आ रहे होते हैं। वे अपने वर्तमान के शोषण को बता रहे होते हैं क्योंकि वे वही सोच और प्रोजेक्ट कर रहे हैं जो उन्होंने हमेशा से देखा और झेला है, इस देश के सबअल्टर्न ने जाति के नाम पर जो दंश झेला है। सामाजिक और जातीय मुद्दों को अपनी कला में शामिल कर ये कलाकार एक बड़े वर्ग के लोगों का प्रतिनिधत्व कर रहे हैं जो इनकी कला को सार्वभौमिकता दे रहा है। अगर अपनी बात खुद सबअल्टर्न वर्ग से आते लोग नहीं रखेंगे, तब हम जिस समानता के सिद्धांत पर समाज की परिकल्पना करते हैं, मानवाधिकारों की बात करते हैं वैसा समाज कभी स्थापित नहीं कर पाएंगे। इसीलिए द कास्ट कलेक्टिव से जुड़े कलाकार और ऐसे सभी लोग जो इस देश की तथाकथित मुख्यधारा को चुनौती दे रहे हैं, हिम्मत के पात्र हैं।

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तस्वीर साभार : The New Indian Express

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