समाजख़बर लड़कियों के मोबाइल पर नहीं पितृसत्तात्मक सोच पर पाबंदी लगाने की ज़रूरत है | नारीवादी चश्मा

लड़कियों के मोबाइल पर नहीं पितृसत्तात्मक सोच पर पाबंदी लगाने की ज़रूरत है | नारीवादी चश्मा

आज भी ढ़ेरों ऐसी महिलाएँ है, जिनके पास कोई मोबाइल फ़ोन नहीं है, इसके बावजूद उन्हें रोज़ घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

महिलाओं की सुरक्षा भारत में एक गंभीर मुद्दा है। आए दिन हम महिला हिंसा से जुड़ी तमाम घटनाओं के बारे में सुनते है, पढ़ते है और अनुभव करते है। चाहे बात घरेलू हिंसा की हो या फिर राह चलते महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न या कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न की, हर जगह महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ता है। ऐसे में हर नयी सरकार इस समस्या को दूर करने के लिए ढ़ेरों योजनाओं को लागू करने का वादा करती है, जिनमें से कुछ लागू भी करती है। लेकिन जब इन्हीं योजना बनाने वाले ज़िम्मेदार पद के लिए नियुक्त पदाधिकारी सुरक्षा के नामपर महिलाओं पर पाबंदी लगाने की बात करते हैं तो इन तमाम योजनाओं का मूल और इसके पीछे की वैचारिकी साफ़ होने लगती है, जो सिर्फ़ महिलाओं पर लगाम कसने को वरीयता देती है।  

हाल ही में उत्तर प्रदेश की राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष मीना कुमारी ने एक बयान दिया कि – ‘लड़कियों को मोबाइल फोन देना ही नहीं चाहिए। उन्होंने कहा कि लड़कियां मोबाइल पर बात करती रहती हैं और जब मैटर वहां तक पहुंच जाता है तो वह शादी के लिए उनके साथ भाग निकलती है जिसके बाद दुष्कर्म जैसी घटनाएं सामने आती है।‘ ये बयान उन्होंने अलीगढ़ में पत्रकारों से बात करते हुए दिया है। मीना कुमारी का कहना है कि ‘अपराध रोकने के लिए सख्ती तो खूब हो रही है हम लोगों के साथ समाज को भी खुद देखना होगा। लड़कियां घंटों मोबाइल पर लड़कों से बात करती हैं और बात करते-करते उनके साथ भाग जाती हैं। आजकल की लड़कियां, लड़कों के साथ उठती बैठती हैं मोबाइल रखती हैं। घरवालों को उनके बारे में पता भी नहीं होता। लड़कियों के मोबाइल भी चेक नहीं किए जाते। एक दिन आता है है जब वे घर छोड़कर भाग जाती हैं। इसलिए बेटियों को मोबाइल नहीं देना चाहिए। इतनी ही नहीं मीना कुमारी ने तो यह भी कहा कि लड़की अगर बिगड़ गईं है इसके लिए पूरी तरह मां ही जिम्मेदार है।‘

ये पहली बार नहीं जब महिला हिंसा का ज़िम्मेदार ख़ुद महिलाओं को बताकर उनपर पाबंदी लगाने की साज़िश की गयी है और असल में इस बात-व्यवहार और वैचारिकी  में कुछ नया भी नहीं है, क्योंकि ये सब हम लड़कियाँ अपने घरों में होते देखते है। जब सुरक्षा के नामपर पाबंदी लगाते हुए हमें बाहर पढ़ने नहीं भेजा जाता, ज़्यादा पढ़ाया नहीं जाता, नौकरी नहीं करने दी जाती वग़ैरह-वग़ैरह। पर सवाल ये है कि क्या ऐसा करने से हम अपने परिवार में महिलाओं को हिंसा से बचा पाते है? या कहीं ऐसा तो नहीं तो हमारी हिंसा की समझ सिर्फ़ महिलाओं के बढ़ते कदम तक सीमित है?

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गाँव में आज भी ढ़ेरों ऐसी महिलाएँ है, जिनके पास कोई मोबाइल फ़ोन नहीं है, इसके बावजूद उन्हें रोज़ घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। ऐसे परिवारों में सिर्फ़ महिलाओं को ही नहीं उनकी बेटियों को गाली-गलौच, मारपीट और कई बार यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अब क्या यहाँ भी हम महिला हिंसा के लिए मोबाइल को ज़िम्मेदार बताएँगें। हम अक्सर छोटी और दूधमुँही बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएँ देखते हैं, तो क्या इसमें भी मोबाइल फ़ोन ज़िम्मेदार है?

आज जब हम बिना किसी लैंगिक भेदभाव के समान अवसर की बात करते है तो दूसरे ही पल हमें ‘महिला सुरक्षा’ की बात क्यों करनी पड़ती है, इसपर सोचने की ज़रूरत है। आख़िर ‘सुरक्षा’ किससे? पुरुषों से? जो महिलाओं की तरह ही इंसान है, तो फिर क्यों  उनसे बचने के लिए हमेशा महिलाओं को तैयार किया जाता है। उनकी ज़िंदगी के फ़ैसले, अवसरों की दशा, जीवन-शैली सब हम आड़े हाथ अपने हाथ में ले लेना चाहते है और पुरुषों के हाथों में क्या? सत्ता? जो उन्हें मनमानी करनी आज़ादी देती है। महिलाओं के साथ अपना मनचाहा व्यवहार करने देती है।   

आज भी ढ़ेरों ऐसी महिलाएँ है, जिनके पास कोई मोबाइल फ़ोन नहीं है, इसके बावजूद उन्हें रोज़ घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

हमने, हमारे समाज ने और सत्ताधारियों ने हमेशा महिला सुरक्षा के नामपर महिलाओं को बीच में रखकर घेराबंदी की है। पर कभी भी पुरुषों को संवेदनशील बनाने की दिशा में कोई काम नहीं किया। कभी कोई योजना नहीं तैयार की गयी जिससे पुरुष महिलाओं को समान समझें, इस विचार को व्यवहार में लाया जाए। चाहे घर हो या देश-प्रदेश की सत्ता हर जगह हम महिलाओं के तौर-तरीक़े, चाल-चलन और सुरक्षा की बात करते है, पर

का क्या? और क्या सिर्फ़ हिंसा का दायरा वहीं से शुरू होता है जब एक लड़की अपने लिए साथी का चुनाव करती है? जब वो अपने अनुसार ज़िंदगी जीने के लिए कदम बढ़ाती है? और जब इन्हीं लड़कियों को घरों में बाल यौन शोषण, यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है तब ये सुरक्षा-सुनिश्चित करने वाला ज्ञान कहाँ चला जाता है?  

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ये वो सवाल है, जिनपर हम कोई चर्चा पसंद नहीं करते। न घर में और न संसद में। न चाय की दुकान में और न गाँव की चौपाल पर। चर्चा सिर्फ़ फ़रमान पर होती है, जो कोई सत्ताधारी या घर का मुखिया महिलाओं के नामपर ज़ारी करता है और आधुनिक आज़ाद भारत के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है कि महिला आयोग की एक महिला अध्यक्ष ख़ुद महिलाओं के लिए ये ऐसे बयान देती है, वो भी उस दौर में जब हम महिलाओं को पहेली से पहली रक्षा मंत्री और ओलम्पिक में गोल्ड मेडल पाने वाली खिलाड़ी जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं के शानदार प्रदर्शन के लिए अपनी पीठ थपथपा रहे है। ये सीधेतौर पर पितरसता की गहरी पैठ को दिखता है। आज जब कोरोना महामारी के इस दौर में ऑनलाइन शिक्षा का चलन बढ़ा है तो ऐसे में लड़कियों के लिए मोबाइल पर पाबंदी की सलाह सीधेतौर पर उनके शिक्षा के अवसर को प्रभावित करेगी, क्योंकि जब कोई ज़िम्मेदार इंसान मीडिया के सामने ऐसे बेतुके बयान देता है तो बात टीवी से सिर्फ़ घर में बरामदे नहीं बल्कि परिवार के व्यवहार तक पहुँच तक जाती है और महामारी में पिछड़ी महिलाएँ और किशोरियाँ कई सदियों पीछे सुरक्षा के नामपर पाबंदी के घेरे में चुन दी जाती है।

आख़िर में बस यही कहूँगी आदरणीय मीना जी, जितनी चिंता, सजगता और आधुनिकता आपने लड़कियों के लिए मोबाइल पाबंदी पर लगायी है न उतनी ऊर्जा पुरुषों को संवेदनशील और महिलाओं को अपने बराबर का इंसान समझाने के लिए लगाया जाएगा तो पीढ़ियाँ सुधर जाएँगी। अब महिला सुरक्षा को नहीं बल्कि असुरक्षा की वजह नकारात्मक मर्दानगी वाले पितृसत्तात्मक सोच को मुद्दा बनाकर इसे दूर करने की ज़रूरत है।

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तस्वीर साभार : aajtak.in

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