समाजख़बर लड़कियों को मोबाइल न देने की सलाह, उन्हें तकनीक और विकास से दूर रखने की है साज़िश

लड़कियों को मोबाइल न देने की सलाह, उन्हें तकनीक और विकास से दूर रखने की है साज़िश

लड़कियों को फोन से दूर रहने की सलाह और उस पर निगरानी घर के छोटी उम्र के पुरुष सदस्य भी करते हैं। पित्तृसत्तात्मक सोच लड़कियों को तकनीक से दूर कर उन्हें अशिक्षित और पीछे रखने में विश्वास करती है।

“लड़कियों को ये करना चाहिए, लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम लड़की हो ऐसा नहीं कर सकती,” ऐसी हिदायतें हर लड़की अपने जीवन के हर मोड़ पर सुनती रहती है। बचपन से ही अच्छी लड़की, बुरी लड़की की कहानियां सुनाकर उनके चारों ओर नियम-कायदे के जाल बुन दिए जाते हैं। अपनी मेहनत से धरती से लेकर आसमान तक लड़कियां, महिलाएं अपने कदम बढ़ा रही हैं लेकिन एक आज़ाद महिला को पितृसत्तात्मक सोच हमेशा नकारती रही है। उनके हर कदम को गलत साबित कर उन्हें घरों में कैद करने की वकालत करती है। नारी शक्तिकरण और प्रगतिशीलता के लिए भले ही सरकार में मंत्रालय और आयोग गठित होते रहे हैं लेकिन उनके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। आम लोगों की ही तरह इन पदों पर विराजमान लोग भी पितृसत्तात्मक सोच के साथ महिला-विरोधी बयान देते रहते हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में भी महिला की गलती बताकर बाद में बयान को गलत समझने की सीनाजोरी करते हैं।

हाल ही में उत्तर प्रदेश के महिला आयोग की सदस्य मीना कुमारी ने कुछ ऐसा कहा है जो उनके काम, पद-गरिमा दोनों के विपरीत है। मीना कुमारी का कहना है, “महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ने के पीछे की वजह उनका मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना है। लड़कियों को फोन मत दो। लड़कियां फोन पर लंबी बात कर लड़कों के साथ भाग जाती हैं।” हमेशा की तरह इस तरह की बयानबाजी के बाद बातों को तोर-मरोड़कर पेश करने की बात कही जाती है और फिर सब कुछ भुला दिया जाता है।

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हमारे समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा आम है। बड़ी संख्या में हर रोज़ महिलाओं को किसी न किसी तरह की शारीरिक, मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। घर से बाहर निकलने के बाद अश्लील टिप्पणियों को नजरअंदाज़ कर आगे बढ़ना ही लड़की के लिए एक आसान रास्ता होता है। महिलाओं के प्रति हिंसा और उनके चरित्रहनन के लिए अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल करना सामान्य-सी बात है। देश के वरिष्ठ नेता, अधिकारी, जज और खुद कुछ बड़े ओहदे पर मौजूद महिलाओं ने कई मौकों पर महिला-विरोधी भाषा का इस्तेमाल सार्वजनिक रूप से किया है।

लड़कियों को फोन से दूर रहने की सलाह और उस पर निगरानी घर के छोटी उम्र के पुरुष सदस्य भी करते हैं। पित्तृसत्तात्मक सोच लड़कियों को तकनीक से दूर कर उन्हें अशिक्षित और पीछे रखने में विश्वास करती है।

मीना कुमारी वह पहली शख्स नहीं हैं जिन्होंने लड़कियों को फोन न देने की हिदायत दी है। खुद को समाज कल्याण की पैरोकार कहने वाली खाप पंचायतें भी लड़कियों के जीवन से जुड़े फैसले सार्वजनिक रूप से लेती हैं। महिलाओं के खिलाफ अक्सर खाप पंचायतें ऐसे फरमान सुनाती हैं जैसे वे कोई वस्तु हैं जो उनके इशारों पर ही चलेंगी। आज के आधुनिक जमाने में भी खाप पंचायतें लड़कियों को क्या पहनना है, कैसे जीना है, फोन और सोशल मीडिया नहीं चलाना जैसे रूढ़िवादी विचारधारा के तुगलगी फरमान जारी करती रहती हैं। खाप जैसी सामाजिक संस्थाएं मुख्यत महिला-विरोधी सोच को जाहिर करती है, जिनके अनुसार महिलाओं को केवल घरों में ही रसोई तक ही सीमित रहना चाहिए।

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बढ़ती महिला हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने के बजाय ज़िम्मेदार ओहदे पर मौजूद लोग इन घटनाओं के लिए सर्वाइवर की ही गलती निकालने में जुट जाते हैं। लड़कियों में ‘संस्कार’ की कमियां, उनकी लड़कों से दोस्ती, फोन पर बात करना, घर से बाहर निकलना, उनके कपड़े, हंसकर बात करना, उनका खुला व्यवहार जैसी बातें कह कर सार्वजनिक रूप से हर महिला का मानसिक शोषण किया जाता है। जब भी किसी लड़की के साथ अपराध होता है तो सबसे पहले उससे ही सवाल किए जाते हैं। ऐसे मामलों में आम जनता और नेता दोनों एक-सी ही बातें कहते नजर आते हैं। हमारे घरों में बचपन से ही बेटियों को संस्कार, रिवाज़, इज्ज़त, और शर्म का पाठ पढ़ाया जाता हैं लेकिन अपराध, हिंसा करनेवाले लड़कों को समझाया नहीं जाता बल्कि हमारा समाज उसके बचाव में खड़ा हो जाता है। मर्दवादी मानसिकता और परिवार में होने वाला लैंगिक भेद का पाठ बचपन में ही लड़कों को पढ़ा दिया जाता है। लड़कियों पर निजी संपत्ति की तरह हक जमाना उनको उनके जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में बताया जाता है।

लड़कियों को आगे बढ़ने से रोकती पितृसत्ता

फोन, सिनेमा, टीवी, तकनीक, इंटरनेट आज ऐसे साधन हैं जिसके बिना एक इंसान को पिछड़ा हुआ समझा जाता है लेकिन हमारे समाज में महिलाओं को हमेशा इनसे दूर रहने की हिदायत दी जाती है। आम घरों में यह अक्सर सुनने को मिलता है कि फोन, इंटरनेट आज की पीढ़ी को बिगाड़ रहे हैं। लड़कियों को फोन से दूर रहने की सलाह और उस पर निगरानी घर के छोटी उम्र के पुरुष सदस्य भी करते हैं। पित्तृसत्तात्मक सोच लड़कियों को तकनीक से दूर कर उन्हें अशिक्षित और पीछे रखने में विश्वास करती है। वह नहीं चाहती है कि लड़कियां आगे बढ़कर खुद से अपनी समझ बनाएं। वहीं, तकनीक एक ज़रिया हो सकता है जिससे एक लड़की दुनिया के उन विचारों से भी रूबरू होती है जो उसे बताती है कि घर में उसके साथ होने वाला व्यवहार भी एक अपराध की श्रेणी में आता है। पितृसत्ता से ग्रसित सोच हमेशा महिला को कमतर समझती है। उनकी नज़र में महिला घरेलू काम के अलावा किसी काम के लिए नहीं बनी है। लड़कियां अगर इससे अलग खुद से कुछ भी करने की चाहत रखती है तो वह सबको अखरती है। आज़ादी, बराबरी, आत्मनिर्भरता की उसकी बातें उसके चरित्र से जोड़ दी जाती हैं। हर नये बदलाव के लिए एक लड़की को घर-परिवार के साथ-साथ अपने आसपास के लोगों के भी विरोध का सामना करना पड़ता है। साधारण घरों में लड़कों को पढ़ने और पढ़ाने के लिए तमाम सुविधाएं दी जाती हैं। वहीं, लड़कियों को स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है।

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विचार और विचारों में निरंतर बदलाव मानव सभ्यता के कल्याण के लिए बेहद ज़रूरी है। नये विचार आपको दुनिया के नये-नये रूपों से अवगत कराते हैं। वहीं, महिलाओं को खुद की सोच बनाने से रोका जाता है। लड़कियों को शिक्षा, तकनीक से दूर रखने का मकदस उन्हें विकास से दूर रखने का एक अहम ज़रिया है। अगर आबादी का आधा हिस्सा इन सबसे वंचित रहेगा तो बाकी का हिस्सा खुद ही शक्तिशाली बन उसका लगातार शोषण करता रहेगा। अज्ञानता के कारण महिलाएं अधिकारों से अपरिचित रहती हैं, जिस कारण वह एक दोयम दर्जे का जीवन जीती हैं। विचारों का अभाव उन्हें नये अनुभवों से दूर रखता है। इससे विकास में उनकी भागीदारी नगण्य होती है, जिससे सामाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति पिछड़ी हुई हैं।

यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं तक इंटरनेट, तकनीक की ज्यादा पहुंच उनकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाने का एक सरल उपाय है। महिला का तकनीकी ज्ञान उसकी आर्थिक और नीति-निर्माण में उनकी भागदीरी को बढ़ाएगी। आधुनिक युग में पुरुषों के बराबर हिस्सेदारी के लिए महिलाओं को अधिक तकनीक ज्ञान होना बेहद जरूरी है। यह रिपोर्ट इस बात पर भी ज़ोर देती है कि अगर महिलाओं की इंटरनेट पर ज्यादा मौजूदगी होगी तो वे खुद की आवाज़ को ज्यादा मजबूत कर पाएंगी। महिलाओं का तकनीक ज्ञान लैंगिक भेदभाव मिटाने भी मदद करेगा।

एक सभ्य समाज बनने के लिए उस समाज में महिलाओं का भी स्पेस होना उतना ही आवश्यक है। भाषा, व्यवहार, तकनीक, नीति-निर्णय, समान प्रतिनिधित्व आदि जैसे पहलू के द्वारा ही हम ऐसे समाज को बना सकते है जिसमें एक महिला स्वतंत्र रूप से रह सके, काम कर सके। लेकिन हमारे समाज में महिलाओं के लिए एक से एक अपमानजनक, व्यक्तिगत अशोभनीय बातों का प्रयोग होता है। लैंगिक पूर्वाग्रहों पर बढ़ रहे समाज को बदलने के लिए पीढ़ियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक मानसिकता को त्यागना ही होगा। इस काम को अधिक बल देने के लिए राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक संस्थाओं को सबसे पहले अपनी लैंगिक भेद पर आधारित सोच से मुक्त होना होगा।      


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