अच्छी ख़बर पद्मश्री शांति देवी : लड़कियों की शिक्षा, शांति स्थापना और गरीबों के लिए काम करनेवाली गांधीवादी महिला

पद्मश्री शांति देवी : लड़कियों की शिक्षा, शांति स्थापना और गरीबों के लिए काम करनेवाली गांधीवादी महिला

शांति देवी आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों और खासकर लड़कियों के लिए लगातार काम कर रही हैं। वह आदिवासी बच्चों के विकास के लिए निरंतर सक्रिय हैं।

एडिटर्स नोट : यह लेख हमारी नई सीरीज़ ‘बदलाव की कहानियां’ के अंतर्गत लिखा गया चौथा लेख है। इस सीरीज़ के तहत हम अलग-अलग राज्यों और समुदायों से आनेवाली उन 10 महिलाओं की अनकही कहानियां आपके सामने लाएंगे जिन्हें साल 2021 में पद्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। इस सीरीज़ की चौथी कड़ी में पेश है पद्मश्री शांति देवी की कहानी।

कहते हैं कि जो समाज को संवारने के लिए बने हैं, उन्हें कौन रोक पाता है। तमाम चुनौतियों के बाद भी समाज सुधारने का रास्ता निकल ही आता है। सबसे खास, अगर उस रास्ते पर जीवनसाथी और परिवार साथ हो तो हिम्मत बढ़ ही जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ, शांति देवी के साथ और देखिए आज उनके जज़्बे ने उन्हें ‘पद्मश्री’ बना दिया है। पद्मश्री शांति देवी आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों और बेटियों के लिए लगातार काम कर रही हैं। आदिवासी बच्चों के विकास के लिए निरंतर सक्रिय हैं। 87 साल की शांति देवी का जन्म 18 अप्रैल 1934 को हुआ था। ओडिशा के बालासोर ज़िले में। माता-पिता के थोड़ा शिक्षित होने के कारण शांति का बचपन पढ़ाई- लिखाई में बीता। उन्होंने अपना स्कूल पूरा किया और साल 1949 में कॉलेज में दाखिला लिया। उस दौर में महिलाएं न तो बाहर काम करती थीं और न ही उन्हें अपने मन का पेशा चुनने की आज़ादी थी। ऐसा ही कुछ शांति के साथ भी हुआ। कॉलेज में दाखिले के साथ ही उनकी शादी की बात चलने लगी। शादी तय भी हो गई। होने वाले पति ने शर्त रखी कि शादी के बाद कोरापुट ज़िले के लोगों के लिए काम करना होगा। शांति मान गईं। 

साल 1951 में 17 साल की उम्र में  गांधी के अनुयायी डॉक्टर रतन दास से उनका विवाह हो गया। जाहिर है, उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उस वक्त, वह सिर्फ दो साल ही कॉलेज में पढ़ पाई थीं। शादी के चार महीने बाद ही शांति पति के साथ बालासोर से कोरापुट आ गईं। लोगों के लिए, उनकी सेवा के लिए। यहां उन्होंने कुछ समय बाद एक आश्रम की स्थापना की। यह आश्रम आदिवासी बच्चों के लिए था। साथ ही यहां कुष्ठ रोगियों की सेवा भी की जाती थी। तब कोरापुट का विभाजन नहीं हुआ था। यह एक अति पिछड़ा क्षेत्र था।

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आश्रम में सेवा के साथ- साथ शांति साल 1952 में भूमि सत्याग्रह आंदोलन से जुड़ी। ज़मींदारों द्वारा हड़पी गई आदिवासियों की ज़मीन को वह मुक्त कराने की कोशिशें कर रही थीं। साल 1955-56 में वह आचार्य विनोबा भावे से मिलीं और उनके ‘भूदान आंदोलन’ का हिस्सा बन गईं। उन्होंने बोलांगीर, कालाहांडी और संबलपुर ज़िलों में भूदान आंदोलन को लेकर काम किया। गोपालबाड़ी के एक आश्रम में उन्होंने भूदान कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया। लगभग उसी दौरान, संकल्पदार में 40 के करीब आदिवासी आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। शांति देवी ने राज्यपाल के हस्तक्षेप की मांग करते हुए इनकी रिहाई के लिए भी काम किया। इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि अगर सरकार सभी को ज़मीन का कुछ हिस्सा दे। शराब बनाने-पीने पर कड़े कानून लागू करे तो निश्चित ही राज्य की बहुत समस्याएं हल हो जाएंगी। 

कोरापुट में समाज सेवा करने और गांधी के विचारों को फैलाने के कारण उन्हें ‘कोरापुटिया गांधी’ भी कहा जाता है। 11 सितंबर 1964 को रायगडा के गोबरपल्ली में शांति देवी ने ‘सेवा समाज’ नाम की संस्था का गठन किया। सेवा समाज संस्था आदिवासी लड़कियों की पढ़ाई और उनके विकास के लिए काम करती है। इस समय सेवा समाज लड़कियों के लिए तीन अनाथ आश्रम, अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिये एक छात्रावास चला रहा है। पूर्ण रूप से इसमें समर्पित वालंटियर्स की संख्या 40 है। रायगडा के जबरगुडा में लड़कियों के लिये स्कूल है। यह कक्षा एक से पांचवीं तक है। करीब 100 लड़कियां यहां पढ़ाई करती हैं। लिमगुडा गांव में शांति देवी ने साल 1993 में केंद्र सरकार की मदद से छात्रावास खोला। इसमें वे लड़कियां रहती हैं जो या तो जबरगुडा के स्कूल में पढ़ चुकी हैं या पढ़ रही हैं। सेवा समाज संस्था द्वारा चलाए जा रहे तीन अनाथ आश्रम गुणुपुर, रायगडा और जबरगुडा में हैं। गुणुपुर में बेसहारा बच्चों को शिक्षा, पुनर्वास और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है। इतना ही नहीं, उन्होंने शिशु गृहों की स्थापना भी की है। वह लोगों के लिए लगातार स्वास्थ्य देखभाल और निःशुल्क पौष्टिक नाश्ते का वितरण करती रही हैं। 

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टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में वह कहती हैं कि 1951 में लड़कियां पेशेवर बनने के लिए बहुत महत्वकांक्षी नहीं थीं। वे घर की रेखा का पालन करती थीं। वह भी करती थी, इसलिए कॉलेज के दो साल बाद ही शादी हो गई। आज हालात दूसरे हैं। लड़कियों को सशक्त और साहसी बनाने की ज़रूरत है। उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना सिखाना होगा। लड़कियों को अब स्वतंत्र होना चाहिए और अपने परिवार को भी शिक्षित करना चाहिए। साल 1961 में शांति देवी उत्कल नवजीवन मंडल की सचिव बनीं। वह ओडिशा पुनर्वास कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं और कई गांधीवादी संगठनों से भी उनका जुड़ाव रहा है। वह शुरू से ही ‘अग्रगामी गवर्निंग बॉडी’ की उपाध्यक्ष भी हैं। शांति देवी को खास तौर से, कुछ माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में शांति लौटाने के लिए उनके योगदान से जाना जाता है। यह गांधीवादी समाज सेविका साल 1994 में जमनालाल बजाज अवार्ड जीत चुकी हैं। शांति बनाए रखने के अपने प्रयासों के लिए उन्हें राधानाथ रथ शांति पुरस्कार मिला है। वह कई राज्य और राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार पा चुकी हैं। देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक समान ‘पद्मश्री’ मिलने पर शांति देवी कहती हैं कि केंद्र सरकार द्वारा मिला यह पुरस्कार महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे के आदर्शों का सम्मान है। लोगों को गांधी जी और विनोबा भावे के सिद्धांतों पर चलना चाहिए। उन्हीं की राह समाज को उन्नत करेगी। 

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