इंटरसेक्शनलजेंडर क्या फैशन और नारीवाद दोस्त बन सकते हैं ?

क्या फैशन और नारीवाद दोस्त बन सकते हैं ?

नारीवाद एक ऐसे समाज की वकालत करती है जहां औरतों को उनके कपड़ों या शरीर को लेकर हिंसा का मुकाबला न करना पड़े।

फैशन से मेरी पहली मुलाकात ‘फैशन टीवी’ नाम के एक टीवी चैनल से हुई थी। इस चैनल पर पतली, लंबी और गोरी लड़कियों को मॉडलिंग करता दिखाया जाता था। सालों तक पितृसत्तात्मक समाज के लिंगभेद में बड़े होने और कैटवॉक पर भारतीय मॉडलों की अनुपस्थिति के कारण मुझे फैशन के प्रति कभी दिलचस्पी नहीं रही। मैं एक ‘अच्छी लड़की’ की तरह पढ़ाई पर ध्यान देती रही। हर सामान्य परिवार की तरह मुझ जैसी लड़कियों को डॉक्टर या स्कूल शिक्षक जैसी नौकरियों में जाना सिखाया जाता रहा क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज के अनुसार तो महिलाओं का सम्मान इन्हीं नौकरियों में है। महिला सशक्तिकरण की बात आने पर फैशन को नारी-विरोधी विचारधारा का तमगा दिया जाने लगा। हालांकि समाज नारीवाद का मुखौटा पहने यौन-शोषित पीड़ितों के कपड़ों पर आलोचना करने से नकारता है, लेकिन फैशनेबल कपड़ों में लिपटी महिलाओं के चरित्र को खरोंचने पर कोई आवाज़ तक नहीं निकालता। फैशन जगत एक ऐसी जगह है जहां लिंगभेद से लड़ने का ज़ोरदार उत्साह है, लेकिन इस जगत के बाहर मौजूद नारीवादी आवाजों से बहुत कम समर्थन मिलता है।

फैशन का संबंध नारीत्व से बेहद गहरा और पेचीदा है। काफी लंबे समय तक, फैशन के मंच पर महिलाओं के शरीर को केंद्र में रखा गया जिसके कारण इसे एक स्त्री का कारोबार समझा जाता रहा जबकि हमेशा से पुरुष डिजाइनरों की सत्ता भारी थी। फैशन को कम अहमियत दी जाती है क्योंकि इसे कम बुद्धिमता का विषय माना जाता है। इस धारणा के आधार पर ‘कुछ’ नारीवादी संस्थाओं का मानना है कि नारीवाद जैसे महत्त्वपूर्ण आंदोलन में फैशन की कोई जगह नहीं है। नारीवाद एक ऐसे समाज की वकालत करता है जहां औरतों को उनके कपड़ों या शरीर को लेकर हिंसा का मुकाबला न करना पड़े। यूरोप में पल रहे नारीवाद आंदोलन की शुरुआती जंग औरतों के भारी और दम-घुटाने वाली कॉर्सेट से थी। भारत में आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को इन इलाकों के पोशाकों के अलावा कुछ और आरामदायक कपड़ों को पहनने की इजाज़त नहीं, पैंट पहनना तो बड़े-बूढ़ों को नाराज़ तक कर सकती है। कई लड़ाई के बाद आज औरतों के लिए पैंट या जीन्स पहनना नॉर्मल हुआ। तो फिर आज समाज और कुछ महिलाएं फैशन में रुचि रखने वाली महिलाओं को नीचा दिखाने में एक भी अवसर क्यों नहीं छोड़ती ?

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समाज में घृणा के साथ-साथ फैशन के प्रति आकर्षण भी होता है। इस आधुनिक दुनिया में जैसा कि माना जाता है, फैशन का जन्म यूरोप और अमरीकी समाज में हुआ। हालांकि प्रवासियों को वहां के रहन-सहन, ज्ञान, तकनिकियों को अपनाने में इतनी आपत्ति नहीं हुई जितनी वहां के फैशन से हुई क्योंकि इसका सीधा संबंध घर के औरतों का मतलब है। एक अच्छी और सुशील औरत को फैशन और ‘ऐंग्री फेमिनिस्ट’ की छवि से दूर रखना समाज का लक्ष्य है। समाज के अनुसार छोटे कपड़े पहनना या जिस्म को दिखाना एक अच्छी और सुशील औरत को परहेज़ करना चाहिए और इन बातों को परहेज़ करना सिर्फ ‘चरित्रहीन’ लड़कियां ही करती हैं। पीढ़ियों से महिलाओं पर हो रहे हिंसा का मूल कारण उनके कपड़ों को बताया जाता है। प्रगतिशील और शिक्षित परिवार के अपने नियम-कानून होते हैं जैसे – अच्छे तरीक़े से बच्चे पालने, फैशनेबल नहीं होना और मेडिकल, इंजीनियरिंग और आदि ‘सम्मानजनक’ करियर में उन्हें धकेल देना।

समाज के अनुसार छोटे कपड़े पहनना या जिस्म को दिखाना एक अच्छी और सुशील औरत को परहेज़ करना चाहिए और इन बातों को परहेज़ करना सिर्फ ‘चरित्रहीन’ लड़कियां ही करती हैं।

नारीवादी को समृद्ध बनाने में फैशन का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इस जिम्मेदारी को कंधों में लेने से पहले इस इंडस्ट्री के बुनियादी ढांचे को बदलना पड़ेगा। फैशन इंडस्ट्री आज तक समावेशी नहीं बन पाया है, चाहे बात पश्चिम देशों में हो रहे ब्लैक कम्यूनिटी की करें या भारत की फैशन इंडस्ट्री में दलित, बहुजन, आदिवासी, समलैंगिक समुदाय के गैर-हाजिरी की। इसके अलावा, फैशन ट्रेंड न सिर्फ वातावरण के लिए बल्कि महिला श्रमिकों को नुकसान पहुंचाता है। साल 2019 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एशिया और लैटिन अमेरिका में स्थित कपड़ों के फैक्ट्री के 60 फ़ीसद उत्पादन घरों में (महिलाओं द्वारा) किया जाता है। इन कंपनियों में सिर्फ 25 फ़ीसद उच्चाधिकारी पद महिलाओं को दी जाती है। शायद इसीलिए इस इंडस्ट्री में औरतों का शरीर पुरुषों की कल्पना के अधीन है और शायद इसी कारण से आज लड़कियों के मन में अपने शरीर को लेकर इतना मतभेद है।

फैशन महिलाओं पर पितृसत्तात्मक समाज के प्रतिबंधों से मुक्त करने की एक कोशिश है। इस कोशिश में फैशन ने नारीवाद की कई नकारात्मक छवि भी चित्रित की है जिसके कारण सामाजिक मापदंडों में न आने वाली लड़कियां फैशन को नारीवाद में गिनती नहीं। इसके बावजूद फैशन लिंगभेद से जुड़े गतिविधियों के महत्त्वपूर्ण स्थान में स्थित है। #MeToo आंदोलन को समर्थन देते हुए गोल्डन ग्लोब्स अवॉर्ड के कार्यक्रम में उपस्थित अतिथि काले पोशाकों में नज़र आए, फैशन डिजाइनर मारिया ग्राज़िया की बनाई “We Should All Be Feminists” शर्ट कॉलेज छात्राओं में लोकप्रिय हुई। इन उदाहरणों से इतनी सच्चाई निकलती है कि आज फैशन को पितृसत्ता के खिलाफ और समाज सुधारक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। महिला राजनेताओं से लेकर कॉलेज के छात्राओं तक, फैशन महिलाओं को वो आत्मविश्वास प्रदान कर रहा है जिसे समाज ने कहीं छिन लिया था।

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तस्वीर साभार : prestigeonline.com

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