संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात एंटी-सीएए एक्टिविस्ट आसिफ़ इक़बाल तन्हा से

ख़ास बात एंटी-सीएए एक्टिविस्ट आसिफ़ इक़बाल तन्हा से

मैं कहीं भी बाहर नहीं जा सकता या खुला घूम नहीं सकता क्योंकि एक डर लगातार बना हुआ है। मीडिया ट्रायल के बाद लोगों की बनी धारणा ने भीतर से डराकर रखा है कि कब कौन मुझपर आक्रमण कर दे। मैं कभी कभी ययूट्यूब पर देखता हूं कि मेरे ख़िलाफ़ क्या चल रहा है। जिस तरह का जीवन और जो आज़ादी गिरफ्तारी से पहले थी, अब वैसी नहीं रह गई है। मैं बहुत देर तक सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं रह सकता, सोशल मीडिया पर विचार नहीं व्यक्त कर सकता, ऐसे तमाम रोकटोक अब मेरे जीवन का भाग बन गए हैं।

यह ख़ास बातचीत फेमिनिज़्म इन इंडिया और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र रहे, एक्टिविस्ट आसिफ़ इकबाल तन्हा के बीच हुई है। आसिफ़ को उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में बीते साल हुए दंगे के संदर्भ में यूएपीए (UAPA) के तहत गिरफ्तार किया गया था। पिछले महीने, 15 जून को दिल्ली हाइकोर्ट से उन्हें ज़मानत मिली है। इस बातचीत में हमने उनसे गिरफ्तारी के पहले और बाद के जीवन, जेल का अनुभव और विश्वविद्यालय और छात्र संगठन इत्यादि पर बात की है।

फेमिनिज़म इन इंडिया : शुरुआत इसी बात से करेंगे कि नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलनों के बाद पिछले एक सालों में आपका निजी और सार्वजनिक जीवन किस स्तर पर और कितना प्रभावित हुआ? एक स्वतंत्र व्यक्ति से लेकर हर बार यह डर कि आप पर नज़र रखी जा रही है, इसने किस हद तक सामान्य दिनचर्या को बदलने पर बाध्य किया?

आसिफ़ : देखिए, मेरा निजी जीवन एक आम नागरिक की तरह ही है और हमेशा खुले तौर पर ही व्यवहार करता रहा हूं। मैं एक छात्र और एक्टिविस्ट हूं। मेरा घर झारखंड में है और यहां दिल्ली में परिवार से दूर रहता हूं। नियमित रूप से रोज़ शाम को घर फ़ोन करना मेरे दिनचर्या में शामिल रहता था। जामिया में पढ़ाई के दौरान सार्वजनिक रूप से एक्टिविज़्म में शामिल रहा था। मेरा एक्टिविज़्म मूल रूप से शोषण और दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने और ज़रूरतमंदों की मदद करने तक रहा है। सीएए आंदोलन भी हक़ की लड़ाई ही थी। इस दौरान सबसे अधिक प्रभावित मैं तब हुआ, जब हमारे साथी मीरान हैदर को यूएपीए (UAPA) के तहत गिरफ्तार किया गया। उस गिरफ़्तारी ने लोगों के मन में डर पैदा कर दिया। मैंने जामिया को-ऑर्डिनेशन कमेटी में कहा कि आप लोग इसके ख़िलाफ़ प्रेस रिलीज लिखिए। सफूरा ज़रगर, जो कि मीडिया कोऑर्डिनेटर थीं। उनसे भी प्रेस रिलीज निकालने के लिए बार-बार कहा, हालांकि उन्होंने कहा कि अभी रुक जाओ और इसी बात पर मेरी उनसे बहस हो गई। उसके कुछ दिन बाद ही अचानक सफूरा की भी गिरफ्तारी हो जाती है। उनकी गिरफ्तारी से दो दिन पहले दिल्ली पुलिस द्वारा मुझे पूछताछ के लिए बुलाया गया था, जहां मुझे इतना टॉर्चर किया गया कि मैं पांच दिन तक कमरे से बाहर भी नहीं निकल पाया लेकिन बाहर लोगों को यह पता नहीं था और वे मुझ से हुई पूछताछ और सफूरा की गिरफ्तारी को जोड़कर देखने लगते हैं और मुझपर आरोप लगता है कि पूछताछ के दौरान आसिफ़ ने सफूरा के ख़िलाफ़ बयान दिया है और मुझे पुलिस का गवाह मान लिया जाता है। सफूरा की गिरफ्तारी के डेढ़ महीने बाद तक भी मुझे गिरफ्तार नहीं किया गया और इस दौरान मुझे भयंकर ट्रोलिंग झेलनी पड़ी यानि मैं दो स्तरों पर समस्याएं झेल रहा था। आखिरकार मेरी गिरफ्तारी होती है।

आंदोलन में सक्रिय लोगों की लगातार होती गिरफ्तारियों ने लोगों को डरा दिया था। हम दोस्त आपस में बातचीत नहीं कर पा रहे थे। ये सब कुछ बहुत मुश्किल था। इसी बीच उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए थे। जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथी राहत और बचाव के काम में लगे थे लेकिन पूछताछ, जांच और गिरफ्तारी के चलते वह सब कुछ भी रुक गया था। बाद में कोविड के समय भी पीड़ितों की जितनी मदद की जानी चाहिए थी या आमतौर पर हमलोग जितनी मदद करते थे, वह सब कुछ ठप्प हो गया था। इस प्रकार, निजी स्तर पर तो शारीरिक-मानसिक समस्या झेल ही रहे थे सार्वजनिक स्तर पर भी जितना योगदान देना चाहिए था, नहीं दे पाए।

जेल से निकलने के बाद अपनी मां के साथ आसिफ़, तस्वीर साभार: आसिफ़ की फेसबुक वॉल से

और पढ़ें : ख़ास बात : दिल्ली में रहने वाली यूपी की ‘एक लड़की’ जो नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध-प्रदर्शन में लगातार सक्रिय है

फेमिनिज़म इन इंडिया : हाल फिलहाल में एक्टिविज़्म या साफ़ शब्दों में कहूं तो सरकार की आलोचना और विरोध करने वालों पर कड़ी से कड़ी धाराएं लगाई जा रही हैं। सवाल है कि क्या इन प्रक्रियाओं में धार्मिक आधार पर वलनरेबिलिटी अलग है? आंदोलन करने, गिरफ़्तारी, पुलिस के व्यवहार और जेल की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में बताएं।

आसिफ़ : अगर हम बीते समय को देखें तो देश से मुसलमानों, आदिवासियों, महिलाओं और किसानों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। इसमें एक कॉमन बात यह है कि सरकार और पुलिस की मानसिकता पूरी तरह से एकतरफा होती है। वे वल्नरेबल समुदायों को सीधे निशाना बना रहे हैं। जब आप सरकारी नीतियों के खिलाफ सवाल पूछते हैं तो आपको रोकने के लिए ये लाठीचार्ज करवाते हैं, आपकी आवाज़ दबाने की कोशिश करते हैं। जैसा कि आप सबने जामिया के आंदोलन के समय देखा ही होगा कि कैसे छात्रओं पर आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे थे, लाठी चलाई जा रही थी, लाइब्रेरी में घुसकर मार गया, उसे तहस-नहस कर दिया गया था। इसी तरह आप भीमा कोरेगांव का मामला देखिए, जो लोग अपने अधिकारों की बात करेंगे, जो एक्टिविस्ट्स पिछड़े-दबाए गए लोगों की बात करेंगे, उन्हें ये सरकार पकड़ कर जेल में डाल देती है। प्रतिरोध करने वाले को जेल में डालना की इस सरकार का एकमात्र काम हो गया है। मैं अपनी बात बताऊं तो जिस दिन मुझे जांच के लिए बुलाया गया, उसी दिन से मुझे कहा जाने लगा कि तुम्हें सिमी (प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन) से जोड़कर दिखा देंगे, तुम्हारा लिंक आइसिस (ISIS) से दिखा देंगे। वे लोग तमाम प्रतिबंधित संगठनों का नाम ले रहे थे। मेरी गिरफ्तारी के दौरान ही मुझे दंगाई, आतंकवादी, जिहादी और देशद्रोही कहा जा रहा था। 

मैं कहीं भी बाहर नहीं जा सकता या खुला घूम नहीं सकता क्योंकि एक डर लगातार बना हुआ है। मीडिया ट्रायल के बाद लोगों की बनी धारणा ने भीतर से डराकर रखा है कि कब कौन मुझपर आक्रमण कर दे। मैं कभी कभी ययूट्यूब पर देखता हूं कि मेरे ख़िलाफ़ क्या चल रहा है। जिस तरह का जीवन और जो आज़ादी गिरफ्तारी से पहले थी, अब वैसी नहीं रह गई है।

जेल में मुझसे पूछा गया, तुम्हारा नाम क्या है और किस केस में आए हो। मैंने जैसे ही बताया कि मैं जामिया के केस में हूं, मुझपर ज़ुल्म शुरू हो गया। मेरे बाल नोचकर मारा गया। चौदह दिनों तक मुझे क्वारन्टीन किया गया और अलग वार्ड में रखा गया। वे दिन मेरे लिए सबसे ज़्यादा तकलीफ़देह रहे। मुझे ख़ूब मारा-पीटा गया। शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया। मेडिकल होने के बाद जब मैं अपने वार्ड में गया, वहां के व्यक्ति के पूछने पर जब मैने जामिया और अपनी पहचान बताई, मेरे सामने से खाने की प्लेट खींच ली गई। मुझे उठाकर एक पेड़ के पास ले गए और वहां एक लड़के ने मेरा हाथ पकड़ लिया। उस दिन मुझे बहुत ज़्यादा मारा गया। मैं आज भी उस दर्द को बयां नहीं कर सकता।

उसके बाद रमज़ान का महीना आया। मैंने सहरी के लिए पूछा और उन लोगों ने मना कर दिया। इस दौरान मैने एक चीज़ देखी कि दूसरे मुसलमान कैदियों के लिए सहरी की व्यवस्था थी और नमाज़ पढ़ने के लिए बैरक से बाहर भी आने दिया जाता था लेकिन, मुझ पर रोक थी। मुझे लगता है कि मैंने अगर कोई और अपराध किया होता तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। उन्हें दिक्कत थी, मेरे प्रतिरोध से, जामिया से, क्योंकि हम लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ खड़े होने की हिमाकत की थी यानि गहराई से देखें तो यह शोषण अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमान होने के कारण तो था ही, लेकिन उससे ज़्यादा एक्टिविस्ट होने के कारण था, विरोध प्रदर्शन करने के लिए था।एक्टिविस्ट्स को सरकार अपने सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर देखती है। एक्टिविस्ट्स को टॉर्चर करने में ये लोग जेल मैनुअल तक का पालन नहीं करते और किसी भी हद तक चले जाते हैं।

और पढ़ें : ख़ास बात : सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में सक्रिय रहीं स्टूडेंट एक्टिविस्ट चंदा यादव

फेमिनिज़म इन इंडिया : आप एक स्टूडेंट हैं जो पिछले एक साल को छोड़ दिया जाए तो कॉलेज कैंपस की बहसों से लेकर लाइब्रेरी में स्वतंत्र रूप से पढ़ता-लिखता-एक्सप्लोर करता रहा है, इस बीच जेल में कैद हो जाना एक छात्र के नज़रिये से क्या रहा और आप पर आनेवाले समय में उसके क्या प्रभाव हुए, बताएं।

आसिफ़ :  मैं सामान्य दिनों में कैंपस में बहुत ज़्यादा सक्रिय रहता था। ऐसी कोई भी एक्टिविटी नहीं थी जिसमें मैं नहीं जाता था। अगर किसी डिपार्टमेंट में कोई लेक्चर हो रहा होता था तो मैं वहां ज़रूर पहुंच जाता था। पिछले एक साल में वह सब प्रभावित हुआ। मैं कभी अकेले नहीं रहता था, कॉलेज में दोस्तों के साथ रहता था, दिनभर जब इच्छा हो चाय पीकर बहसें करता था, लोगों के एडमिशन या एग्जाम फॉर्म संबंधी समस्याओं में मदद करता था। जब मैं जेल में था और एग्जाम संबंधी कोई काम फंसा तो कोई भी मेरी मदद करने नहीं आया। इसका एक कारण तो ये था कि मेरे दोस्तों का सारा काम मैं ही करवाता था और उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। अब भले ही मैं जेल से निकलकर आ गया हूं लेकिन बहुत सारी पाबंदियां अभी भी हैं। मैं कहीं भी बाहर नहीं जा सकता या खुला घूम नहीं सकता क्योंकि एक डर लगातार बना हुआ है। मीडिया ट्रायल के बाद लोगों की बनी धारणा ने भीतर से डराकर रखा है कि कब कौन मुझपर आक्रमण कर दे। मैं कभी कभी ययूट्यूब पर देखता हूं कि मेरे ख़िलाफ़ क्या चल रहा है। जिस तरह का जीवन और जो आज़ादी गिरफ्तारी से पहले थी, अब वैसी नहीं रह गई है। मैं बहुत देर तक सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं रह सकता, सोशल मीडिया पर विचार नहीं व्यक्त कर सकता, ऐसे तमाम रोकटोक अब मेरे जीवन का भाग बन गए हैं। जेल के अंदर की बात बताऊं तो मेरे दोस्त और परिवार वाले हर महीने मुझे 5000 रुपए भेजते थे जिसमें से 2000 के मैं अलग अलग अखबार ले लेता था और सारे पढ़ता था। उस दौरान किताबें भी इतनी आसानी से नहीं मिल पाती थीं। कोविड का बहाना लेकर ये लोग मेरा सामान, कपड़े इत्यादि मंगवाने की इजाज़त नहीं देते थे। हालांकि इसमें परीक्षा संबंधी किताबें कोर्ट के आदेश पर मुझे मिल गई थीं। हालांकि 13 महीनों में मुझे जितना पढ़ना चाहिए था, उतना नहीं पढ़ पाया।

जेल से निकलने के बाद आसिफ़, तस्वीर साभार: आसिफ़ की फेसबुक वॉल से

और पढ़ें : नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ शाहीन बाग की औरतों का सत्याग्रह

फेमिनिज़म इन इंडिया : क्या आपको लगता है कि आप और आपके साथी मीडिया ट्रायल के शिकार बने? क्या इसका कोई धार्मिक पक्ष देख पाते हैं?

आसिफ़ : अगर आप यूट्यूब खोलकर देखेंगे तो जो वीडियो मिलेंगे, उसमें मुझे और अन्य साथियों को बिना कोर्ट की दलीलों के ही आतंकवादी और देशद्रोही साबित कर दिया गया है। उन वीडियोज़ को देखकर न केवल मैं बल्कि मेरे दोस्त, परिवार, संगठन सब प्रभावित हुए क्योंकि हम जनता की निगाह में दंगाई साबित कर दिए गए थे। मीडिया ने हमारे बारे में लोगों के मन में एक छवि बना दी थी। लोग पहले से ही निष्कर्ष तक पहुंच चुके थे। आपने भी देखा होगा कि हमारी चार्जशीट भी लीक कर दी गई थी। उसको काट-छांटकर लोग कुछ भी समझ रहे हैं और राय बना रहे हैं। मीडिया ट्रायल ने हम सबको मानसिक तौर पर बहुत ज़्यादा प्रभावित किया। जेल के अंदर भी अखबारों में पता चलता था कि आसिफ़ इकबाल तन्हा को आतंकवादी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया क्योंकि यूएपीए को लोग ऐसे ही देखते हैं और इस तरह की हेडलाइंस आपके बारे में एक आम राय बनाने का काम करते हैं। जेल में लोग आकर पूछते थे कि आप आतंकवादी हो क्या? लेकिन एक सच यह है कि आज भी बाहर बहुत सारे दोस्त हैं, जो हिंदू हैं जो हमारे संघर्ष को समझ रहे हैं, सॉलिडेरिटी दे रहे हैं और हमारी बात समझ रहे हैं। 

फेमिनिज़म इन इंडिया : आपके विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया में स्टूडेंट यूनियन नहीं है बावजूद इसके पिछले दो तीन सालों से लगातार बड़े आंदोलन हुए, सक्रियता से छात्रों ने भागीदारी की। इसे एक्टिव बनाना कैसे संभव हुआ?

आसिफ़ :  जबसे मेरा दाख़िला हुआ है, तबसे मैं देख रहा हूं कि जामिया में यूनियन के लिए संघर्ष चल रहा है। हालांकि प्रशासन की ओर से इस संबंध में कोई सकारात्मक सहयोग नहीं मिला। मेरे हिसाब से जामिया में पॉलिटिकल कल्चर बनने की शुरुआत नजीब के आंदोलन के समय से हुई थी। मैं ख़ुद भी नजीब की अम्मी से मिलता था, जब भी वे दिल्ली आती थीं। उनसे मेरा एक निजी भावनात्मक जुड़ाव हो गया था। जब भी वह दिल्ली आती थीं, मैं उन्हें जामिया बुलाता था। बाहर के प्रोटेस्ट्स में भी जामिया के साथी लड़कों को लेकर जाता था। इसके बाद जामिया के लाइब्रेरी कांड के बाद वे लोग भी वोकल हो गए हैं, जो पहले चुप रहते थे। इससे राजनीतिक चेतना पनपी, लेकिन आज जो माहौल है जामिया का उसमें सबसे बड़ा योगदान जामिया की लड़कियों का है। उन्होंने सबसे ज़्यादा कमाल किया है। सीएए मूलरूप से शाहीन बाग की औरतों और जामिया की लड़कियों का आंदोलन है। चाहे वो आएशा, लदीदा हो या चंदा या अख्तरिश्ता इन सभी लड़कियों ने जामिया में लोगों को जागरूक करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है, इसलिए इन आंदोलन का श्रेय पूरी तरह से उन्हें ही मिलना चाहिए। हाल फिलहाल में हुई गिरफ्तारियों ने कहीं न कहीं थोड़ा डर तो पैदा किया है लेकिन फिर भी छात्रों के बीच व्यापक स्तर पर राजनीतिक समझ बन चुकी है और उम्मीद है आने वाले समय में जामिया से देश के बेहतर नेता निकलेंगे।

और पढ़ें :  जामिया में हुए सीएए विरोधी मार्च में पुलिस ने किया था यौन शोषण : रिपोर्ट

जेल के अंदर की बात बताऊं तो मेरे दोस्त और परिवार वाले हर महीने मुझे 5000 रुपए भेजते थे जिसमें से 2000 के मैं अलग अलग अखबार ले लेता था और सारे पढ़ता था। उस दौरान किताबें भी इतनी आसानी से नहीं मिल पाती थीं। कोविड का बहाना लेकर ये लोग मेरा सामान, कपड़े इत्यादि मंगवाने की इजाज़त नहीं देते थे। हालांकि इसमें परीक्षा संबंधी किताबें कोर्ट के आदेश पर मुझे मिल गई थीं। हालांकि 13 महीनों में मुझे जितना पढ़ना चाहिए था, उतना नहीं पढ़ पाया।

फेमिनिज़म इन इंडिया : इसी से जुड़ा अगला सवाल भी है कि जामिया में जितने भी आंदोलन हुए, उनको लेकर उसकी राजनीतिक वोकनेस पर सेलेक्टिव होने का आरोप लगता है? आप इसे कैसे देखते हैं?

आसिफ़ : देखिए, आरोपों का क्या है, वह तो कोई भी किसी पर भी कभी भी लगा सकता है। जबतक आप जामिया में आएंगे नहीं, यहां का माहौल नहीं देखेंगे, लोगों से बातचीत नहीं करेंगे, आप बाहर से किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकते। यहां किसी धर्म या समुदाय की बात ही नहीं है। सब मिल-जुलकर रहते हैं। जब 15 दिसंबर के दिन जामिया में पुलिस के लोग शोषण करते हैं और विरोध करने वालों पर एफआईआर दर्ज होती है तो उसमें केवल आसिफ़ या आएशा का नाम नही होता, चंदन कुमार, चंदा यादव भी लाठियां खाते हैं, उनपर भी एफआईआर होती है, उन्हें भी पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। ये किसी एक मज़हब की बात ही नहीं है। विरोध इसलिए किया जा रहा है क्योंकि सरकार की मानसिकता अल्पंसख्यक विरोधी, दलित विरोधी , आदिवासी विरोधी और महिला विरोधी है। आरोप तो हर तरह का लगता है, जबतक आप जामिया में आकर यहां का माहौल नहीं देखेंगे, तबतक आप नहीं समझ सकते। जो लोग ऐसा आरोप लगाते हैं, वे आएं, बैठे मैं उन्हें दावत के लिए बुलाता हूं, लेकिन एबीवीपी और सरकार का समर्थन करने वाले लोगों का तो काम ही इस तरह की अफवाह फैलाना है। आपको सच में जामिया का माहौल देखना है तो किसी सामान्य स्टूडेंट समूह के बीच बैठिए और बातचीत करके देख लीजिए।

फेमिनिज़म इन इंडिया : आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि कई छात्र नेता जो एक बड़े विपक्ष के रूप में लॉजिकल और साइंटिफिक टेम्परामेंट बेस्ड मुद्दे उठाकर एक नई तरह की राजनीति करते हुए विकल्प के रूप में उभर रहे थे, मुख्यधारा की राजनीति में जनता द्वारा उन्हें नकार दिया गया, ऐसा क्यों ?

आसिफ़ :  देखिए, मुद्दे उठाना, उनपर बोलना और चुनावी राजनीति में सक्रियता से शामिल होना, दो अलग बातें हैं। इस संदर्भ में आप चाहे कन्हैया कुमार को देखिए या मशकूर अहमद को, ये स्टूडेंट लीडर्स थे जो बाद में राजनीतिक दलों में गए, ऐसे में उन्हें उनके दल के साथ देखना होगा। उनके दल की धरातल पर क्या स्थिति है, कितनी पकड़ है और लोगों का उक्त दल के प्रति क्या रवैया है। आपको देखना पड़ेगा कि ग्राउंड पर कैसे समीकरण काम कर रहे हैं। आप छात्र नेताओं की योग्यता को उस विफ़लता के चलते ताक पर नहीं रख सकते। आप बंगाल या बिहार पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कांग्रेस और सीपीआई की स्थिति बहुत ठीक नहीं है। ऐसे में, छात्र नेताओं की कोई गलती नहीं है। 2014 के बाद से भाजपा ने मीडिया के माध्यम से ऐसा माहौल बनाया है कि लोगों के सोचने-समझने की क्षमता को प्रभावित किया है। आप मीडिया ट्रायल जैसे घटनाक्रमों से हालात समझ सकते हैं। हालांकि धीरे-धीरे लोग यह सब समझ रहे हैं। लोग सवाल पूछना शुरू कर रहे हैं। ऐसे में छात्र नेताओं को लगन से धरातल पर सक्रिय रहते हुए जनता तक अपनी बात पहचानी होगी और उनकी समस्याएं, उनके मुद्दों को उठाना होगा। आप चुप रहकर या सबकुछ छोड़कर नहीं बैठ सकते, ऐसे में आप अपनी साख खो देंगे। जनता के मुद्दों को उठाकर, उनके बीच रहकर ही आप उनका भरोसा जीत पाएंगे।

और पढ़ें : देश की औरतें जब बोलती हैं तो शहर-शहर शाहीन बाग हो जाते हैं

फेमिनिज़म इन इंडिया : आख़िर में एक सवाल है कि आप इकोनॉमिकली बैकवर्ड क्लास से आते हैं। पिछले एक साल में पढ़ाई-लिखाई से दूर हैं। साथ ही करियर के रूप में राजनीति एक अनस्टेबल कार्यक्षेत्र है? आगे का जीवन कैसे देख पाते हैं?

आसिफ़ : फिलहाल, जामिया से मास्टर्स करने का सोचा है, उसी की तैयारी चल रही है। उसके बाद एम.फ़िल और पीएचडी भी करनी है। आपको बताऊं कि यूएपीए की धारा जो मुझपर लगाई गयी है, उसके इतिहास में मैं सबसे कम उम्र का व्यक्ति हूँ । इस दौरान जेल जाकर जिस तरह की प्रताड़नाएं मैंने झेली हैं, अब मैं सभी तरह की चुनौतियों के लिए तैयार हो गया हूँ। जेल से सारी चीजें बर्दाश्त करके लौटने के बाद अब मैं पहले से अधिक मज़बूत हूं। तब मुझे अगर हज़ार लोग जानते थे तो अब पूरा देश जानता है। लोगों तक मेरी आवाज़ पहुंच रही है, अधिकार और अस्तित्व की इस लड़ाई में लोगों का साथ भी मिल रहा है। ऐसे में पढ़ाई और एक्टिविज़्म दोनो साथ-साथ चलेंगे। मैं झारखंड का रहने वाला हूँ, वह आदिवासी बहुल क्षेत्र है। वहां की समस्याओं को मुख्यधारा में लाना मेरा उद्देश्य है और अल्पसंख्यकों, महिलाओं, किसानों के साथ होने वाले शोषण और भेदभाव के ख़िलाफ़ जहां कहीं भी कोई आंदोलन हो रहा होगा, चाहे वह किसी भी विचारधारा के द्वारा शुरू किया गया होगा, आसिफ़ इकबाल आपको पहली सफ़ में खड़ा मिलेगा।

और पढ़ें : ख़ास बात : पिंजरा तोड़ की एक्टिविस्ट और जेल में बंद नताशा के पिता महावीर नरवाल से


तस्वीर साभार : AFP

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content