इंटरसेक्शनलजेंडर सवाल महिलाओं की गतिशीलता का ही नहीं उनकी यौनिकता और अवसर का है

सवाल महिलाओं की गतिशीलता का ही नहीं उनकी यौनिकता और अवसर का है

ये लैंगिक भेदभाव का ही असर है जिसने महिलाओं के लिए आज़ादी और समानता के नामपर रोज़गार के जो अवसर बताए वो सब उनकी गतिशीलता पर रोक लगाते हैं।

अरस्तू ने कहा था, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” अगर इंसान को समाज न मिले तो शायद उसके और जानवर के जीवन में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं रह जाएगा। मानव सभ्यता के साथ समाज का भी विकास हुआ पर इस विकास में बहुत से स्वार्थ ऐसे घुले कि सत्ता की लड़ाई में लैंगिक भेदभाव का बीज हर परिवार तक पहुंचाने के लिए बारीकी से सांस्कृतिक माध्यमों का इस्तेमाल किया गया। समय बदला और बदलते समय के साथ भेदभाव को दूर करने के लिए कई प्रयास भी हुए जिसके चलते इसकी ऊपरी परत तो बदली लेकिन मूल वही रहा। जेंडर की अवधारणा के अनुसार हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने सिर्फ़ महिला और पुरुष को ही अपनी सामाजिक व्यवस्था में शामिल किया है, उनके लिंग के अनुसार उनके सामाजिक विकास की रूपरेखा भी तैयार की है।

महिलाओं और पुरुषों के काम और उनकी भूमिकाओं का विभाजन समाज में संतुलन के हवाले से ऐसे किया गया कि सदियां बीत गईं पर उस तथाकथित संतुलन से बने असंतुलन को दूर करना एक बड़ी चुनौती बन गया है। आपको मेरी इन सब बातों से ताज्जुब होगा। हो सकता है आप ये भी कह दें कि ये सब पुराने जमाने की बात है अब तो सब बराबर है लेकिन सच्चाई ये नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब परिवारों में अभी भी महिलाओं का कामकाजी होना बेहद चुनौतीपूर्ण है।

चित्रसेनपुर की सविता (बदला हुआ नाम) पिछड़ी जाति के गरीब परिवार से ताल्लुक़ रखती है। घर में पारिवारिक क्लेश और आर्थिक तंगी के कारण उन्होंने एक प्राइवेट कंपनी में छोटी-सी नौकरी शुरू की। साइकिल से वह रोज़ काम पर जाया करती। सविता बताती हैं कि जिस दिन से उन्होंने नौकरी करनी शुरू की उस दिन उनके परिवार और आसपास से लोगों ने उनपर अलग-अलग आरोप लगाने शुरू कर दिए क्योंकि जब उन्होंने काम शुरू किया तब से उन्होंने बाज़ार जाना शुरू किया, घर के कामों के लिए आत्मनिर्भर होने लगी और कम्प्यूटर कोर्स में दाख़िला भी ले लिया। ये सब देखने के बाद अधिकतर लोगों का कहना होता कि बाहर जाती है न जाने किस-किस से मिलती है। चरित्र पर सवाल और इन सवालों से बढ़ते विवाद इतने हुए कि सविता को अपने परिवार और नौकरी में से अपने परिवार को चुनना पड़ा।

पितृसत्ता को कभी भी रास नहीं आता कि महिलाएं उनकी बताई हुई मर्यादाओं को पार करने लगें, इसलिए चरित्र के सवाल को शीर्ष पर रखकर महिलाओं को सामाजिक और मानसिक रूप से क्षति पहुंचाई जाती है।

और पढ़ें : यौनिकता और एक औरत का शादीशुदा न होना

सविता ही नहीं मैंने ख़ुद भी ये सब झेला है, जब मैंने अपनी समाजसेवी संस्था में काम करना शुरू किया था और ये दौर आज भी जारी है। कहने को तो ये बहुत आसानी से कह दिया जाता है कि ‘अब औरतें तो चांद पर भी जा रही है’ पर वास्तविकता यह है कि चांद तो छोड़िए साइकिल से एक गांव से दूसरे गांव जाना भी महिलाओं के लिए आज भी बहुत कठिन है। ये लैंगिक भेदभाव का ही असर है जिसने महिलाओं के लिए आज़ादी और समानता के नामपर रोज़गार के जो अवसर बताए वो सब उनकी गतिशीलता पर रोक लगाते हैं। मतलब समाज में उन्हीं कामों को सही माना जाता है जिसमें महिलाएं किसी एक जगह पर बैठकर काम करें, जैसे- टीचर, रिसेप्शनिस्ट, डॉक्टर जैसे कई पेशे। लेकिन जैसे ही कोई महिला फ़ील्ड वर्कर, पत्रकार या उन पेशों का चुनाव करती है जिसके लिए उनको एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़े, वैसे ही हमारे परिवारों में लोगों की भौं में कसाव आने लगता है।

ये सवाल सिर्फ़ महिलाओं की गतिशीलता का ही नहीं, उनके एक्स्पोज़र, सीखने के अवसर और यौनिकता से भी सीधेतौर पर जुड़ा हुआ है। कहते है कि यात्रा अपने आप में शिक्षा का बहुत प्रभावी माध्यम है। ऐसे में जब हम महिलाओं की गतिशीलता पर लगाम लगाते हैं तो हम उनके सामाजिक होने, अपने सपोर्ट सिस्टम को बढ़ावा देने और महिलाओं की यौनिकता पर सीधे शिकंजा कसते हैं। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि जब से मैंने काम करना शुरू किया तब से मुझे अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित होना नहीं पड़ता है। इतना ही नहीं, मुझे जो चीजें पसंद हैं उनतक मेरी पहुंच बन पाई है। ठीक इसी तरह गांव की महिलाओं ने जब समूह में मीटिंग करना शुरू किया तो धीरे-धीरे उनमें आत्मविश्वास बढ़ने लगा, वे अपने आपको एकसाथ में मज़बूत महसूस करने लगी। गांव की समस्याओं को लेकर ग्राम प्रधान के पास जाने लगी और अपने लिए रोज़गार के अवसर भी तलाशने लगी।

ये लैंगिक भेदभाव का ही असर है जिसने महिलाओं के लिए आज़ादी और समानता के नामपर रोज़गार के जो अवसर बताए वो सब उनकी गतिशीलता पर रोक लगाते हैं।

और पढ़ें : पितृसत्ता के कटघरे में चिखती महिला की ‘यौनिकता’

ज़ाहिर है ये सब पितृसत्ता को कभी भी रास नहीं आता कि महिलाएं उनकी बताई हुई मर्यादाओं को पार करने लगें, इसलिए चरित्र के सवाल को शीर्ष पर रखकर महिलाओं को सामाजिक और मानसिक रूप से क्षति पहुंचाई जाती है। इसमें सविता जैसी कई महिलाएं अपने घुटने टेक पीछे जाने को मजबूर हो जाती हैं। घर की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ अपने रोज़गार को बचाए रखने की जद्दोंजहद अक्सर महिलाओं को मानसिक रूप से बेहद प्रभावित करने लगती है, ख़ासकर तब जब वे आर्थिक, सामाजिक और जातिगत रूप से निचले पायदान वाले परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं। हक़ीक़त यही है कि आज भी पितृसत्ता ने इज़्ज़त को ज़्यादा भार देना सिखाया है और इस इज़्ज़त के पत्थर की रस्सी महिलाओं के पैरों से बांधी है, जिससे वे कहीं भी आ-जा ना सके और एक जगह बैठकर समाज के बताए नियमों का पालन करें। इसलिए जब महिलाएं अपनी गतिशीलता को बढ़ाती हैं तो पितृसत्ता की लगाम कसने लग जाती है, कभी अच्छी और बुरी औरत के नाम से तो कभी चरित्रवान और चरित्रहीन के संघर्ष में। इन सबमें सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है महिलाओं की गतिशीलता जो उनकी पहचान, यौनिकता और विकास के अवसर से जुड़ी हुई है।

हम महिलाओं के लिए रोज़गार और शिक्षा की बात करना शुरू कर रहे हैं लेकिन अभी भी उनकी गतिशीलता को बढ़ावा देने में समर्थ नहीं है। कहीं न कहीं ये भी एक बड़ी वजह है हमारे समाज, हमारी सड़कों का महिलाओं के लिए सुरक्षित न होना, क्योंकि न तो हमने कभी महिलाओं की गतिशीलता को वरीयता दी है और न ही उसे स्वीकार करने का मन बनाया है। इन बातों के बाद अरस्तू की कही बात को जब हमलोग सामाजिक सरोकार की नज़र से देखते हैं तो इसमें सिर्फ़ पुरुषों को ही पाते हैं, क्योंकि मनुष्य के पर्याय वास्तव में पुरुषों के ही हिस्से हैं क्योंकि महिलाओं के पास अभी भी मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने अवसर नहीं है। अभी भी उन्हें अपनी गतिशीलता के लिए संघर्षों का सामना करना पड़ता है। 

और पढ़ें : लोकगीत : अपनी यौनिकता से लेकर औरतों की शिकायतों तक की अभिव्यक्ति का ज़रिया


तस्वीर साभार : AFP

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content