इतिहास इशरत सुल्ताना उर्फ़ ‘बिब्बो’ जिनकी कला को भारत-पाकिस्तान का बंटवारा भी नहीं बांध पाया

इशरत सुल्ताना उर्फ़ ‘बिब्बो’ जिनकी कला को भारत-पाकिस्तान का बंटवारा भी नहीं बांध पाया

भले ही भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो गया हो लेकिन इशरत सुल्ताना का फिल्म में काम करना जारी रहा। पाकिस्तान में उन्होंने करैक्टर आर्टिस्ट के रूप में अपनी पहचान को और मजबूत किया।

इशरत सुल्ताना ने जब फिल्मी दुनिया में कदम रखा था तब महिलाओं का इस पुरुषवादी फिल्मी जगत में काम करना भी अच्छा नहीं माना जाता था। पर्दे पर महिलाओं की जिंदगी की तो कोई कहानी होती ही नहीं थी। ऐसे समय में फिल्म जगत में काम करना और अपने हुनर संगीत और अदाकारी से एक नहीं दो-दो मुल्कों में नाम कमाने वाली कलाकार थी इशरत सुल्ताना। इशरत सुल्ताना उर्फ़ ‘बिब्बो’ को हिंदी सिनेमा और भारत की पहली महिला संगीतकारों में से एक माना जाता है। इन्होंने अपने संगीत और अदाकारी से न केवल हिंदुस्तान का दिल जीता बल्कि पाकिस्तान में भी खूब नाम कमाया। साल 1933 में अपने करियर की शुरुआत करने वाली इशरत सुल्ताना 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गईं। पाकिस्तान जाने से ही पहले उन्होंने अजन्ता सिनेटोन लिमिटेड के बैनर तले निर्देशक एम.डी. भवनानी और ए.पी. कपूर के साथ अपनी अदाकारी के करियर की शुरुआत की थी।

इशरत सुल्ताना ने अपनी बेजोड़ अदाकारी और संगीत में दिए योगदान की वजह से जल्द ही अपना नाम उस वक्त के बड़े कलाकारों की सूची में शामिल कर लिया था। यह इशरत सुल्ताना की शोहरत ही थी कि उस दौर में उनके नाम पर एक गीत ‘तुझे बिब्बो कहूं कि सुलोचना’ फिल्माया गया। बिब्बो का जन्म ब्रिट्रिश शासित भारत में दिल्ली के चावड़ी बाजार के पास बसे इशरताबाद इलाके में हुआ था। वह हफ़ीजान बेगम के घर पैदा हुई थीं। उनकी मां भी गायन और नृत्य का काम करती थीं। उनके शुरुआती जीवन के बारे में बहुत कम जानकारियां मौजूद हैं। बिब्बो एक प्रशिक्षित गायिका थीं, जो उस वक्त की प्रसिद्ध जोहराबाई, अंबालेवाली और शमशाद बेगम की तरह की गायिकी के गुण रखती थी। साल 1930 के अंत में बिब्बो ने निर्देशक खलील सरदार के साथ शादी की थी। इस दौरान वह बंबई से लाहौर भी चली गई थी। वहां उन्होंने फिल्म ‘कज्जाक की लड़की’  में संगीतकार के तौर पर काम किया था। वहां पर उनको काम में वह सफलता नहीं मिली जिसके बारे में वह सोचकर गई थी। फिल्म में बतौर संगीतकार काम करके वह दोबारा बंबई वापस लौट आई। उसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में काम किया।

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बिब्बो ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1933 में बनी फिल्म ‘मायाजाल’ से की थी। बिब्बो जल्द ही हिंदी सिनेमा की प्रमुख अभिनेत्री बन गई। फिल्म ‘मायाजाल’ का निर्देशन शांति दवे ने किया था और अजंता सिनेटोन कंपनी के मालिक मोहन भवनानी इस फिल्म के निर्माता थे। मोहन भवनानी ही वह नाम हैं जिन्होंने हिंदी कथाकार प्रेमचंद्र को मुबंई बुलाया और उनके साथ फिल्म की कहानी लिखने का अनुबंध किया था। प्रेमचंद्र द्वारा लिखी पहली और एकमात्र फिल्म ‘द मिल’ यानि मजदूर में बिब्बो ने ही नायिका की भूमिका निभायी थी।

अपने हुनर संगीत और अदाकारी से एक नहीं दो-दो मुल्कों में नाम कमाने वाली कलाकार थी इशरत सुल्ताना।

इशरत सुल्ताना भारतीय सिनेमा जगत की पहली महिला संगीतकार थीं, जिन्होंने ‘अदल-ए-जहांगीर’ गीत को 1934 में अपनी बनाई धुनों में बांधकर संगीतमय किया था। संगीतकार के रूप में उनकी दूसरी फिल्म 1937 में आयी ‘कज्जाक की लड़की’ थी। इशरत सुल्ताना से उस वक्त के मशहूर कलाकार मास्टर निसार, सुरेन्द्र और कुमार के खूब साथ काम किया था। सुरेन्द्र और इशरत सुल्ताना की जोड़ी उस वक्त की रुपहले पर्दे की कामयाब जोड़ी में मानी गई। इन दोनों ने मिलकर फिल्म मनमोहन (1936), जागीरदार (1937), ग्रामोफोन सिंगर (1938), लेडीज़ ओनली (1939) स्नेह बंधन (1940) जैसी फिल्मों में काम किया। हिन्दुस्तान के फिल्मी सफर में बिब्बो ने तीस से अधिक फिल्मों में काम किया।

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इशरत सुल्ताना का फिल्मी सफर रफ्तार से चल रहा था। वह लगातार काम करती जा रही थी। ज्यादा से ज्यादा फिल्में करके वह अपनी कला को और बेहतर बना रही थीं। संगीत हो या अदाकारी उन्होंने हर क्षेत्र में बढ़कर काम किया। साल 1936 में उनको बड़ी सफलता फिल्म ‘गरीब परिवार’ और ‘मनमोहन’ में मिली थी। ‘मनमोहन’ फिल्म में उन्होंने महबूब खान जैसे दिग्गज निर्देशक के साथ काम किया। इस फिल्म को उस वक्त की बड़ी कमर्शियल सफल फिल्म माना जाता है, जिसके गाने लोगों ने बहुत पंसद किए। बिब्बो का फिल्मी ग्राफ तेज़ी से बढ़ रहा था, एक के बाद एक वह फिल्में कर रही थी। 1937 में उन्होंने उन्होंने चार फिल्मों में काम किया। महबूब खान की ‘जागीरदार’ उनमें से एक थी। छोटे बजट की बनी यह रोमैंटिक फिल्म दर्शकों ने बहुत पंसद की थी।

भले ही भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो गया हो लेकिन इशरत सुल्ताना का फिल्म में काम करना जारी रहा। पाकिस्तान में उन्होंने करैक्टर आर्टिस्ट के रूप में अपनी पहचान को और मजबूत किया।

इसके बाद बिब्बो ने ‘कज्जाक की लड़की’ नामक फिल्म में बतौर अदाकारा और संगीतकार काम किया। यह वही फिल्म थी जिसमें उन्होंने संगीतकार के रूप में पहली बार इशरत सुल्ताना नाम का प्रयोग किया था। फिल्म में उनके सहयोगी कलाकार सुरेन्द्र थे और फिल्म का निर्देशन सुल्तान मिर्जा ने किया था। 1938 में इशरत सुल्लाना फिल्म जगत का एक बड़ा नाम बन चुकी थी। उस वक्त के बड़े निर्देशकों की वह पहली पंसद थी। बड़े-बड़े बैनरों तले बनी एक के बाद एक वह हिट फिल्में दे रही थी। वतन, ग्रामोफोन, डायनामाइट, तीन सौ दिन के बाद उनकी सफल फिल्में साबित हुई। 1941 में आयी ‘अकेला’ उनकी बेहद सफल फिल्मों में से एक मानी गई। 1945 में उन्होंने ‘जीनत’ नाम की फिल्म नूरजहां के साथ काम किया। यह फिल्म ‘नूरजहां’ के लिए एक बड़ी सफलता बनी थी। हिन्दुस्तान में उनकी आखिरी फिल्म ‘पहला प्यार’ थी, जिसका निर्देशन एपी कपूर ने सागर मूवीटोन के बैनर तले किया था।

भले ही भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो गया हो लेकिन इशरत सुल्ताना का फिल्म में काम करना जारी रहा। पाकिस्तान में उन्होंने करैक्टर आर्टिस्ट के रूप में अपनी पहचान को और मजबूत किया। एक के बाद एक दमदार अदाकारी वाली लगभग बारह फिल्मों में उन्होंने काम किया। 1950 में पाकिस्तान में उन्होंने पहली फिल्म ‘शम्मी’ की जो कि एक पंजाबी फिल्म थी। 1952 में उन्होंने ‘दुपट्टा’ नाम से उर्दू फिल्म की। यह फिल्म उस समय की बहुत कामयाब फिल्मों में मानी गई, जिसका संगीत बहुत ही पंसद किया गया था। हिन्दुस्तान की ही तरह नये मुल्क पाकिस्तान में उनकी फिल्में कामयाबी के पायदान छू रही थी। वह लगातार सफल फिल्में करती रही। जिसमें ‘जहर-ए-इश्क’ वह फिल्म है जिसके लिए इशरत सुल्ताना को 1958 में उत्कृष्ट अदाकारी के लिए ‘निगार पुरस्कार’ से नवाज़ा गया था। तमाम तरह की शौहरत और कामयाबी के बाद उन्होंने 25 मई 1972 में तंगी से गुजरते हुए इस दुनिया को अलविदा कहा।

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तस्वीर साभार : Wikipedia

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