समाजखेल महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ कहने वाला पितृसत्तात्मक समाज उनके संघर्ष पर क्यों चुप हो जाता है ?

महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ कहने वाला पितृसत्तात्मक समाज उनके संघर्ष पर क्यों चुप हो जाता है ?

मीडिया और हमारा पितृसत्तात्मक समाज महिला खिलाड़ियों को 'बेटी' बनाकर उनका पिता बन रहा है। वह पिता जो बेटी को रोकता है, टोकता है उस पर बंदिश लगाता है। यही पितृसत्ता का पहला कदम है जैसे ही मीराबाई चानू, पी.वी. सिंधु, मैरीकॉम, रानी रामपाल के नाम आते हैं इनकी पहचान इनके खेल से न कर इन्हें 'भारत की बेटियां' बना दिया जाता है।

हिंदुस्तान से मीलों दूर शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि टोक्यो की ज़मीं पर भारत की महिला खिलाड़ी वह कर देंगी जिसके लिए उनके देश में उन पर पहरे लगाए जाते हैं। आसमानी नीली जर्सी पहने हॉकी टीम की इन लड़कियों ने वह जंग जीती है जिसके लिए इन्होंने न जाने कितने संघर्षों का सामना किया। इन खिलाड़ियों को विश्वास था खुद पर इसलिए सारी सीमाओं को लांघकर ये लड़कियां लड़ी अपनों से, खुद से, पितृसत्ता से और आज इतिहास में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। कितने बलिदान इन्होंने दिए, इस मुकाम तक आने के लिए इन्होंने कितना कुछ सहा है। वे पदक जीतने से पहले सालों-साल गुमनामी में जीती हैं, भेदभाव से लड़ती हैं, खेल जगत में होनेवाले शोषण पर आवाज़ उठाती हैं तो कभी चुपचाप अपने खेल से जवाब देने की जिद में लग जाती है। छोटे गांव और तंग गलियों से निकली इन लड़कियों ने वो कर दिखाया जिनके लिए इनको ताना सुनना पड़ता था। ये इतिहास है इन लड़कियों ने अपने मौके खुद बनाए हैं। इनकी जीत को सेलिब्रेट करते दर्शक बने लोग आज भले ही भूल गए होंगे कि कब-कब उन्होंने लड़कियों को “बड़ी खिलाड़ी बन रही है” जैसी बात कही हैं। वे इनकी जीत के लिए दुआएं मांग रहे हैं। इन खिलाड़ियों में से अधिकतर ने केवल आर्थिक तंगी ही नहीं देखी बल्कि सामाजिक मोर्चे पर भी इन्होंने एक जंग लड़ी है।  

भारत वह देश है जहां पर लड़कियों को जन्म लेने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। अपनी पंसद और लीक से हटकर चलने के लिए ना उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहनी पड़ती है बल्कि जान तक गंवानी पड़ती है। खेल के मैदान में भी एक महिला खिलाड़ी को सिर्फ उसकी लैंगिक पहचान के कारण टार्गेट किया जाता है। मैं अक्सर अपने शहर में और सफर करते समय रास्ते में मैदान में खेलती लड़कियों को तलाशती हूं। यहीं हमारा सामाजिक ताना-बाना है। यहां सार्वजनिक रूप लड़कियों का खेलना वर्जित है। पुलिस भर्ती के लिए दौड़ लगाती लड़कियां सुबह अंधेरे में ही दौड़ती हैं। इन सब असमानता के बावजूद खेल में महिला खिलाड़ियों की उपलब्धियां बढ़ रही हैं, बीते दो ओलंपिक हो या वर्तमान टोक्यो ओलंपिक हर जगह महिला खिलाडियों ने जीत हासिल कर भारत को पदक दिलाए।

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सिर्फ पदक ही है सब कुछ

एक कहावत है ‘उगते सूरज को सब सलाम करते हैं।’ यह बात पदक जीतने वाले तमाम खिलाड़ियों पर भी सटीक बैठती है। पदक जीतने के बाद महिला खिलाड़ियों को आईडिल बना कर उनकी वाहवाही तो आसानी से की जाती है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज से उनके संघर्ष पर आंखें बंद कर ली जाती हैं। उनकी उपलब्धियों पर बाहें फैलाने वाला यहीं जोशीला समाज सबसे बड़ा बाधक होता है। जो गुमनामी के वक्त इन लड़कियों पर खेलने की रोक लगाता है। इन्हें सफर में टूर्नामेंट खेलते जाते वक्त ट्रेन से धक्का दे देता है। यह वक्त है इस बात को भी पूछने का कि आखिर क्यों उन्होंने ऐसी समस्याओं का सामना किया। उत्तर-पूर्वी भारतीय होने के कारण खिलाड़ियों को जो बातें सुननी पड़ी हमें यह बात भी इस वक्त करनी चाहिए।

मीराबाई साईखोम चानू का नाम आज हर कोई जान रहा है। उसको सेलिब्रेट करने का वक्त है लेकिन सिर्फ उनकी इस जीत को ग्लोरिफाई करके अपनी नाकामियों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। यह सवाल पूछना चाहिए कि नॉर्थ-ईस्ट से आने वाले लोगों को अपनी क्षेत्रीयता के कारण क्यों संघर्ष करना पड़ता है। क्यों हमारा समाज इस क्षेत्र के लोगों के साथ नस्लभेदी व्यवहार करता है। खेल से लेकर पदक जीतने तक के सफर में खिलाड़ी का सिस्टम, समाज और परिवार से संघर्ष जारी रहता है।

मीडिया और हमारा पितृसत्तात्मक समाज महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ बनाकर उनका पिता बन रहा है। वह पिता जो बेटी को रोकता है, टोकता है उस पर बंदिश लगाता है। यही पितृसत्ता का पहला कदम है जैसे ही मीराबाई चानू, पी.वी. सिंधु, मैरीकॉम, रानी रामपाल के नाम आते हैं इनकी पहचान इनके खेल से न कर इन्हें ‘भारत की बेटियां’ बना दिया जाता है।

अभी भी घर महिला को ही संभालना है

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि घर संभालने का कॉपीराइट एक खास जेंडर पर ही टिका है। पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच के लिए महिला की पहचान यहीं तक है। एक महिला कहीं भी कोई भी मुकाम हासिल कर ले पितृसत्ता के लिए उसकी जगह सिर्फ घर-गृहस्थी तक ही है। सोशल मीडिया पर वायरल एक पोस्टर इस बात पर मुहर लगाता है। ‘लड़की घर भी संभाल लेगी और मेडल भी जीत लेगी यही है हमारी भारतीय नारी’। क्यों ‘भारतीय नारी’ के लिए घर संभालना ज़रूरी बना दिया गया है। हजारों साल पुरानी मान्यता और मानसिकता की जकड़ को लगातार उनपर थोप कर उनको सीमित किया जा रहा। इस घर के बोझ के कारण ही लड़कियां पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद और अन्य गतिविधियों में पिछड़ जाती हैं। बचपन से उन पर छोटी-छोटी जिम्मेदारियां डालकर उनसे उनका खेल छीन लिया जाता है। उन्हें रिवाजों में बांधकर और शारीरिक बदलावों के कारण दहलीज लांघने से रोक दिया जाता है। घर के काम बहन के और बाहर के काम भाई के कहकर बालपन से उनके मन में ये बातें बैठा दी जाती हैं। हर खेल महिला खेल सकती है और मेडल जीत कर भी ला सकती है। बशर्ते उसे घर, दहलीज और इज्जत के भार से आज़ाद कर दिया जाए।

तस्वीर साभार: फेसबुक

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मीडिया की भाषा और कवरेज

“म्हारी छोरी छोरो से कम नहीं है, बेटियों ने किया भारत का सिर ऊंचा, अभावों में पली बेटियां लाई पदक,” ये कुछ ऐसी हेडलाइन्स हैं जो अखबार के खेल पन्नों या फिर न्यूज चैनलों के कार्यक्रमों में देखने को मिलती हैं। मीडिया की यह भाषा उसी मानसिकता को दिखाती है जिसके कारण महिला खिलाड़ियों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वे नजीर बन रही हैं तमाम उन लोगों के लिए जो खेलों में खुद की पहचान बनाना चाहते हैं। वहीं मीडिया और हमारा पितृसत्तात्मक समाज उनको ‘बेटी’ बनाकर उनका पिता बन रहा है। वह पिता जो बेटी को रोकता है, टोकता है उस पर बंदिश लगाता है। यही पितृसत्ता का पहला कदम है जैसे ही मीराबाई चानू, पी.वी. सिंधु, मैरीकॉम, रानी रामपाल के नाम आते हैं इनकी पहचान इनके खेल से न कर इन्हें ‘भारत की बेटियां’ बना दिया जाता है।

ये लड़कियां भारत की नागरिक हैं, जिन्होंने खिलाड़ी बनना चुना है। जो अपने हुनर और मेहनत के दम पर विश्व में अपनी पहचान कायम कर रही हैं। बेटियों का तमगा इनके लिए सहानुभूति लाता है लेकिन इनके संघर्ष को नजरअंदाज कर देता है। इन खिलाड़ियों को बेटियां कहना इनके खिलाड़ी बनने तक के सफर को भुला देना है। दूसरी ओर ‘लड़कियां नहीं हैं लड़को से पीछे’ जैसी बात पुरुषों की श्रेष्ठता को बयान करती है। मतलब लड़कियों ने जो किया है वे लड़के पहले से ही करके आते हैं। लड़कों का ऐसा करना सामान्य और अधिकार है। अगर लड़कियां ऐसा कर रही है तो वे लड़कों से ही प्रेरणा लेती हैं, मतलब प्रेरणास्त्रोत हमेशा पुरुष ही होते हैं।

खेल जगत के अलावा हर क्षेत्र में महिलाएं, लड़कियां संघर्ष करने के बाद आज सुर्खियों में हैं। ओलंपिक में उनके प्रदर्शन को देश की अस्मिता से जोड़ने से पहले उस संघर्ष को मत नकारिए जो उसने जातिवाद, गरीबी, लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता के कारण झेला है।

बात जब कवरेज की भी आती है तो वह महिला खिलाड़ियों की जीत को वह स्थान नहीं दिया जाता है जो पुरुष खिलाड़ियों को मिलता है। क्रिकेट तो एक खेल है, महिला खेले या पुरुष नियम तो एक ही होते है। लेकिन भारतीय मीडिया में यदि पुरुष क्रिकेट टीम जीतती है तो टीवी पर पूरे दिन इसकी खबरें होंगी और समाचार-पत्रों में पहले पेज से लेकर स्पेशल कवरेज ‘ब्लू मैन आर्मी’ को मिलती है। क्रिकेट के अलावा वैसे भी किसी खेल को कवरेज मिलना बहुत बड़ी चुनौती है। बीबीसी के ही एक रिसर्च में सामने आया है कि खेल जगत की खबरों में महिला खिलाड़ियों को 30 फीसद कम कवरेज मिलती है। वहीं, खेल में महिला खिलाड़ियों के लिए वेतन और स्पॉसर का मुद्दा भी है। 

खेल जगत के अलावा हर क्षेत्र में महिलाएं, लड़कियां संघर्ष करने के बाद आज सुर्खियों में हैं। ओलंपिक में उनके प्रदर्शन को देश की अस्मिता से जोड़ने से पहले उस संघर्ष को मत नकारिए जो उसने जातिवाद, गरीबी, लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता के कारण झेला है। दूसरी ओर मीराबाई चानू और सिंधु की ओलंपिक जीत पर नारीवाद को निशाना बनाकर उसे नकारना दोहरापन है। यही सोच न तो लड़कियों को खेलने देती है और न ही उनको पढ़ने-लिखने और सवाल करने देती है। बात जब गौरव और सम्मान की आती है तो सबसे पहले खिलाड़ियों को बेटी बनाकर देश की अस्मिता से जोड़ देती है। अंतररास्ट्रीय स्तर पर खेलों में कमाल करती इन लड़कियों की कहानियों में मेहनत तो है लेकिन साथ ही वह संघर्ष है जो उन्हें सामाजिक कुरीतियों के कारण झेलना पड़ता है जिस पर सवाल और बात दोनों होनी चाहिए।

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