इतिहास मेरी डिसूज़ा : तमाम संघर्षों को पार करते हुए ओलंपिक तक पहुंचनेवाली खिलाड़ी

मेरी डिसूज़ा : तमाम संघर्षों को पार करते हुए ओलंपिक तक पहुंचनेवाली खिलाड़ी

दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय खेल महोत्सव- ‘ओलिंपिक’ की चर्चा है। आपको बता दें कि अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति के एक फैसले के मुताबिक लिंग भेद मिटाने के लिए इस बार टोक्यो ओलिंपिक में 49 फीसद महिलाओं की भागीदारी देखी गई। यह स्थिति हमेशा से नहीं थी। भारत में भी आधी शताब्दी तक ओलंपिकस में केवल पुरुष ही भारत का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन साल 1952 में हेलसिंकी ओलिंपिक में पहली बार महिलाओं को भी अपने देश का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। नीलिमा घोष के साथ मेरी डिसूज़ा ओलंपिक में जाने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ियों में से एक थीं। इससे पहले वह साल 1951 में पहले एशियन गेम्स में 4×100 मीटर रिले रेस में सिल्वर और 200 मीटर में ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम कर चुकी थीं। इनके लिए ओलंपिक तक पहुंचने का सफ़र आसान नहीं था। 

शुरुआती जीवन

मेरी का जन्म साल 1931 में मुंबई के बांद्रा इलाके में हुआ। मेरी के 12 भाई-बहन थे। इतने बड़े परिवार को संभालने के लिए इनके माता-पिता दिन-रात एक करके मेहनत करते थे। मेरी के घरवालों को उनका खेलना पसंद नहीं था। वेबसाइट डीएनए के मुताबिक इनके पिता जी कहते थे, “अगर तुम्हें कसरत करने का इतना ही शौक़ है तो घर के काम करो।” घरवालों की रोक-टोक के बावजूद भी मेरी का जज़्बा उन्हें उनके सपने के करीब खींच ही लाया। उस समय लड़कियों को खेलने के लिए अधिक प्रोत्साहित नहीं किया जाता था। मेरी की पढ़ाई सेंट जोसेफ़ कॉन्वेंट स्कूल से हुई। उनके स्कूल में खेलने का ग्राउंड नहीं था। मेरी ने अपने भाईयों को देख-देखकर हॉकी खेलना सीखा। वह रात में दीवार टापकर दूसरे ग्राउंड में जाकर अभ्यास किया करती थीं इनके एक भाई ने इनकी तेज़ गति को देखते हुए इनका नाम स्थानीय एथलेटिक्स में दर्ज करवा दिया। वहां से आगे बढ़कर यह एशियाई खेल के फाइनल तक पहुंची। इसी तरह 20 साल की उम्र में वह साल 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक्स के लिए चयनित खिलाड़ियों से एक थीं।

और पढ़ें : नीलिमा घोष : ओलंपिक में शामिल होने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट | #IndianWomenInHistory

ओलंपिक्स तक पहुंचने के लिए संघर्ष

ओलंपिक के लिए केवल प्रतिभा होना काफ़ी नहीं था। असली संघर्ष हेलसिंकी तक पहुंचने का था। उस समय एक खिलाड़ी को ओलंपिक्स में जाने के लिए कम से कम 5000 रुपए चाहिए थे। मेरी के पिता जी रेलवे में ड्राइवर की नौकरी करते थे। वह इतने पैसे नहीं जुटा सकते थे। केंद्र सरकार ने सभी खिलाड़ियों का हवाई खर्च उठाने का ज़िम्मा लिया। बंगाल की सरकार की तरह मुंबई की राज्य सरकार खिलाड़ियों की कोई मदद नहीं कर पाई पर इनके दोस्तों ने फंड जुटाने के कार्यक्रम का आयोजन किया। यह डांस और ताश का खेल था। इससे जुड़े पैसों से मेरी हेलसिंकी तक पहुंच पाईं। 

आर्थिक मुश्किलों के इलावा भी मेरी को कई पितृसत्तात्मक धारणाओं के चलते और भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। विश्व हॉकी फेडरेशन के नए नियम के अनुसार सभी महिला हॉकी खिलाड़ियों के लिए स्कर्ट्स पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। ऐसे में हॉकी खेलने के बाद मेरी दौड़ने का अभ्यास करने के लिए शॉर्ट्स पहनती थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए गए एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बताया,”दर्शक हमें भागते या खेलते हुए देखने कम, बल्कि महिलाओं को शॉर्ट्स में देखने के लिए अधिक आते थे।” तमाम संघर्षों के बीच महिलाओं का ओलंपिक में जाकर अपनी मौजूदगी और अस्तित्व दर्ज करवाना हमेशा से ही चुनौतियों से भरा था।

और पढ़ें : हमारा जातिवादी समाज किस हक से महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ कहकर पुकारता है?

ध्यानचंद अवॉर्ड से सम्मानित होती मेरी, तस्वीर साभार: Wikipedia

मेरी की उपलब्धियां

ओलंपिक में मेरी न सिर्फ़ ट्रैक एंड फील्ड दौड़ में भाग लिया बल्कि फील्ड हॉकी में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। बिना किसी कोच के और बिना मूलभूत सुविधाओं के इन्होंने अपनी पूरी जान लगाकर खेल प्रतियोगिता में बेहतरीन प्रदर्शन किया। इसके बाद 1954 में मनीला में आयोजित एशियन गेम्स में केवल 49.5 सेकंड्स में 4×100 मीटर रिले दौड़ में उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किया। साल 1956 में मेलबर्न ओलंपिक में जाने के लिए भी इनका चयन हुआ लेकिन उस समय फंड की कमी के कारण पूरी महिला टीम इस ओलंपिक का हिस्सा नहीं बन पाई थी।

साल 2013 में मेरी को भारत सरकार द्वारा खेल के क्षेत्र में भारत के सर्वश्रेष्ठ ‘ध्यान चंद सम्मान’ से सम्मानित किया गया। द हिंदू के एक लेख के मुताबिक मेरी डिसूज़ा का कहना है कि अगर वह समय पर अपनी ट्रेनिंग शुरू करतीं और अच्छी ट्रेनिंग लेतीं तो वह और पदक जीत सकती थीं। हालांकि पहले के मुकाबले आज की स्थिति बहुत सुधर चुकी है लेकिन फिर भी मेरी ने अपनी बेटी को खेल में करियर न बनाने की राय दी। द हिंदू को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि इसी वाक्य पर आधारित उनकी बेटी ने उनके लिए एक किताब लिखी है “यु कांट ईट योर फेम।” उन्हें आशा है कि कोई न कोई प्रकाशक उनकी यह कहानी प्रकाशित करेगा और आने वाली पीढ़ियों को इससे प्रेरणा मिल सकेगी।

इतनी दिक्कतों के बाद भी मेरी ने कभी हार नहीं मानी और पूरी इज़्ज़त और मेहनत से अपने देश का नाम रौशन करती रहीं। मेरी और अन्य ऐसी महिलाओं की पहल को याद रखना चाहिए। इनके संघर्षों की दास्तां बच्चों और अन्य खिलाड़ियों को सुनाकर उन्हें प्रेरणा देनी चाहिए। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इनकी सीखों और अनुभवों से सीख लेकर हम भारत की खेल व्यवस्था में सुधार कर सकें ताकि अधिक से अधिक महिलाएं ओलंपिक और अन्य खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकें।

और पढ़ें : महिला खिलाड़ियों को ‘बेटी’ कहने वाला पितृसत्तात्मक समाज उनके संघर्ष पर क्यों चुप हो जाता है ?


तस्वीर साभार : Mary D’Souza OLY India’s First Female Olympian and Double International Facebook page

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content