समाजपर्यावरण जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दे को ताक पर रखता आदिवासी इलाकों में ‘इको-टूरिज़्म’

जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दे को ताक पर रखता आदिवासी इलाकों में ‘इको-टूरिज़्म’

आदिवासियों के नाम पर उनके आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनाएं लाई जाती हैं लेकिन उनके संचालन का जिम्मा इन्हें नहीं दिया जाता। यह बस पर्यटकों के मनोरंजन के पात्र होते हैं।

छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर में एक बार फिर से ज़िला प्रशासन के साथ मिलकर ईको-टूरिज़्म को बढ़ावा देने की पहल की है। साथ ही कहा है कि इससे स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के अवसर खुलेंगे और उनका आर्थिक विकास होगा। बस्तर अपने अनोखे रीति-रिवाज, परंपराओं और प्राकृतिक वन-संपदा के लिए जाना जाता है। ज्ञात हो कि बस्तर संभाग पूरी तरह आदिवासी बहुल संभाग है। आदिवासियों की अपनी रीति-नीति, परंपरा बिल्कुल अलग हैं। यहां कई आदिवासी समुदायों को सरकार द्वारा संरक्षण प्राप्त है। संविधान में ऐसे अनुच्छेद हैं जो आदिवासी इलाकों में उनकी प्रथा और परंपराओं को संरक्षण प्रदान करते हैं। इन्हें संविधान द्वारा विधि का बल प्राप्त हैं जिसके तहत इन इलाकों में बाहरी व्यक्तियों को भ्रमण करना,व्यापार,व्यवसाय करना प्रतिबंधित है। सरकार के आदर्श इको टूरिज़्म से स्थानीय लोगों को क्या लाभ है और यह योजना पर्यावरण और आदिवासी जीवन शैली को किस तरह प्रभावित कर रहा है इस लेख के माध्यम से समझते हैं।

सांस्कृतिक संरक्षण का एक ताजा उदाहरण लीजिए जिसमें सरकार ने जनवरी 2021 में 100 गोटूल बनाने की घोषणा की है। सरकार का कहना है कि बस्तर की पहचान गोटूल से है। देश-विदेश से लोग इसे देखने आते हैं। गोटूल बस्तर के आदिवासी समुदाय के जीवन में एक विशेष महत्व रखता है। यह सामाजिक गतिविधियों का केन्द्र है। इसे समुदाय की एक विशेष तरह की पाठशाला ही कहा जा सकता है जिसमें युवक युवतियां अपने आदिम सभ्यता को जीवित रखते हुए संस्कृति, कला और परंपराओं से परिचित होते हैं। यहां अनेक कौशल कला सिखाई जाती हैं जिससे वे भविष्य में शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से निपट सकें और इनका बौद्धिक विकास हो। इन्हींं गोटुलों में इंसानों और पशु पक्षियों में सहजीवीता के मायने सिखाए जाते हैं जिससे कि पर्यावरण का पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत रहे। अंत में इसी गोटूल से अपने जीवनसाथी की तलाश पूरी कर आदिवासी यहां से विदा लेते हैं।

आदिवासियों की संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है हमारा समाज

इस बारे में मैंने गोटूल के एक सक्रिय सदस्य रोज़ी गावड़े से बात की। उनका कहना है, ‘मेनस्ट्रीम मीडिया और इसके लेखक गोटूल को एक ‘सेक्स कल्चर’ या ‘नाइट क्लब’ के रूप में परिभाषित करते हैं। आदिवासियों के लिए अपने मन में पूर्वाग्रह धारण किए हुए यह लेखक हर बार गोटूल के बारे में गलत तरह से लिखते हैं, यूट्यूब वीडियो बनाते हैं। गोटूल की सही चीजों को भी गलत तरीके से लिखकर दिखाते हैं। उनकी नज़र में गलत का मतलब तथाकथित सभ्य समाज से परे एक असभ्य समाज में जीवनसाथी चुनने का अधिकार लड़कियों को कैसे मिल सकता है? क्या आपने आज तक कभी किसी आदिवासी को गोटूल के बारे में बताते हुए देखा/सुना? क्या किसी बड़े मंच पर किसी आदिवासी ने गोटूल के बारे में कुछ कहा है? नहीं। वे खुद ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित दिमाग की उपज से उल्टी सीधी बातें लिख रहे हैं, प्रचार कर रहे हैं। क्या हमने कभी सामने आकर यह बोला है कि हमारे गोटूलों में क्या होता है, हमारे गोटूल क्या हैं? हर बार एकतरफा पक्ष सुना और देखा जाता है। यदि हमारी कुछ चीज तथाकथित सभ्य समाज से अलग हैं और आप उन चीजों को नहीं समझते तो आप उन्हें गलत तरीके से पेश भी मत कीजिए। हर बार पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर इन चीजों को लिखना और इन्हें सेंसेशन बनाना, व्यूज के लिए सनसनीखेज़ कंटेंट बनाना किस हद तक वाजिब है?’

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रोज़ी गावड़े ने यह भी कहा कि ट्राइबल बेल्ट में खुद को आदिवासियों का मसीहा बनाने आए हुए लोग हैं। जो यहां की खबरों को मुख्यधारा में गलत तरीके से पेश करते हैं और उनके सामने खुद को आदिवासियों का मसीहा घोषित करते हैं। आप कई ऐसे खबरें पढ़ सकते हैं जिसमें आदिवासी आंदोलनों को कुचलने के लिए ये मसीहा सरकार से मिलकर चुपके से आदिवासियों के खिलाफ काम कर रहे होते हैं। लया, लयारों (युवक युवतियां) से निवेदन है, ऐसी लिखी खबरों को पढ़िए। इन्हें पहचानिए, बहिष्कार कीजिए। आप जब इन चीजों को पढ़ेंगे तब समझ जाएगा कि जब हम बहुत डेडीकेटेड होकर अपने समुदाय के लिए कुछ करना चाहते हैं तब उसमें कुछ लोग अपना फायदा देखकर देखकर शामिल होते हैं। अपने ब्राह्मणवादी नज़रिये का परिचय देते हुए अपने विचार हम पर थोपते हैं। हम धीरे-धीरे उनके विचारों में उलझते जाते हैं। हम ही उनके कॉन्टेंट को बढ़ावा देते हैं तब जाकर उनको कोई टीम, कमेटी या संगठन जैसे जगहों से उन्हें पुरस्कार मिल जाता है। ऐसे फर्जी मसीहाओं से सवाल करना चाहिए कि उनका इससे क्या फायदा है? नहीं, वे सिर्फ अपना फायदा देखते हैं वरना कोई क्यों अपना सिविलाइजेशन छोड़कर जंगलों में कैमरा उठाकर आदिवासियों के पीछे घूमेगा ?

आदिवासियों के नाम पर उनके आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनाएं लाई जाती हैं लेकिन उनके संचालन का जिम्मा इन्हें नहीं दिया जाता। यह बस पर्यटकों के मनोरंजन के पात्र होते हैं।

रोज़ी गावड़े के मुताबिक सोशल मीडिया पर सैकड़ों ऐसे पेज मौजूद हैं जो बस्तर टूरिज्म के लिए बने हुए हैं। वह कहती हैं, ‘लोग बस्तर के बारे में, बस्तर की फोटो छापकर अपना पेज आगे बढ़ा रहे हैं। अगर आप इन पेजों को फॉलो करते हैं, फॉरवर्ड करते हैं तो उनकी मानसिकता समझिए। हम उनके द्वारा अपनी संस्कृति को जान रहे हैं। वे हमारा प्रतिनिधित्व लिख रहे हैं। ऐसा करके वे आपकी सांस्कृतिक पहचान को धूमिल कर रहे हैं। ऐसे लोगों को और ऐसी चीजों को अनफॉल कीजिए इनसे सवाल करना होगा हम उन्हें अपने बीच आने देते हैं हमारे लोगों के बीच रहने देते हैं। बस्तर में एक ‘एडवेंचर नाइट’ करने देते हैं। बस्तर से जाकर वे हमारे बारे में अपनी मनगढ़ंत कहानियां लिखते हैं तब जाकर हम गुस्सा होते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जो तथाकथित सभ्य समाज है उसमें सामाजिक बुराइयां अधिक हैं। वे अपने समाज की सामाजिक बुराइयों पर काम क्यों नहीं करते? क्या तथाकथित सभ्य समाज में किसी भी तरह की सामाजिक बुराइयां अब समाप्त हो चुकी हैं? आप अपने समाज में देखिए उन पर काम कीजिए। वहां के बारे में लिखेिए। हम आदिवासी काफी हैं, अपनी सामाजिक धरोहर और जंगलों को बचाने के लिए क्योंकि अगर इतने सारे मसीहा सच में काम कर रहे होते तो आज हम इन सरकारी कागज़ों में और सुप्रीम कोर्ट के हर दूसरे दिन आते लॉ एंड ऑर्डर पर क्यों उलझ रहे होते। ये आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। आपकी संस्कृति, सभ्यता को गलत तरीके से दिखाएंगे। आपके समुदाय के लिए ऐसा कुछ कर के नहीं जाएंगे जिससे आपका फायदा हो। फायदा तब होगा जब आप खुद अपनी संस्कृति को बढ़ावा देंगे। हिंदुत्व के मायाजाल से बाहर निकल ऐसे लोगों से सवाल करेंगे।’

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आदिवासियों को आगे बढ़ाने की योजनाएं कितनी कारगार ?

आदिवासियों के नाम पर उनके आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनाएं लाई जाती हैं लेकिन उनके संचालन का जिम्मा इन्हें नहीं दिया जाता। आदिवासी बस पर्यटकों के मनोरंजन के पात्र होते हैं। इनके लिए अपनी नृत्य कला प्रस्तुत करेंगे और आख़िर में उनके फैलाए कचरे को समेटेंगे। छत्तीसगढ़ के सभी आदिवासी बहुल इलाकों में ऐसे कई एथनिक रिजॉर्ट बनाए गए हैं जिसमें आदिवासियों के हिस्से वहां चौकीदारी तो दूर की बात, सिर्फ साफ़-सफ़ाई ही उनके हिस्से आती है। उन्हें स्वामित्व का अधिकार कभी नहीं दिया जाता। कई ऐसे रिजॉर्ट हैं जहां ओनर से लेकर गार्ड तक किसी बाहरी को ही बनाया गया है।

एक दशक पहले तक अबूझमाड़ में किसी भी व्यक्ति को अपने साथ कैमरा जैसे उपकरण ले जाने की अनुमति नहीं थी लेकिन जब सरकार ने इन इलाकों का खनिज संपदा निकालने के लिए सर्वे कराया तब यहां बाहरी लोगों का अतिक्रमण बढ़ने लगा। यहां घूमने वालों में से ज्यादातर लोग यहां के प्राकृतिक दृश्यों को निहारने के बजाय हर क्षण आदिवासी स्त्री, बच्चों और उनके रोज़मर्रा के कामों को कैमरे में कैद करने को ललायित रहते हैं। वे उनकी निजता का सम्मान कभी नहीं करते, उनके असहज होने पर भी नहीं। क्या गांव-देहात के लोगों के पास निजता का अधिकार नहीं होता? इन्हें नहीं पता, लेकिन यहां आने वाले शिक्षित पर्यटकों को तो यह पता होना चाहिए न। फिर ये लोग इन्हीं तस्वीरों को ऊंचे दामों में बेच देते हैं। बिना इजाज़त के खींची गई अपनी ही तस्वीरों पर आदिवासी हक नहीं जता सकते न।

ऐसी जगहों पर घूमने वाले पर्यटक भी दो तरह के होते हैं। पहले वे जो शहरों में भीड़भाड़ भरी जिंदगी से राहत पाने कुछ समय प्रकृति के बीच व्यतीत करना चाहते हैं और उस जगह और परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करते हैं। जैसा मिलता है वैसा खाते हैं। वहां की संस्कृति को महसूस करते हैं जीते हैं लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। दूसरे वे जो आदिवासी ईलाकों में जाकर भी शहर वाली सुविधाएं चाहते हैं। इसीलिए सरकार और पर्यटन विभाग इन्हीं लोगों को मद्देनजर रखते हुए ऐसे क्षेत्रों का विकास करती है। इन्हीं के हिसाब से संसाधन तैयार किए जाते हैं और घने जंगलों के बीच भी वेस्टर्न टॉयलेट और एसी लगाया जाता है और इन्हीं के हिसाब से खान-पान का प्रबंध किया जाता है।

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जब भी कोई विदेशी या देसी मेहमान आए एयरपोर्ट से लेकर रेस्ट हाउस तक उनके स्वागत के लिए आदिवासी नाचते नज़र आएंगे। आदिवासी कोई प्रदर्शनी की चीज नहीं है जिसे जब चाहे जहां चाहे अपने हिसाब से नाच-गाना करवा लो।

समुदाय के कई लोगों ने सालों से बस्तर की लोक परंपराओं और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए आवाज़ उठाई। इसे बचाने की हर संभव कोशिश करते हुए अपनी आधी ज़िंदगी इसमें लगा दी लेकिन फिर भी उन्हें सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती। बेशक ये किसी सहायता या पुरस्कार के मोहताज नहीं हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में बसे मैदानी इलाके में रहने वाले लोग ‘बस्तर बैंड’ जैसी टीम का गठन करते हैं। सामाजिक व्यवस्था में ऊंचे दर्जे से आने के कारण, निम्न जाति का तथाकथित उद्धार करने पर इन लोगों को सरकार द्वारा कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाए जाते हैं। देखा जाए तो इसमें उद्धार किसका हो रहा? आप जिस समुदाय के नाम पर देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करते हैं, असल में उनके जीवन में सामाजिक स्तर पर कितना परिवर्तन कर पाते हैं इसका मूल्यांकन होना चाहिए।

सरकार ने आदिवासी इलाकों में पर्यटन को विकसित करने के लिए एससी एसटी बच्चों के लिए होटल मैनेजमेंट का कोर्स निशुल्क कराने की पहल की। मैं खुद भी इस कोर्स का हिस्सा रही हूं। हर साल एक स्टूडेंट के पीछे लगभग डेढ़ लाख से भी ज्यादा खर्च होते हैं। ऐसे कोर्स किसी बड़े प्राइवेट संस्थान में कराया जाता है जहां शिक्षक से लेकर उस संस्थान में पढ़ने वाले बच्चे तक इन बच्चों से घृणा करते हैं। वे अपनी जातिवादी मानसिकता और अमीरी के दंभ में इन्हें खुद से कम समझते हैं। यहां पर भी हर बात में आरक्षण को ही दोष दिया जाता है। होटल प्रबंधन में सबसे पहले बाहरी खूबसूरती को देखा जाता है। यहां पढ़नेवाले अधिकतर लोगों के अनुसार एससी-एसटी बच्चों में वह बात नहीं होती है।

इस कोर्स में चार डिपार्टमेंट होते हैं लेकिन ज्यादातर इन बच्चों के हिस्से हाउसकीपिंग आती है या इन्हें फूड प्रोडक्शन डिपार्टमेंट में गंदे बर्तन साफ करने के लिए ही रखा जाता है। आप समझिए ऐसी मानसिकता को पहले हमारे पूर्वजों ने इनके घरों में यही सब काम किया। अब ये बच्चे कर रहे हैं, बस तरीका बदल गया है। उनका कहना है कि आदिवासी इलाकों से आनेवाले बच्चे हमारे साथ फाइव स्टार होटल में सम्मानजनक काम कर सकते हैं। हालांकि हकीकत इससे कोसों दूर है। मौजूदा पीढ़ी अब घरों में नहीं, किसी फाइव स्टार होटल में उनके लिए यही सब कर रही है जो कभी हमारे पूर्वजों ने किया। बस जगह बदल चुके हैं, हालात और परिस्थिति अब भी वही हैं। आरटीआई लगाकर पूछा जाना चाहिए कि इतने सालों में अब तक सरकार ने देश-प्रदेश में कितने बड़े होटलों और टूरिज्म डिपार्टमेंट में इन बच्चों का प्लेसमेंट करवाया है। अब तक ये बच्चे किन बड़े पदों तक पहुंच पाए हैं या ये बच्चे लगातार यही काम करते रहेंगे।

बस्तर घूमने वालों की संख्या हज़ारों में है लेकिन यहां के लोगों के हक, अधिकार की बात करने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। सिर्फ़ सरकार और  व्यवस्था ने ही नहीं इस तथाकथित सभ्य समाज ने भी आदिवासियों को निचले दर्जे पर जगह दी, उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया और आदिवासियों का हर तरह से शोषण किया।

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कई बड़े बिजनेस स्कूलों से एमबीए करके आए हुए लोगों ने किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करना छोड़, बस्तर में आदिवासियों की जीवनशैली और जल-जंगल को अपना बिजनेस स्टार्टअप बना लिया है। किसी अच्छे संस्थान में पढ़े होने के कारण उन्हें बिजनेस के अच्छे कौशल आते हैं। इस तरह वे कई अवार्ड पाते हैं, टेड टॉक स्पीकर बन जाते हैं। अधिकतर यह देखने को मिल रहा है कि समुदाय के नाम पर काम करके खुद के जीवन में कई बदलाव ले आते हैं, देश-दुनिया में नाम कमाते हैं।लेकिन जिनके नाम पर काम करके पैसे और नाम कमा रहे हैं, उनके जीवन में आर्थिक समृद्धि लाने में ये लोग नाकामयाब रहते हैं। ये न यहां के संघर्षों की आवाज़ उठाते हैं ना ही सरकार से सवाल करते हैं। इनके लिए जब तक अंतिम आदिवासी जिंदा है, तब तक मुनाफे में इनका बाजार चलता रहे।

बस्तर घूमने वालों की संख्या हज़ारों में है लेकिन यहां के लोगों के हक, अधिकार की बात करने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। सिर्फ़ सरकार और व्यवस्था ने ही नहीं इस तथाकथित सभ्य समाज ने भी आदिवासियों को निचले दर्जे पर जगह दी, उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया और आदिवासियों का हर तरह से शोषण किया। किसी भी आदिवासी इलाकों में टूरिज्म के प्रचार का उद्देश्य ‘प्रकृति की ओर लौटो’ होना चाहिए। क्या इसका मतलब कपड़े पहनना छोड़ना या अपनी ज़रूरतों को छोड़ना है? नहीं! इसका यह मतलब कतई नहीं है। यह एक विचार है जो आदिवासी जीवन दर्शन का मूल सिद्धांत है। मनुष्य केंद्रित विकास की जगह जैवविविधता और भौगोलिक विविधता को हानि पहुंचाए बिना आगे बढ़ना। नदियां, पहाड़, जंगलों को बचाना। पूंजीवाद की बेलगाम दौड़ से बचने, जीवन में सामूहिक और सहअस्तित्व को अपनाना और अपनी सरलता, सहज़ता को बचाए रखना। लेकिन इन इलाकों में आदिवासी संस्कृति पर बहुत तेजी से हमले हो रहे हैं। बस्तर में ही की कई सारी बोलियां और सांस्कृतिक पहचान का विलोपन हुआ है। बस्तर लोगों के लिए जीता-जागता म्यूजियम बन गया है। लोगों को आदिवासियों में जीवन नज़र नहीं आता। वह बस यहां अपने आदिम सभ्यता की निशानी बन चुके हैं। यहां पर आओ, चार तस्वीरें खिंचवाओ और बाहर जाकर दिखाओ कि यहां किस तरह आज भी असभ्य लोग रहते हैं।

इस राज्य में एक परंपरा सी बन गई है, जब भी कोई विदेशी या देसी मेहमान आए एयरपोर्ट से लेकर रेस्ट हाउस तक उनके स्वागत के लिए आदिवासी नाचते नज़र आएंगे। आदिवासी कोई प्रदर्शनी की चीज नहीं है जिसे जब चाहे जहां चाहे अपने हिसाब से नाच-गाना करवा लो। उनके इलाकों में जाकर वहां गंदगी पसार कर उन्हें सभ्य नागरिक बनने की सीख दे आओ। आप पहले पर्यटन विकास का पैमाना तय कीजिए क्योंकि आपका विकास किसी के लिए अब तक विनाश का कारण बनता आ रहा है। घने जंगल के बीच में वेस्टर्न टॉयलेट और एयर कंडीशनर लगाकर पर्यटन को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता बल्कि इससे आदिवासियों की जल जंगल जमीन को और पर्यावरण के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ा जा रहा है। बहरहाल, ऐसी योजनाएं कई सवाल भी खड़े करती हैं। यह पर्यटन किसके लिए है? यहां फैले कचरे का उचित प्रबंधन किस तरह किया जाएगा? क्या सभी स्थानीय आदिवासी समुदाय इसे पसंद करते हैं? क्या रिजॉर्ट चलाने की ज़िम्मेदारी इन्हें मिलती हैं? क्या उनकी संस्कृति पर यह बाहरी संस्कृति का हमला नहीं है? वक्त है आदिवासी युवा अपने अतीत और भविष्य को सुरक्षित रखते हुए वैज्ञानिक, प्रगतिशील, आर्थिक और सामाजिक सोच के आधार पर आगे बढ़ें। अपने जंगलों की रक्षा के साथ अपने आदिम सभ्यता को भी संरक्षित करें। साथ ही विकास और टूरिज़्म के अर्थ को एक नई परिभाषा की आवश्यकता है। स्थानीय परिस्थिति तंत्र और आदिवासियों के मूल भावनाओं को प्रभावित किए बिना पर्यटन ही सही मायनों में आदर्श ईको टूरिज्म कहलाएगा।

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तस्वीर साभार: Outlook

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