समाजपर्यावरण ग्रामीण इलाकों में कचरा-प्रबंधन की समस्या पर बात करना ज़रूरी है

ग्रामीण इलाकों में कचरा-प्रबंधन की समस्या पर बात करना ज़रूरी है

भारत के ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 0.3 से 0.4 मिलियन मीट्रिक टन कचरा निकलता है, जिसके निस्‍तारण की कोई खास योजना नहीं है।

उत्तर भारत में इन दिनों बारिश का मौसम है। वैसे तो बारिश सुनते ही हमारे दिल-दिमाग़ में प्रकृति की सुंदर तस्वीर आने लगती है, क्योंकि हमारी किताबों, फ़िल्मों, गानों और हर सांस्कृतिक चित्रण में इसे सुंदर और सुहावना दिखाया जाता है। लेकिन जब हम अपने ग्रामीण क्षेत्रों की बात करते हैं तो यह तस्वीर वैसी बिल्कुल भी नहीं जैसा किताबों में दिखाया जाता है। बारिश के दौरान हमारे गांव के तलाब, पोखर और ख़ाली पड़े खेत कचरे से भर जाते हैं। दुर्भाग्यवश पानी भरने के कारण इन जगहों पर फ़ेंके गए कचरे बारिश के समय विकराल रूप में होते हैं। ढ़ेरों बीमारियों और संक्रमण के कारक इस गंदगी के ढेर को देखना तो मानो अब गांव वालों की आदत हो गई है। मैंने बचपन से ही अपने देईपुर गांव में कचरे की समस्या को देखा है। किताबों में बारिश का जो दृश्य दिखाया जाता है वैसा दृश्य कभी भी मैंने अपने गांव और आसपास के गांव में नहीं देखा। इतना ही नहीं, बारिश के दौरान जैसे-जैसे कचरों का ढेर पानी के साथ ऊपर आने लगता है, वैसे-वैसे डेंगू, मलेरिया और हैज़ा जैसी कई बीमारियों के केस भी बढ़ने लग जाते हैं। स्थानीय अस्पतालों में मरीज़ों की कतारें लंबी होने लगती हैं।

शहरों में बदलते वक्त के साथ ‘गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल’ के गाने के साथ कचरा प्रबंधन की पहल द्वार-द्वार पहुंचने लगी है लेकिन अफ़सोस समय के साथ बदलती सरकारें और बदलते ग्राम प्रतिनिधि के साथ-साथ हमारे गांव में कचरा-प्रबंधन की समस्या हमेशा की तरह और जटिल होती गई है। जब मैंने गांव में कचरे की समस्या के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पाया कि ये कचरे की समस्या सिर्फ़ मेरे गांव की नहीं बल्कि देश के क़रीब 6 लाख गांवों की समस्‍या है।

साल 2016 में आई ‘सॉलिड वेस्‍ट मैनेजमेंट इन रूरल एरिया’ रिपोर्ट नाम की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के ग्रामीण घरों में से निकलने वाला घरेलू कचरा लगातार बढ़ता जा रहा है और दिन-प्रतिदिन यह समस्या और गंभीर होती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 0.3 से 0.4 मिलियन मीट्रिक टन कचरा निकलता है, जिसके निस्‍तारण की कोई खास योजना नहीं है। इसके साथ ही, रिपोर्ट में बताया गया है कि 0.4 मिलियन मीट्रिक टन यानि करीब 40 लाख कुंतल कचरा हर दिन ग्रामीण भारत पैदा कर रहा है। ऐसे में ग्रामीण भारत से हर दिन करीब-करीब 40 हजार ट्रक कचरा निकल रहा है। ग़ौरतलब है कि गांव के इस कूड़े के प्रबंधन की जिम्‍मेदारी सीधे-सीधे ग्राम पंचायतों पर होती है, लेकिन यह पंचायतें इस काम में नाकाम साबित होती दिख रही हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में कचरा-प्रबंधन को लेकर नीतिगत अभाव की वजह से गंदगी का स्तर बढ़ने लगा है।

भारत में 2.39 लाख ग्राम पंचायतें हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि यह नाकामी कितनी बड़ी सामूहिक नाकामी है। अगर मैं अपने गांव की बात करूं तो हमारे गांव में कूड़े के प्रबंधन के लिए आज तक कोई काम नहीं किया गया। हर परिवार अपने आसपास खेतों या तलाबों में अपने घर का कचरा फेंकता है। इन कचरों का हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारे पर्यावरण पर भी लगातार बुरा असर पड़ रहा है। मेरे गांव के कई खेत ऐसे है जहां कई सालों से कचरा फेंका जा रहा था और जब उन खेतों में दोबारा खेती करने की कोशिश की गई तो वहां फसल नहीं हो पाई। इसकी वजह था प्लास्टिक, सूखे और गीले कचरों से निकलने वाले रसायन जो सीधे खेतों की उर्वरकता शक्ति को प्रभावित कर रहे थे। सालों साल फेकें गए इन कचरों को मानो इन खेतों को पूरी तरह बंजर बना दिया है।

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ग्रामीण क्षेत्रों में कचरा-प्रबंधन को लेकर नीतिगत अभाव की वजह से गंदगी का स्तर बढ़ने लगा है। सरकार की तरफ़ से शौचालय-आवास जैसी अधिकतर योजनाएं ज़मीन तक सीमित मात्रा में पहुंचती हैं, लेकिन इन योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में हुए काम हमेशा लोगों को जागरूक करने और ज़नचेतना लाने में मदद करते हैं। जैसे घर-घर शौचालय की योजना के तहत जब गांव के कुछ घरों में शौचालय बने तो लोग ख़ुद-ब-ख़ुद खुले में शौच जाने में संकोच करने लगे। इसका नतीजा ये हुआ कि गांव में अब कई ऐसे परिवार भी हैं जो अब खुद से शौचालय बनवा रहे हैं। लेकिन अफ़सोस कचरे के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं हो पाया। चूंकि सरकारी और पंचायत स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों के प्रबंधन को लेकर कोई काम नहीं किया गया, इसलिए लोगों में साफ़-सफ़ाई को लेकर जागरूकता का अभाव भी देखने को मिलता है। नयी सरकार की सफ़ाई योजनाओं के तहत अब पंचायत भवन के आसपास हरे रंग के कचरे डालने वाले लोहे के डब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो सिर्फ़ शुरू से अपनी जगह पर जस के तस पड़े हुए हैं क्योंकि इन कचरों के डिब्बों को इस्तेमाल में लाने की चेतना अभी तक आमजन में आ ही नहीं पाई है।

कचरा प्रबंधन की समस्या को लेकर जब मैंने अपने देईपुर गांव की सुषमा (बदला हुआ नाम) भाभी से बात की तो उन्होंने बताया कि गांव के कुछ रास्ते तो ऐसे हैं जहां से बारिश के समय गुज़रना बहुत मुश्किल हो जाता है। बदबू और सड़े-गले कचरों से रास्ते में पांव रखने की जगह नहीं होती। साथ ही, पीरियड्स के दौरान हम लोगों को और भी ज़्यादा समस्या होती है, इस्तेमाल किए हुए पैड या कपड़े को फेंकने में। इस दौरान इस्तेमाल किए हुए पैड को फेंकने में बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है पर हम लोगों के पास इसके निस्तारण का कोई विकल्प ही नहीं होता है। इन गंदगियों की वजह से छोटे बच्चों में बारिश के मौसम में बीमारी का ख़तरा भी बढ़ने लगता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कचरा प्रबंधन की समस्या को नज़रंदाज़ करने की बजाय इसे विकास योजनाओं में शामिल करने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है जब तक गांव से कचरे की समस्या दूर नहीं होगी, गांव बीमारियों और स्वच्छता से जुड़े मुद्दों से जूझता रहेगा और ऐसे में विकास के पथ बढ़ना तो दूर इसपर टिकना भी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि मौजूदा सरकार विकास के बड़े-बड़े सपनों की बुनियादी मुद्दों पर काम और विचार शुरू करें, नहीं तो जाने-अनजाने गांव और शहर के फ़ासले और ज़्यादा बढ़ने लगेंगें।  

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तस्वीर साभार : Times of India

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