इतिहास जयंति विशेष : अंग्रेज़ी हुकूमत पर बंदूक चलाने वाली क्रांतिकारी बीना दास| #IndianWomenInHistory

जयंति विशेष : अंग्रेज़ी हुकूमत पर बंदूक चलाने वाली क्रांतिकारी बीना दास| #IndianWomenInHistory

गुलामी की जड़ों को खत्म करने का सपना रखने वाली नौजवान बीना दास वह क्रांतिकारी महिला थीं, जिनकी हिम्मत और जोश को देखकर अंग्रेजी शासन भी हैरान हो गया था।

अंग्रेज़ों की गुलामी को जड़ से उखाड़ने के लिए उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन में हर कोई अपनी भागीदारी दे रहा था ताकि इस देश को जल्द से जल्द ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराया जा सके। बुर्जु़ग, नौजवान, आदमी, औरत हर किसी के सीने में देश को आज़ाद करवाने की तमन्ना थी। सब अपना योगदान देकर देश को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने में जुटे हुए थे। आज़ादी के इतिहास के पन्ने पटलते हुए एक नाम सामने आता है बीना दास का। गुलामी की जड़ों को खत्म करने का सपना रखने वाली नौजवान बीना दास वह क्रांतिकारी महिला थीं, जिनकी हिम्मत और जोश को देखकर अंग्रेजी शासन भी हैरान हो गया था। साथ ही सामाजिक रूढ़िवाद को खत्म करते हुए उन्होंने न केवल अपनी ताल़ीम पूरी की बल्कि भरी सभा में अंग्रेज़ अफसर पर हथियार चलाकर उनको संदेश दिया की हम हर कीमत पर आजादी हासिल करके ही रहेंगे।

मात्र 21 साल की उम्र में बीना दास ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में तत्कालीन बंगाल गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर गोली चला दी थी। साल 1932 में वह अपनी स्नातक की डिग्री लेने के लिए समारोह में शामिल हुई थीं। इस घटना के पहले से ही वह अदृश्य रूप से अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए काम कर रही थीं। बीना दास उन महिला क्रांतिकारियों में से हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन के हर मोर्चे में बंगाल में सबसे आगे रहती थीं।  

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शुरुआती जीवन

आज ही के दिन 24 अगस्त, 1911 में बीना का जन्म कृष्णानगर बंगाल के एक समाजावादी सोच रखने वाले परिवार में हुआ था। इनके पिता बेनी माधव दास एक जाने-माने विद्वान और ब्रह्मसमाजी अध्यापक थे। इनकी माता सरला देवी भी एक समाज सेविका थीं। साल 1900 के दौरान इनकी माता कलकत्ता में ‘पुण्याश्रम’ के नाम से एक छात्रावास चलाती थीं। क्रांति में योगदान देने के लिए इनकी माता ने इस जगह का उपयोग गोला-बारूद और हथियारों को छिपाने के लिए भी किया। इस छात्रावास में रहने वाले बहुत से लोग क्रांतिकारी भी थे जो बहुत से आंदोलन करने वाले समूहों से जुड़े हुए थे। इनके माता-पिता दोनों ही बच्चों की शिक्षा को बहुत महत्व देते थे। अपनी बेटियों की शिक्षा पर उनका विशेष ध्यान था। सामाजिक मानवीय मूल्यों से बने घर के माहौल में बढ़ी होती बीना दास बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव की थीं। इनके घर का माहौल कई सामाजिक बुराइयों को जड़ को खत्म करने वाला था। इनके माता-पिता का स्वतंत्रता आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देते रहते थे। उनका पूरा ध्यान समाज में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करना और महिला अधिकारों पर था। लेकिन बहुत छोटी उम्र में इनके माता-पिता ने ही इनके मन के भीरत क्रांति के बीज बो दिए थे। बहन कमला दास जो कि खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, इन्हें बहुत प्रोत्साहित करती थीं।

गुलामी की जड़ों को खत्म करने का सपना रखने वाली नौजवान बीना दास वह क्रांतिकारी महिला थीं, जिनकी हिम्मत और जोश को देखकर अंग्रेजी शासन भी हैरान हो गया था।

स्कूल शिक्षा के दौरान बीना दास ने ‘छात्री संघ’ जैसे संगठन से जुड़ने के बाद अपने राजनैतिक विचारों को और अधिक स्पष्ट किया। इस संघ ने बीना दास जैसे कई युवतियों और महिलाओं के क्रांतिकारी बनने के सफर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संगठन में महिलाओं को लाठी चलाना, तलवार बाज़ी से लेकर साइकिल और मोटर वाहन चलाने तक प्रशिक्षण दिया जाता था। इनके पिता बेनी माधव दास ने एक शिक्षक के रूप में बहुत से छात्रों को भारत की आजादी के लिए प्रेरित किया, जिनमें से एक सबसे उल्लेखनीय नेता जी सुभाष चंद्र बोस थे। इसी कारण सुभाष चंद्र बोस का इनके घर आना-जाना लगा रहता था। इनके पिता नेता जी सुभाष चंद्र बोस के गुरु भी थे। घर पर ही इनकी मुलाकात सुभाष चंद्र बोस से हुई थी।

सुभाष चंद्र बोस ने बीना दास के जीवन में एक शिक्षक की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। कलकत्ता के बेथ्यून कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद वहां भी उनके भीतर आंदोलनों को लेकर ऊर्जा भर गई। पुस्तकालय में बहुत सी किताबों और क्रांतिकारी पत्र से परिचय होने के बाद इनके अंदर क्रांति को लेकर और उत्साह बढ़ा। इसके बाद दास के देश को आज़ादी दिलाने वाले सपने को और मजबूत पंख लग गए। अपने साथ पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ उन्होंने एक संगठन बनाया। साल 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ इसी विद्यार्थी संगठन ने अपना पहला प्रदर्शन किया। जिसके लिए इन्हें कॉलेज प्रशासन की ओर से बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।

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अंग्रेज़ गवर्नर पर जब दागी गोली

21 साल की उम्र में बीना दास ने वह कर दिखाया जिससे इनकी बहादुरी और आज़ादी के लिए जुनून से सब परिचित हुए। 6 फरवरी 1932 में बीना दास ने पांच गोलियों से भरी पिस्तौल अपनी स्कर्ट में छिपाते हुए अपने कॉलेज के दीक्षांत समारोह में शामिल हुई। उन्होंने खुद से नेतृत्व संभालते हुए बंगाल गवर्नर स्टैनली जैक्सन की हत्या की योजना बनाई। हालांकि इनका यह प्रयास असफल रहा।

गवर्नर स्टैनली के भाषण देने के समय बीना बहाने से उनके करीब पहुंची और सबको चकमा देते हुए सामने से उन पर लगातार दो गोली दाग दी। हालांकि इनका यह प्रयास असफल रहा। वहां मौजूद लोगों ने बीना दास को पकड़ लिया। इसके बावजूद कैद में होते हुए भी बीना ने बची तीन गोलियां फिर गर्वनर पर चला दी। उनमें से एक गोली गर्वनर स्टेनली के कान को छूते हुए गुज़री। इस घटना में बाकी कोई अन्य व्यक्ति हताहत नहीं हुआ था। बीना दास के द्वारा हुई यह घटना एकदम सुर्खियों में छा गई। 21 साल की नौजवान क्रांतिकारी ने दागी गर्वनर पर गोली। इस घटना के लिए बीना दास को दोषी करार देते हुए नौ साल के कठोर कारावास की सजा दी गई। मुकदमे के दौरान उन पर बहुत दबाव बनाया गया लेकिन वह अडिग रही और उन्होंने अपने संगठन की कोई भी जानकारी नहीं दी। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली इस नौजवान क्रांतिकारी के हौसलों को देखकर सब हैरत में थे। अदालत में इस घटना की जिम्मेदारी लेते हुए वह बिल्कुल भी नहीं घबराई थी। वह लगातार अंग्रेज़ों के दमन के खिलाफ बोल रही थीं।

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सज़ा के नौ साल पूरा करने के बाद बीना फिर दोगुने हौसले से भारतीय स्वतंत्रता के अभियान में शामिल हो गईं। भारत के आज़ाद होने तक वह इस अभियान में पूरी ताकत से लगी रहीं। जेल से छुटने के बाद यह कांग्रेस पार्टी से जुड़ीं। इन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में हिस्सा लिया। साल 1942 से 1945 तक इन्हें दोबार जेल में डाल दिया गया। जेल में भी इन्होंने कैदियों के हक के लिए संघर्ष किया। साल 1947 से 1951 तक पश्चिम बंगाल विधानसभा की सदस्य रही। साल 1947 में इनका विवाह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले आंदोलनकारी जतीश चंद्र भौमिक से हुआ।1960 में इनके सामाजिक कार्य के लिए इन्हें ‘पद्म श्री’ दिया गया।

गुमनामी में हुई विदाई

पति की मृत्यु के बाद यह सार्वजनिक जीवन से दूरी बनाते हुए यह श्रषिकेश चली गईं। इन्होंने सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन लेने से मना करते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चुना। वहां पर यह एक शिक्षिका के तौर पर काम किया करती थीं। 26 दिसंबर 1986 में बीना दास की मौत हो गयी थी। मौत के बहुत दिनों बाद इनकी लाश की पहचान बीना दास के रूप में हुई थी। भले ही बीना दास गुमनामी में इस दुनिया से गईं लेकिन भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में उनका योगदान अविस्मरणीय है जो हमेशा याद रखा जाएगा।

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