इंटरसेक्शनलजाति बामा : एक नारीवादी लेखिका जिनकी रचनाओं के बारे में जानना ज़रूरी है

बामा : एक नारीवादी लेखिका जिनकी रचनाओं के बारे में जानना ज़रूरी है

पेरियार और बाबा साहब आबंडेकर को आदर्श मानने वाली बामा अपने लेखों से ईसाई और हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर प्रकाश डालती हैं। जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को वह राजनीतिक विषय मानती हैं।

बीते दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए अंग्रेज़ी आनर्स के सिलेबस से दो दलित नारीवादी लेखिकाओं की रचनाएं बाहर कर दी गईं। दलित लेखिकाओं बामा की रचना ‘संगति’ और सुकीरथरानी की रचनाएं ‘माय बॉडी’ और केमारू (Kaimaru) को सिलेबस से निकाल दिया गया। साथ ही लेखिका महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ भी सिलेबस से हटा दी गई है। हटाई गई कहानियों के स्थान पर सवर्ण लेखिका रमाबाई की कहानियां सिलेबस में शामिल की गई हैं। इन दलित महिलाओं और उनकी रचनाओं और संघर्षों के बारे में जानना बेहद ज़रूरी है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के इस फ़ैसले के खिलाफ़ करीब 1,150 संस्थानों और लोगों ने एक साझा बयान जारी कर इन लेखिकाओं के काम को दोबारा सिलेबस में शामिल करने की अपील भी की है। बयान जारी करनेवालों का मानना है कि ये रचनाएं भारत की भेदभावपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक असलियत से रूबरू करवाती हैं इसलिए ये विद्यार्थियों के लिए बहुत ज़रूरी हैं। चलिए आज हम अपने इस लेख में जानते हैं लेखिका बामा और उनकी कहानियों के महत्व के बारे में।

भारत में एक औरत होना काफी चुनौतियों को आमंत्रित करता है। इस पर भी हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं कि हमारे ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज में एक दलित महिला का जीवन कितना संघर्षमय होता होगा। बामा का जन्म साल 1958 में पुदुपत्ति, मद्रास के परैयार (Paraiyar) समुदाय के एक रोमन कैथोलिक परिवार में हुआ था। सदियों से बामा के पूर्वज सवर्णों के खेतों में मज़दूरी करते आए थे। उनके दादा ने हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाया पर फिर भी उनकी जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। जातिवादी समाज की चुनौतियों का सामना करते हुए बामा ने खूब पढ़ाई-लिखाई की। खुद पढ़-लिखकर बेहद ग़रीब लड़कियों को शिक्षित करने में अपना योगदान दिया। इसके बाद वह प्रभु की सेवा में लीन हो जाना चाहती थीं इसलिए उन्होंने बतौर नन अपने जीवन के सात साल गुज़ारे पर यहां भी दलित कैथोलिक लोगों को अलग से दी जाने वाली ट्रेनिंग से वह हैरान हो गईं। आगे चलकर उन्होंने एक शिक्षक के रूप में कैथोलिक क्रिस्चियन स्कूल में दाखिला लिया। उन्होंने देखा कि कैसे वहां भी दलित छात्रों के प्रति जातिवादी और भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है।

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इस भेदभाव से तंग आकर साल 1992 में उन्होंने एक किताब लिखी- ‘करूक्कु’ (Karukku), वह भी तमिल की एक उपभाषा (dialect) में। उनकी आत्मकथा दलित लेखन के क्षेत्र में तमिल भाषा में लिखी गई अपनी तरह की पहली आत्मकथा है। इसमें उन्होंने अपने बचपन से जुड़े कठिन अनुभव बयान किए हैं जो कि उनके समुदाय के लोगों को झेलने पड़ते हैं। उनकी इस रचना को साल 2000 में क्रॉसवर्ड बुक अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। साथ ही इस किताब को अलग-अलग पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाया गया।

बामा की आत्मकथा Karukku, तस्वीर साभार: Goodreads

करूक्कु में वह लिखती हैं, “हम में से जो सो रहे हैं उन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए और अपने इर्द-गिर्द देखना चाहिए। हमें अपनी ग़ुलामी का अन्याय यह सोचकर सहन नहीं करना चाहिए कि यही हमारी किस्मत है, जैसे कि हमारी कोई सच्ची भावना ही नहीं है। हमें बदलाव के लिए खड़ा होना चाहिए।” जैसा कि स्वाभाविक था, किताब की सवर्णों द्वारा खूब आलोचना की गई। किताब पर कई सवाल उठाए गए। कोई कहता कि पढ़ी-लिखी महिला ने उपभाषा का ही प्रयोग क्यों किया, तो किसी को इस जातिवादी समाज के कोरे सच लिखे जाने से दिक्कत थी। बामा को अपनी आत्मकथा लिखने के बाद अपने ही गांव में सात महीनों तक प्रवेश करने की इजाज़त नहीं मिली।

पेरियार और बाबा साहब आबंडेकर को आदर्श मानने वाली बामा अपने लेखों से ईसाई और हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर प्रकाश डालती हैं। जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को वह राजनीतिक विषय मानती हैं।

बामा के लिए ऐसा व्यवहार कोई नया अनुभव नहीं था। उन्हें इन बातों और हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ा बल्कि उनका जोश और बढ़ता गया। ज्यों-ज्यों उनकी किताब दूर-दूर तक पहुंचती गई उनकी प्रसिद्धि बढ़ी, उन्हें पुरस्कारों से नवाज़ा गया। उनकी किताब का अनुवाद भी किया गया। इससे बामा को और लिखने का हौसला मिला। उन्होंने दो और उपन्यास लिखे- ‘संगति’ (Sangati) और ‘कुसुमबुकरम’ (Kusumbukkaran)। ये किताबें भी तमिल भाषा में ही लिखी गईं। बामा ने कई कहानियां भी लिखीं जिनमें उन्होंने नारीवाद को अलग-अलग दृष्टिकोण से दिखाया। उनकी एक कहानी है ‘कोन्नू ताई’ जो कि काफी विवाद में घिरी रही। इंडियन एक्सप्रेस से बीतचीत के दौरान वह बताती हैं कि कहानी की मुख्य स्त्री पात्र अपने शराबी पति को छोड़कर अपनी मां के पास चली जाती है। उसकी मां उसे समझाती है, “अगर तुम्हारा पति दूसरी शादी कर लेता है तो तुम्हारी ज़िंदगी ख़त्म हो जाएगी।” स्त्री दृढ़ता से जवाब देती है, “नहीं, मेरी ज़िंदगी तब शुरू होगी।”

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बचपन में बामा एक आदमी से शादी करने और ख़ुद की एक बेटी होने के सपने देखती थीं पर जल्द ही उन्होंने जाना कि आज की विवाह और परिवार की संस्था महिलाओं के हित में नहीं है। समाज चाहे जो भी सोचे या कहे वह किसी के लिए अपने वजूद और अपनी आज़ादी से समझौता नहीं कर सकतीं। पेरियार और बाबा साहब आबंडेकर को आदर्श मानने वाली बामा अपने लेखों से ईसाई और हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर प्रकाश डालती हैं। जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को वह राजनीतिक विषय मानती हैं। वह लिखती हैं क्योंकि लिखना उनका धर्म है और कर्तव्य भी। अपने और अपने समुदाय के साथ हुए अन्याय को वह सब के साथ साझा करना चाहती हैं ताकि इस जातिवादी समाज का चेहरा उजागर हो।

दलित लेखिकाओं की कहानियों को हटाए जाने से बामा उदास से अधिक गुस्सा हैं। वेबसाइट मातृभूमि से बात करते हुए वह कहती हैं कि अगर हटाना भी था तो उनके बदले अन्य दलित लेखकों की ही कहानी सिलेबस में शामिल करनी चाहिए थी। साफ रूप से यह एक एकतरफा और राजनीतिक मुद्दा है। यह दलित आवाज़ों को चुप कराने की एक पहल है। द हिंदू से बातचीत के दौरान वह कहती हैं, “बीते दो हज़ार सालों से दलित-बहुजनों को बोलने नहीं दिया गया, हमारा इतिहास नहीं लिखा गया। सरकार हमारी आवाज़ों को दबाने की कोशिश कर रही है पर हम चीखेंगे। इस देश का युवा समझ चुका है कि हो क्या रहा है। हम दुखी होने की बजाय गुस्सा हैं। यह गुस्सा हमारे काम में दिखेगा आनेवाले वक्त में।”

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तस्वीर साभार : Indian Express

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