इंटरसेक्शनलजेंडर शादीशुदा महिला की तुलना में अविवाहित लड़की के संघर्ष क्या वाक़ई कम हैं?

शादीशुदा महिला की तुलना में अविवाहित लड़की के संघर्ष क्या वाक़ई कम हैं?

उम्र और वैवाहिक स्थिति के आधार पर महिलाओं को दो अलग-अलग ख़ेमे में बांट दिया जाता है जबकि हिंसा, शोषण, लैंगिक भेदभाव के बस रूप बदलते हैं लेकिन इनका सामना विवाहित और अविवाहित दोंनो ही करती हैं।

“तुम लड़की हो। तुम्हारे ऊपर कौन-सी घर परिवार की ज़िम्मेदारी है? शादी के बाद तुम्हें ज़िम्मेदारी का मतलब समझ आएगा। लड़कियों को कौन-सी दिक़्क़त है, वे जो चाहे करें।” वाक़ई क्या अपने समाज में लड़कियां इतनी आज़ाद हैं? उन पर किसी भी तरह की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती? अक्सर लड़कियों को अपने कार्यस्थल, घर और आसपास में ऐसी कई बातें सुनने को मिलती हैं। ज़िम्मेदारी, हिंसा और दबाव के मायने तो जैसे उनके लिए कुछ होते ही नहीं। मैं ख़ुद भी अपनी संस्था में काम करने वाली अन्य महिला साथियों के साथ ऐसी कई बातें सुनती हूं, जब वे मुझे अपने से अलग और बिना किसी संघर्ष वाली महिला का दर्जा देती हैं। यही नहीं कई बार कुछ प्रशिक्षण में भी लड़कियों के बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं। हमेशा एक शादीशुदा और अविवाहित लड़कियों के संघर्ष की तुलना की जाती है।

ये बातें कितनी सही हैं और कितनी नहीं इसका अंदाज़ा हम किसी आकंडों से क्या अपने आस-पास ही देख सकते हैं। गांव में आज भी अगर घर में अगर लड़की बड़ी और उसके छोटे भाई-बहन हैं तो अपने भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी बचपन से ही बड़ी बहनों यानी कि हम लड़कियों पर लाद दी जाती है। उन्हें खाना खिलाना, स्कूल भेजना और उनकी देखभाल करना सारी ज़िम्मेदारी लड़कियों के ऊपर होती हैं। फिर जैसे-जैसे हम लड़कियां बड़ी होती है हमें अक्षर ज्ञान हो न हो लेकिन घर के कामों का पूरा ज्ञान दिया जाता है। हम लोगों के गांव में आज भी आठ से नौ साल तक की लड़कियां घर के सारे काम सीख जाती हैं, या ये कहूं कि उन्हें ये काम सीख़ा दिया जाता है, ताकि वे अपनी मां के कामों में हाथ बंटा सकें। ये सब हम रोज़ अपने आसपास देखते हैं। गांव में ये सभी उदाहरण देखते हुए हम लोगों की सुबह और रात होती है।

उम्र और वैवाहिक स्थिति के आधार पर महिलाओं को दो अलग-अलग ख़ेमे में बांट दिया जाता है जबकि हिंसा, शोषण, लैंगिक भेदभाव के बस रूप बदलते हैं लेकिन इनका सामना विवाहित और अविवाहित दोंनो ही करती हैं।

और पढ़ें : शादी के रूढ़िवादी और पितृसत्तामक ढांचे को बढ़ावा देते मैट्रिमोनियल विज्ञापन

ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश तबकों में आज भी घर की ज़िम्मेदारी लड़कियों को उठानी होती है। छोटी उम्र से ही उन्हें घर के काम के लिए अभ्यस्त कर दिया जाता है। बाक़ी अब जब बात आज़ादी की आती है तो इसका अंदाज़ा भी हम स्कूल ड्रॉप आउट रेट में लड़कियों की बढ़ती संख्या से लगा सकते हैं। शिक्षा हर इंसान का बुनियादी अधिकार है। लेकिन इसके बावजूद लड़की कितनी पढ़ेगी, कहां पढ़ेगी और कब तक पढ़ेगी, ये पूरी कमान घर के पुरुषों के हाथों होती है। इसके बाद घर में कोई भी दिक़्क़त आए उसका सीधा प्रभाव लड़कियों की पढ़ाई पर पड़ता है। लेकिन कई बार जब लड़कियां ज़िद करती हैं, विरोध करती हैं तो उनके साथ अक्सर हिंसात्मक व्यवहार किया जाता है, जिसे कभी भी किसी पुलिस थाने में दर्ज़ नहीं किया जाता, क्योंकि लड़कियां ख़ुद भी अपने साथ होने वाली हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाती है।

शादी से पहले माता-पिता के घर में होने वाली हिंसा को अक्सर हम घरेलू हिंसा के दायरे में नहीं रखते हैं पर ये हमारे क़ानून में नहीं बल्कि हमारे दिमाग़ में मढ़ा जाता है, जिसे स्वीकारने और लागू करने के लिए हमारा समाज हमेशा दबाव बनाता है।

आपको लग रहा होगा कि मैं इतनी सारी बातें आपको क्यों बता रही हूं तो ऐसा इसलिए क्योंकि जब आप विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच तुलना करते हैं तो अक्सर ज़िम्मेदारी, दबाव और हिंसा के घेरे में सिर्फ़ विवाहित महिला को देखते हैं और अविवाहित महिलाओं के संघर्षों को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। हमारा यह सामान्य सा दिखने वाला व्यवहार अक्सर महिलाओं को आपस में बांटने में अहम भूमिका निभाता है। उम्र और वैवाहिक स्थिति के आधार पर महिलाओं को दो अलग-अलग ख़ेमे में बांट दिया जाता है जबकि हिंसा, शोषण, लैंगिक भेदभाव के बस रूप बदलते हैं लेकिन इनका सामना विवाहित और अविवाहित दोंनो ही करती हैं।

और पढ़ें : दहेज का नया रूप है ‘नौकरीपेशा बहु’

हमें ये भी समझना होगा कि आख़िर क्यों हम ज़िम्मेदारी और हिंसा का मतलब सिर्फ़ शादी को ही समझते हैं? जैसे शादी के बाद ही महिलाओं एक साथ हिंसा और उन पर ज़िम्मेदारी का दबाव होता है? सच्चाई हम सभी जानते हैं। ऐसा होता नहीं बल्कि हमें ऐसा समझाया जाता है। शादी से पहले माता-पिता के घर में होने वाली हिंसा को अक्सर हम घरेलू हिंसा के दायरे में नहीं रखते हैं पर ये हमारे क़ानून में नहीं बल्कि हमारे दिमाग में मढ़ा जाता है, जिसे स्वीकारने और लागू करने के लिए हमारा समाज हमेशा दबाव बनाता है।

कोटिला गांव में रहने वाली नैना (बदला हुआ नाम) के पिता शराबी और जुआरी हैं। हर दिन पत्नी के साथ मारपीट उनके घर का मानो नियम था। बेटी जब बड़ी होने लगी तो मां के साथ हिंसा होने पर विरोध करती और फिर धीरे-धीरे पिता का हाथ नैना पर भी उठने लगा। एक बार नैना की माँ ने पुलिस में रिपोर्ट की लेकिन कोई ख़ास कार्रवाई नहीं हुई और फिर जब नैना के साथ हिंसा का सिलसिला शुरू हुआ तो परिवार और आसपास के लोग नैना की शादी का दबाव बनाने लगे। वे कहते, “इसकी शादी करके हटा दो। न रहेगी और न इसका बाप मारपीट करेगा।” नतीजतन ग्यारहवीं की पढ़ाई बीच में छुड़वाकर नैना की शादी कर दी गई।

नैना के साथ उसके मायके में होने वाली हिंसा को क्या आप हिंसा नहीं मानेंगे और इस हिंसा से बचने के लिए पढ़ाई छुड़वाकर शादी करवाने को आप क्या कहेंगें? हमें समझना होगा कि बात विवाहित और अविवाहित की नहीं बल्कि बात ‘महिला’ की है। बेशक उनकी जाति, उम्र, वर्ग, धर्म, वैवाहिक प्रस्थिति और आर्थिक स्वरूप की वजह से उनकी हिंसा के रूप अलग और उनका स्तर अलग हो सकता है, लेकिन सिर्फ़ वैवाहिक आधार पर लड़कियों के संघर्षों और उनके साथ होने वाली हिंसा को सिरे से ख़ारिज करना कहीं से भी सही नहीं। ये कहीं न कहीं लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसा को सामान्य करता है।

और पढ़ें : शादी के बाद बच्चे का दबाव और महिला यौनिकता के सवाल


तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content