समाजपरिवार मॉडर्न ज़माने में महिलाओं पर ‘वंश बढ़ाने’ का क़ायम ज़िम्मा| नारीवादी चश्मा

मॉडर्न ज़माने में महिलाओं पर ‘वंश बढ़ाने’ का क़ायम ज़िम्मा| नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता, शादी, परिवार और वंश बढ़ाने की ज़िम्मेदारी के बीच सवाल ये है कि क्या वाक़ई हम महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रहे है?

मेघा (बदला हुआ नाम) की बच्ची का दूसरा जन्मदिन था। चूँकि बच्ची थी इसलिए जन्मदिन छोटे स्तर पर घर पर ही मनाना था। हाँ अगर बेटा होता तो परिवार के दूसरे बेटों की तरह होटल में जन्मदिन मनाया जाता। ये मेघा का नहीं बल्कि उसके परिवार वालों का फ़ैसला था। जन्मदिन में आए लगभग सभी रिश्तेदार मेघा को बच्ची के भाई के बारे में जल्दी सोचने के लिए दबाव बना रहे थे।

सोहा (बदला हुआ नाम) शादी के बाद जब प्रेग्नेंट हुई तो किसी कारणवश उसका मिसकैरेज हो गया। कोविड के दौरान उसके साथ ये सब हुआ जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़-सा गया। तीन महीने के बाद उसकी स्थिति में सुधार हुआ, लेकिन इस दौरान लगातार रिश्तेदार और ससुराल वालों का फ़ोन आता रहा, इस नसीहत के साथ कि ‘तुम अपने पर ध्यान दो। इलाज करवाओं।‘

मालिनी (बदला हुआ नाम) ने प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद अपनी संस्था की शुरुआत की और गाँव में बच्चों और महिलाओं के साथ काम को अपना करियर चुना। लेखन में सक्रिय मालिनी की अपने काम की वजह से शहर में काफ़ी अच्छी पहचान है और बेहतर कामों को लिए उसे कई अवार्ड भी मिल चुके है। बीते साल मालिनी ने अपने साथी के साथ शादी की। उसके बाद से जब भी मालिनी किसी भी कार्यक्रम के जाती है, उससे सिर्फ़ ‘बच्चे कब कर रही। गुड न्यूज़ कब दे रही।‘ जैसे सवाल ही होते है।

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मेघा, सोहा और मालिनी तीनों अलग-अलग जगहों, वर्गों और सामाजिक प्रस्थिति से ताल्लुक़ रखती है। लेकिन एक मायने में सभी के संघर्ष एक है – वंश बढ़ाने की ज़िम्मेदारी। पितृसत्तात्मक समाज में महिला की परिभाषा शुरू से ही ‘वंश बढ़ाने वाली मशीन’ के रूप में गढ़ी गयी है। पर हम जब ये बात कहते है तो अक्सर आसपास के आधे लोग मौजूदा समय में अलग-अलग क्षेत्रों में महिला-नेतृत्व और महिला भागीदारी के आँकड़ों के साथ कूद पड़ते है और कहते है कि ‘अब ज़माना बदल गया है।‘ लेकिन अब सवाल ये है कि हम अलग-अलग क्षेत्रों में नेतृत्व और भागीदारी करने वाली कितनी महिलाओं से ये पूछते है कि शादी के बाद उनके संघर्ष क्या है? क्या शादी जैसी संस्था से जुड़ने के बाद उन्हें अपने नेतृत्व को मज़बूत करने की सलाह दी जाती है या परिवार पर ध्यान देने की नसीहत? ज़वाब हम सभी जानते है।

पितृसत्ता, शादी, परिवार और वंश बढ़ाने की ज़िम्मेदारी के बीच सवाल ये है कि क्या वाक़ई हम महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रहे है?

पहले तो हमें ये अच्छी तरह समझना होगा कि बेशक महिलाएँ आज शिक्षित हो रही हैं और कहीं न कहीं रोज़गार व विकास के अवसरों में अपनी भागीदारी भी दर्ज कर रही हैं, लेकिन जब बात इसके बाद परिवार, रिश्ते और समाज के संदर्भ में आती है तो उनसे क्या इसी तरह की प्रगतिशील और लैंगिक समानता वाली उम्मीद रखी जाती है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि भले ही बदलते समय के साथ महिलाओं को शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्रों में अवसर सीमित संख्या में ही सही मिल रहे पर सामाजिक दृष्टिकोण से अभी भी उनके अस्तित्व इंसान समझने की बजाय इसे परिवार और रसोई तक ही सीमित रखा गया है।

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वंश को आगे बढ़ाना अभी भी महिला का एकमात्र काम समझा जाता है। शिक्षा और नौकरी के बाद मध्यमवर्गीय परिवारों में महिला का तय पड़ाव शादी और शादी के बाद बच्चे पैदा करना, ये समाज के ऐसे नियम है, जिसे विशेषाधिकार की लालच या फिर हिंसा की डर से समाज महिलाओं को अपनाने के लिए मजबूर करता है। पितृसत्ता के तहत शादी की संस्था और परिवार की धारणा बेहद मज़बूती से इस विचार को पोसने का काम करती है, जिसके तहत जब महिला किसी कारणवश बच्चे पैदा करने में असमर्थ होती है तो उसे ख़ुद के लिए इतना हीन महसूस करवाया जाता है कि वो अपने को बेहतर साबित करने के दबाव में दबने लगती है। जैसा सोहा के साथ हुआ, जहां मिसकैरेज होने बाद परिवार उसे ख़ुद पर ध्यान देने की सलाह देने लगा, जिसका मतलब ये है कि ‘सोहा का प्रेग्नेंट होना ये साबित करता है कि उसके पति में कोई कमी नहीं और मिसकैरेज होना सोहा की कमी है, इसलिए अब उसे ख़ुद पर ध्यान देना चाहिए।‘

साथ ही, आज हमलोग ‘बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ।‘ ‘लड़का-लड़की एकसमान’ जैसी ढ़ेरों बातें हम करें पर कड़वा सच यही है कि आज भी भारत के मध्यमवर्गीय परिवार में बेटे को जन्म देने से महिला को सम्मान दिया जाता है। बेटी को जन्म देने पर दोहरा व्यवहार बेहद महीन तरीक़े से ही लेकिन बेहद मज़बूती से काम करता है। अक्सर ये परिवार में स्त्रीद्वेष को बढ़ाने में भी अहम भूमिका अदा करता है। इसके साथ सीधेतौर पर महिला हिंसा को बढ़ावा देता है।

पितृसत्ता, शादी, परिवार और वंश बढ़ाने की ज़िम्मेदारी के बीच सवाल ये है कि क्या वाक़ई हम महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रहे है? क्योंकि अभी भी हम उन्हें इंसान समझने की बजाय सिर्फ़ महिला ही समझ रहे है, जिसकी मूल ज़िम्मेदारी हमें बच्चे पैदा करना ही समझ आती है या यूँ कहूँ कि यही समझायी गयी है। इसमें उसकी मर्ज़ी हो या नहीं। इसके लिए उसका शरीर तैयार हो या नहीं और जब बच्चे तक बात पहुँचती भी है तो फ़िल्टर होता है ‘बेटे’ का, क्योंकि वंश तो वही चलाएगा। महिलाओं के लिए वही दकियानूसी फ़िल्टर के साथ क्या सच में हम महिलाओं के लिए बेहतर वर्तमान और कल बना रहे है, ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है। इसलिए बेहतर है कि हम इस बात को अच्छी तरह समझें कि महिला होने का मतलब सिर्फ़ बच्चे पैदा करना नहीं है। ‘माँ बनना या नहीं बनना’ अपनी मर्ज़ी की बात है, इसका सही समय समाज को नहीं बल्कि खुद महिला को तय करना चाहिए और समाज को उसे स्वीकार करना चाहिए। साथ ही, जब किसी शादीशुदा महिला से मिलिए उससे बच्चे पैदा करने की बजाय उसके बारे में पूछे और ये तभी संभव है जब महिला को पहले हम इंसान समझें।

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तस्वीर साभार : unicef

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