इंटरसेक्शनलहिंसा यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना और सर्वाइवर को सुनना दोनों बहुत ज़रूरी है

यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना और सर्वाइवर को सुनना दोनों बहुत ज़रूरी है

दुनिया में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो यह आंकड़े सामने रख सके कि कितनी औरतों ने अपने जीवन में हिंसा का सामना किया है और यह बात अपने मन में रखे ही इस दुनिया से चली गई।  

चेतावनीः यहां एक महिला के साथ हुए यौन उत्पीड़न के अनुभवों का उल्लेख किया गया है।

सुनिधि (बदला हुआ नाम) अपने दादा की उम्र के व्यक्ति के पास पढ़ने जाया करती थी। वह उसके परिवार के बेहद करीब थे। कई दफ़ा सुनिधि ने अपने टीचर के व्यवहार में असहजता महसूस की लेकिन वह चीजों को नज़रअंदाज़ करती रही। एक दिन वह ट्यूशन पहुंची तो उसने देखा कि उसके टीचर एक बहुत छोटी उम्र के बच्चे के साथ अनुचित व्यवहार कर रहे थे। इस घटना के बाद उसने कई लोगों को यह बात बताई तो किसी ने कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी और बात को नज़रअंदाज़ कर दिया। एक अस्सी साल के बुजु़र्ग के खिलाफ़ वह बोलना चाहती थी। खुद और उस बच्ची के साथ हुए व्यवहार के बारे में सबको बताना चाहती थी। इस अनुभव को बताने के दौरान कुछ लोगों ने सुनिधि की बात से सहमति जताई कि और कहा कि उन्होंने ने भी उस शिक्षक के व्यवहार के बारे में ऐसा सुना है। इन बातों को लोगों का सहजता से सुनना और उनकी प्रतिक्रिया को देखना सुनिधि के लिए और भी ज्यादा पीड़ादायक था। सालों साल बीत गए उस शिक्षक के व्यवहार से कुछ लोगों के परिचित होने के बावजूद भी उनके खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई। न जाने कितने बच्चों ने उनके इस व्यवहार का सामना किया होगा।

चुप्पी में जकड़े जाना जितना बुरा है, उससे ज्यादा खतरनाक भी है। यह चुप्पी जहां आरोपी को मनमानी का हौसला देती है दूसरी ओर सहने वाले पर मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से प्रभावित करती है। हिंसा के विज्ञान में यह बात सामने आती है कि हिंसा करने वाला अपने विशेषाधिकार का फायदा उठाता है। दुनिया के मानचित्र में हिंसा के खिलाफ चुप्पी अपनाने वाले बहुत ज्यादा लोग हैं। हिंसा के खिलाफ बोलने को लेकर जिस तरह के माहौल की आवश्यकता है वह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तो बिल्कुल भी नहीं है। यहां सर्वाइवर पर ही सवाल दाग दिए जाते हैं। “तब कहां थे, अब क्या बोलने की ज़रूरत है, कानून है, गलत किया है तो उसे साबित करो” जैसी बातें उस आत्मविश्वास को खत्म करने के लिए तुरंत उठ जाती हैं। बीते वक्त की भयावहता को दोहराना बिल्कुल आसान नहीं होता है। कानूनी रूप से भी इसे साबित करना मुश्किल हो सकता है, सालों बाद उस हिंसा पर बोलना केवल मानसिक दबाव से मुक्त होने जैसा है।

दुनिया में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो यह आंकड़े सामने रख सके कि कितनी औरतों ने अपने जीवन में हिंसा का सामना किया है और यह बात अपने मन में रखे ही इस दुनिया से चली गई।  

और पढ़ें: लॉकडाउन में बाल यौन शोषण : एक गंभीर मगर कम रिपोर्ट किया जाने वाला अपराध

भारतीय समाज में हिंसा की घटनाओं पर प्रतिक्रिया इतनी सामान्य होती जा रही है कि वह समाज की हिंसात्मक प्रवृति पर मोहर लगाती है। यहां हिंसा सहने वाले को ही संदेह के घेरे में ला दिया जाता है। यदि हिंसा का सामना करने वाली महिला है और वह अपनी आपबीती बताती है तो उसके चरित्र और व्यवहार पर तुरंत उंगली उठा दी जाती है। सर्वाइवर को सवालों से घेरकर आरोपी के पक्ष में या तो चुप्पी साध ली जाती है या फिर उसका बचाव करना शुरू कर दिया जाता है। साल 2017 में, अक्टूबर में दुनियाभर में #मीटू का आंदोलन शुरू हुआ। इसमें सोशल मीडिया पर महिलाओं ने अपने कार्यक्षेत्र में अपने साथ हुए यौन शोषण पर खुलकर लिखा। अक्टूबर 2018 में कई भारतीय महिलाओं ने मीटू के तहत अपने अनुभव साझा किए। इस पूरे वक्त के दौरान लगातार कभी न कभी कोई महिला इस हैशटैग के तहत अपने साथ हुए उत्पीड़न पर लिख रही है। लंबे मानसिक तनाव के बाद हिम्मत जुटाने के सालों बाद भी जब सर्वाइवर अपनी बात रखते हैं तो खासतौर पर भारतीय पुरुष का जो व्यवहार सामने आता है वह एक स्वस्थ समाज के लिए हानिकारक है। मीटू की शुरुआत के वक्त ही इस अभियान की मंशा पर सवाल उठाने शुरू कर दिए गए। बचाव में ओछे तर्क देकर पितृसत्तात्मक सोच का परिचय देते दिखें। महिलाओं पर होने वाली अन्य हिंसा पर भी भारतीय समाज और हमारे परिवारों का रवैया हिंसा के साथ समझौता करने वाला होता है।

महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा में ‘बदनामी’ को ऊपर रखकर उसपर चुप्पी साध ली जाती है। दूसरी ओर सामाजिक संस्कृति में चुप रहने और सहने की प्रवृति को इतना महान माना जाता है कि उसका अनुसरण करना ही सब उचित मानते हैं। हिंसा पर निष्क्रिय सामाजिक प्रतिक्रिया हिंसा और हिंसा करनेवाले को बल देती है। दुनिया में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो यह आंकड़े सामने रख सके कि कितनी औरतों ने अपने जीवन में हिंसा का सामना किया है और यह बात अपने मन में रखे ही इस दुनिया से चली गई।  

और पढ़ें: बाल यौन शोषण के मुद्दे पर है जागरूकता और संवेदनशीलता की कमी

समस्या का एक महत्वपूर्ण समाधान संवाद है। हमारे समाज में हिंसा पर बात करना, अपनी आपबीती कहने को ही एक अपराध बना दिया जाता है।

बोलकर सर्वाइवर को ही चुकानी पड़ती है कीमत

मीटू अभियान के तहत जिन भी महिलाओं ने अपने अनुभव बताए, उनमें से कई अपने क्षेत्र का जाना-पहचाना नाम हैं। इन महिलाओं को बहुत बाधाओं का सामना करना पड़ा। इनके बोलने से इनके करियर पर पूर्णविराम लग सकता है, यह केवल सामाजिक जटितला और रूढ़वाद को ही दिखाता है। सांसद एमजे अकबर हो या नाना पाटेकर, इनके केस में सर्वाइवर को सालों बाद भी सवालों और आलोचना की पीड़ा से गुज़रना पड़ा। इतना ही नहीं इन सब घटनाओं के बाद जिन महिलाओं ने बोला उसका असर उनके करियर पर भी पड़ा। कई मामलों में महिलाओं को अपनी नौकरी तक गंवानी पड़ी। आगे तक के लिए नये विकल्पों तक को इसलिए बंद कर दिया गया क्योंकि उन्होंने आवाज उठाई। दूसरी ओर जितने भी भारतीय पुरुषों पर मीटू के तहत आरोप लगे उनमें से किसी ने भी अपनी पब्लिक पोजीशन नहीं गंवाई है। आरोप के बाद अन्नू मलिक टीवी शो में जज बनते हैं और कैलाश खेर सरकार के प्रचारतंत्र में गाते नजर आते हैं। ये सब वे कुछ नाम हैं जिन पर आरोप लगे थे। हाल में जब संजय रजौरा पर मीटू के तहत आरोप लगाए गए तो कुछ प्रगतिशील लोग ही उनकी छवि और काम का गुणगान करने लगे।   

 

हकीकत के सामने आंकड़ों का सीमित जाल

भारत जैसे पितृसत्तात्मक और रूढ़िवाद देश में महिलाओं का खुलकर बोलना उनके लिए भारी परेशानियों में से एक है। पब्लिक स्पेस हो या परिवार-रिश्ते उनमें महिलाएं यदि अपने स्पेस के लिए क्लेम करती हैं तो उन पर ब्लेमिंग-शेमिंग का काम सबसे पहले उनके परिचित ही करते हैं। महिलाओं का उत्पीड़न पर सवाल उठाना उनके लिए और कई परेशानियों को बढ़ावा देता है। घर से बाहर कदम रखने वाली लड़कियों और महिलाओं को भी महिला हिंसा के उदाहरण देकर रोक दिया जाता है। संगठित और अंसगठित क्षेत्र में कार्यरत करोड़ों भारतीय महिलाएं हैं जो आर्थिक मजबूरी, बदनामी, बदले की कार्रवाई के डर और न्याय की जटिलता के कारण आवाज़ उठाने की बजाय सहना चुनती हैं।

भारत के संदर्भ में गत वर्ष ‘ह्यूमन राइट वॉच’ ने एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत सरकार पूरी तरह यौन उत्पीड़न कानून को लागू करने में विफल है। दस लाख से भी अधिक महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाले उत्पीड़न का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया। देश में कार्यस्थल पर होने वाली हिंसा के खिलाफ के कानून हैं लेकिन कानून लागू करने की खातिर बुनियादी कदम उठाने में भी हमारी व्यवस्था विफल है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मीटू के तहत बोलने वाली महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मानहानि कानून का इस्तेमाल अन्य महिलाओं को आगे आने से रोकने और डर बनाने के लिए किया गया। 95 फीसद महिला कामगार अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं जिनके लिए कार्यस्थल पर उत्पीड़न का सामना करना बहुत सामान्य है। मीटू जैसे मंच उनकी पहुंच से दूर है और अपनी बात रखना, प्रतिरोध करने का मतलब काम से छुट्टी होना है। 

महिलाओं या किसी भी सर्वाइवर का यौन शोषण पर खुलकर अपनी बात रखने के बावजूद भी संवेदनशीलता से सुनने वाला समाज आज भी गायब है। समाज की हिंसा की घटनाओं पर जारी प्रतिक्रिया केवल सर्वाइवर के लिए परेशानी बनती है। समस्या का एक महत्वपूर्ण समाधान संवाद है। हमारे समाज में हिंसा पर बात करना, अपनी आपबीती कहने को ही एक अपराध बना दिया जाता है। हिंसा पर चुप्पी अपराध को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति को बल देती है। वह पुरुषों का अपने साथी पुरुष के व्यवहार जानने के बाद भी अंजान बनना भी अपराध में हिस्सेदारी होती है। 

और पढ़ें: कैसे सर्वाइवर्स के न्याय पाने के संघर्ष को बढ़ाती है विक्टिम ब्लेमिंग की सोच


तस्वीर साभार: Scroll

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content