समाजकानून और नीति क्या अब न्यायालय नियम-कानून से परे नैतिकता के आधार पर देंगे न्याय?

क्या अब न्यायालय नियम-कानून से परे नैतिकता के आधार पर देंगे न्याय?

"जब-जब एक महिला के खिलाफ यौन हिंसा की घटना होती है, तब हमारे समाज की असंवेदशीलता से भरी प्रतिक्रिया यह जाहिर करती है कि एक महिला के लिए यह समाज कितना भेदभावपूर्ण वाला है। ऐसे में अदालत वह स्थान है जहां वह अपने नागरिक अधिकारों के बचाव के लिए और न्याय की उम्मीद के साथ जाती है।"

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गैंगेरेप में मामले में एक आरोपी की ज़मानत खारिज करते हुए जो टिप्पणी की है वह संविधान के मूल सार के विपरीत है। टाइम ऑफ इंडिया में छपी खबर के अनुसार न्यायाधीश राहुल चतुर्वेदी ने गैंगरेप के आरोप में आरोपी राजू की ज़मानत याचिका खारिज करते हुए कहा है कि बालिग लड़की की सहमति से यौन संबंध बनाना अपराध नहीं है, लेकिन यह अनैतिक, असैद्धांतिक और भारतीय सामाजिक मूल्यों के खिलाफ है।

दरअसल, बीती 20 फरवरी 2021 में कौशाम्बी के अखिल सराय पुलिस स्टेशन में गैंगरेप की घटना की एक एफआईआर दर्ज की गई। इसमें पुलिस ने चार लोगों के खिलाफ पोक्सो एक्ट और भारतीय दंड सहिता की धारा 376-डी, 392, 323, 504 के तहत मामला दर्ज किया था। एफआईआर के अनुसार 19 फरवरी को सर्वाइवर सुबह घर से सिलाई केंद्र पर गई थी। वापस लौटते वक्त राजू जिसे वह पहले से जानती थी उसने नदी के पास मिलने के लिए बुलाया। कुछ देर बाद तीन अन्य लोग वहां आ गए। उसके बाद इन तीनों ने नाबालिग का यौन उत्पीड़न किया।

इसी मामले पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी कहा कि यह लड़की के ब्वायफ्रेंड की ज़िम्मेदारी थी कि वह बाकी आरोपियों से उसकी रक्षा करता। अदालत नें इसे निंदनीय कहते हुए कहा है कि वह लड़की का ब्वायफ्रेंड कहलाने लायक नहीं है। उसका कर्तव्य था कि वह उसकी मान, मर्यादा और सम्मान की सुरक्षा करता। अपने सामने गर्लफ्रेंड का सामूहिक रेप होते हुए वह चुपचाप देखता रहा। साथ ही फैसले में यह भी कहा गया है कि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उसे सह-आरोपियों से कोई जानकारी नहीं थी।

अदालत की यह टिप्पणी समाज में रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज को स्थापित करने पर बल देती है। यह इस ओर इशारा करती है कि एक महिला की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पुरुष की ही होती है। अदालत के ऐसे फैसले न केवल समाज की प्रगतिशीलता को रोकते हैं बल्कि न्यायाल प्रणाली पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं।

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न्यायालय की ऐसी भाषा के क्या है मायने

जब-जब एक महिला के खिलाफ यौन हिंसा की घटना होती है, तब हमारे समाज की असंवेदशीलता से भरी प्रतिक्रिया यह जाहिर करती है कि एक महिला के लिए यह समाज कितना भेदभाव करता है। ऐसे में अदालत वह स्थान है जहां वह अपने नागरिक अधिकारों के बचाव और न्याय की उम्मीद के साथ जाती है। लेकिन कई बार हमारे न्यायालय और न्यायाधीश अपने फैसलों और बयानों में उस पितृसत्तात्मकता सोच को जाहिर करते हैं, जिससे बचने के लिए महिला केवल कानून की मदद को ही एकमात्र विकल्प मानती है।

खासकर कई बार महिलाओं की शादी, यौनिकता, रिलेशनशिप और उनके साथ हुए यौन अपराधों से जुड़े मामलों पर अदालतों की प्रतिक्रिया बहुत चौंकाने वाली होती है। ठीक इसी तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी के द्वारा जारी हुए इस आदेश में कही बातें संविधान के मूल अधिकारों के संरक्षण के बजाय उसके उल्लघंन पर ज्यादा बल देती हैं। उनकी कही बातों का एक मतलब यह भी निकलता है कि महिलाओं की निजी कोई पहचान नहीं है। उसे हमेशा संरक्षण की आवश्यकता होती है। महिला का बिना शादी के यौन इच्छाएं रखना या सेक्सुअली ऐक्टिव होना भारतीय सामाजिक नैतिकता के खिलाफ है।

“जब-जब एक महिला के खिलाफ यौन हिंसा की घटना होती है, तब हमारे समाज की असंवेदशीलता से भरी प्रतिक्रिया यह जाहिर करती है कि एक महिला के लिए यह समाज कितना भेदभावपूर्ण वाला है। ऐसे में अदालत वह स्थान है जहां वह अपने नागरिक अधिकारों के बचाव के लिए और न्याय की उम्मीद के साथ जाती है।”

न्यायालय के द्वारा इस्तेमाल होती ऐसी भाषा यह भी बताती है कि संविधान संरक्षण के लिए स्थापित अदालतें उससे अलग पितृसत्ता के पाठ को ज्यादा तरहीज दे रही हैं। समाज में महिला के खिलाफ होनेवाले अपराधों पर रोक लगाने के लिए काम करने के बजाय अदालत अपने फैसलों में ऐसे संदेश दे रही है कि महिला को पितृसत्तात्मक मूल्यों का पालन करना चाहिए। उसे पितृसत्तात्मक समाज के बनाए नियम-कायदों से रहना चाहिए। नागरिक अधिकारों को संरक्षण देने वाली संस्थाओं का इस तरह का व्यवहार संविधान से प्राप्त हुए नागरिक मौलिक अधिकारों का भी उल्लघंन है।

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क्यों महिला की यौनिक स्वतंत्रता पर है सबकी नजर

भारतीय पितृसत्तात्मक पुरुषवादी समाज में महिला की यौनिकता पर उसका स्वंय का कोई अधिकार नहीं है। इसके अनुसार महिला के शरीर पर उससे ज्यादा एक पुरुष का हक होता है। उसकी सहमति के कोई मायने नहीं है। एक महिला केवल शादी के बाद अपने पति के साथ ही यौन संबंध बना सकती हैं। अदालतों के सार्वजनिक तौर पर आते ऐसे फैसले भी महिला की यौनिक आजादी को खत्म करने का ही एक काम करते हैं। जब अदालतें अपने फैसलों में महिला को पितृसत्तात्मक मूल्यों और सिंद्धातों पर चलने की बात करती है तो इससे यही संदेश जाता है कि अदालतें भी महिला की यौनिक स्वतंत्रता पर पहरा लगाने की कहीं न कहीं पक्षधर हैं।

समय-समय पर अदालत के जारी होते महिला विरोधी बयान

ऐसा अनेक बार देखा देश की अदालतें महिला के खिलाफ हुए अपराध पर रुढ़िवादी सोच का परिचय देती हैं। अदालत यौन अपराधियों को सर्वाइवर से राखी बंधवाने या उससे शादी करने जैसी शर्तों के आधार पर उनके किए अपराध को कम करती नजर आती हैं। अदालत से जारी होती ऐसी पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी टिप्पणियों पर हाल ही में जस्टिस एएम. खानविलकर व एस. रविन्द्र भट्ट की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने निर्देश में कहा था कि न्यायधीशों को किसी भी प्रकार की रूढ़िवादिता से बचना चाहिए। उन्होंने कहा था कि कोर्ट को शिकायतकर्ता महिला से माफी या समझौते की बात को नहीं कहना चाहिए। साथ ही कोर्ट ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया को भी निर्देशित किया था कि कानूनी पढ़ाई में लैंगिक संवेदनशीलता और यौन अपराधों के अध्याय को शामिल किया जाए। खासतौर से निजली अदालतों के द्वारा अपनाए गए अंसवेदनशील रवैय्ये पर सर्वोच्च न्यायालय अपनी चिंता जाहिर कर चुका है।

लैंगिक रूढ़िवादी सोच पर आधारित एक अकेला आदेश या टिप्पणी पूरी न्याय प्रणाली पर प्रभाव डालते हैं। यदि ऐसी एक बात भी न्याय की प्रक्रिया में सामने आती है तो वह न्यायतंत्र के आदेश के सामाजिक प्रभाव को कम करती नजर आती है। दूसरी ओर अदालत की ऐसी भाषा और सोच यह भी बताती है कि भले ही कानून के आधार पर न्याय की प्रक्रिया चलती है लेकिन उसे लागू करनेवाले के भीतर वही पितृसत्तात्मक मानसिकता स्थापित है जिससे बचने के लिए महिला उसके समक्ष आई है।      

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तस्वीर साभार: DNA

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