इंटरसेक्शनलजेंडर अंधविश्वास की वाहक नहीं, अंधविश्वास से पीड़ित हैं महिलाएं

अंधविश्वास की वाहक नहीं, अंधविश्वास से पीड़ित हैं महिलाएं

गुलामी की जंजीरों के कारण महिलाओं का आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। महिलाओं द्वारा किए जाने वाला अधिकांश व्रत-उपवास का लक्ष्य पुरुषों की भलाई होता है। वे पुरुषों के हित में ही अपना हित देखती हैं।

“औरत जन्म नहीं लेती बल्कि बना दी जाती हैं” नारीवादी लेखिका सिमॉन द बोउवार की यह प्रसद्धि उक्ति सिर्फ सेक्स और जेंडर के बीच के मौलिक अंतर को स्पष्ट नहीं करती बल्कि स्त्रियों को मनौवैज्ञानिक और शारीरिक स्तर पर कुंद किए जाने की सच्चाई को भी उजागर करती है। आज तक यह माना जाता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। आज विज्ञान यह साबित कर चुका है कि महिलाएं जन्मजात जिस्मानी तौर पर कमज़ारे नहीं होतीं लेकिन पालन-पोषण के दौरान कदम-कदम पर होनेवाले भेदभाव और कई स्तर के प्रतिबंध उन्हें कमज़ोर कर देते हैं।

हालांकि, किसी के शारीरिक रूप से निर्बल होने का कतई यह मतलब नहीं है कि कोई बलवान उसका शोषण कर सकता है। अगर महिलाएं जन्मजात जिस्मानी तौर पर कमज़ोर होतीं तब भी पुरुषों को यह लाइसेंस नहीं मिल जाता कि वे उनका शोषण कर सकते हैं। ‘शारीरिक बल’ के इस मिथ्य की तरह ही एक मिथ्य ‘अंधविश्वास’ का है। पुरुषों के वर्चस्व वाले हमारे समाज में यह प्रौपगैंडा लंबे समय से चलाया जा रहा है कि महिलाएं ही अंधविश्वास की वाहक हैं। 

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गुलामी की जंजीरों के कारण महिलाओं का आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। महिलाओं द्वारा किए जाने वाला अधिकांश व्रत-उपवास का लक्ष्य पुरुषों की भलाई होता है। वे पुरुषों के हित में ही अपना हित देखती हैं।

कौन है अंधविश्वास का वाहक?

पहले समझ लेते हैं कि जब यह बात प्रचारित की जाती है कि महिलाएं ही अंधविश्वास की वाहक हैं, तो इसके पीछे का तर्क क्या होता है। यकीन मानिए बहुत खोजने पर भी इस प्रौपगैंडा के पीछे कोई तर्क नहीं मिलेगा। मिलेगा बस तह में बजबजाती ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और पूर्वाग्रह। जिस तरह पुरुषों ने खुद के द्वारा लिखे गए धर्म शास्त्र में खुद को श्रेष्ठ और महिलाएं को नीच घोषित किया है। ठीक वैसे ही तमाम कर्मकाण्ड और अंधविश्वास की जड़ में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है, लेकिन बड़ी सफाई से पितृसत्तात्मक समाज में इसका वाहक महिलाओं को घोषित कर दिया गया है।

व्रत, उपवास, पूजा, कर्मकाण्ड, वास्तु, जादू, टोना और ऐसे तमाम अवैज्ञानिक चीज़ें पुरुष भी करते हैं, ज्यादातर जगहों पर वही इन्हें करते दिखते हैं लेकिन अंधविश्वास का वाहक महिलाओं को घोषित कर रखा है। इससे भी विचित्र बात यह है कि जादू-टोना में यकीन पुरुष और स्त्री दोनों का एक तबका करता है पर इसे लेकर होनेवाली हत्याओं की पीड़ित सबसे महिलाएं अधिक होती हैं। इससे भी दिलचस्प यह है कि अंधविश्वास के आधार पर इन हत्याओं को अंजाम देने वालों में पुरुषों की भूमिका मुख्य होती है।

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वाहक नहीं पीड़ित हैं महिलाएं

यह बात काफी हद तक सही है कि अंधविश्वास के नाम पर होने वाले शोषण को महिलाओं के एक हिस्से ने आभूषण की तरह गले से लगा रखा है। लेकिन क्या यह मसला शोषण-भूषण वाली इस तुकबंदी की तरह आसान है? जवाब है- नहीं। अज़ीब विडंबना है कि अलग-अलग परीक्षाओं में सफल होने वाली और अंकतालिका में ऊपरी स्थान हासिल करने वाली ज्यादातर महिलाएं हैं। साथ ही कर्मकांड और अंधविश्वास की अधिक शिकार भी महिलाएं ही हैं। यह कैसे हो रहा है ?

दरअसल ये सब इससे संबंधित है कि धर्म, संस्कृति, समाज, आर्थिक व्यवहार, और राजनीति में स्त्रियों की क्या स्थिति है। अब सच्चाई ये है कि ये सभी क्षेत्र उस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बुरी तरह ग्रस्त हैं जिसमें स्त्रियों को हमेशा से ही हीन प्रदर्शित किया जाता है। इस मामले को और आसान तरीके से समझने का एक तरीका यह हो सकता है कि जो जीवन में जितना अधिक परतंत्र, लाचार और बेबस होता है वह उतना ही अंधविश्वास का शिकार होता है और भारतीय समाज में महिलाओं की पराधीनता तो निर्विवादित सत्य है।

जादू-टोना में यकीन पुरुष और स्त्री दोनों का एक तबका करता है पर इसे लेकर होने वाली हत्याओं की पीड़ित सबसे महिलाएं अधिक होती हैं। इससे भी दिलचस्प यह है कि अंधविश्वास के आधार पर इन हत्याओं को अंजाम देने वालों में पुरुषों की भूमिका मुख्य होती है।

मनुवाद और अंधविश्वास

हमारे समाज का एक बड़ा तबका जिस मनु की मानसिकता से संचालित होता है, उस मनु की रचना मनुस्मृति में लिखा गया है, “रात और दिन, कभी भी स्त्री को स्वतंत्र नहीं होने देना चाहिए। उन्हें लैंगिक संबंधों द्वारा अपने वश में रखना चाहिए, बालपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करें, स्त्री स्वतंत्र होने के लायक नहीं है” (मनु स्मृति अध्याय 9, 2-3)

गुलामी की इन्हीं जंजीरों के कारण महिलाओं का आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। महिलाओं द्वारा किए जाने वाला अधिकांश व्रत-उपवास का लक्ष्य पुरुषों की भलाई होता है। वे पुरुषों के हित में ही अपना हित देखती हैं। पुरुषों पर उनकी निर्भरता उन्हें असुरक्षा के भाव से भर देता। इसी असुरक्षा का फायदा उठाकर ‘काल्पनिक ईश्वर’ के ज़रिए जीनव में उदय होता है अंधविश्वास के अंधेरे का। अब यहां पर यह सवाल बेकार है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी अंधविश्वास का शिकार क्यों होती हैं ?

पहली बात तो यह कि यह सवाल सिर्फ महिलाओं से नहीं पूछी जानी चाहिए। आर्थिक रूप से संपन्न पुरुष भी अंधविश्वास का ढोल ज़ोर-ज़ोर से बजा रहे हैं। दूसरी बात यह कि महिलाओं की आर्थिक संपन्नता भी उन्हें सदियों की मानसिक गुलामी से अभी तक पूरी तरह मुक्ति नहीं दिला पाई है। जब समाज को संचालित करने वाले पुरुष ही अंधविश्वासी हैं तो पीड़ितों यानि महिलाओं से यह सवाल बेइमानी है। रही बात पढ़ी-लिखी महिलाओं के अंधविश्वासी होने की तो फिर से वही बात पर हमें ज़ोर डालना होगा कि ऐसे सवाल सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं होने चाहिए। खैर, इस समस्या का समाधान केवल शिक्षा से नहीं हो सकता। इसके लिए तार्किक शिक्षा और लैंगिक बराबरी लाने की ज़रूरत है।

और पढ़ें : हमारे समाज में महिलाओं का धर्म क्या है? | नारीवादी चश्मा


तस्वीर साभार : pri.org

स्रोत:  

विवेक की प्रतिबद्धता (डॉ नरेंद्र दाभोलकर) पेज नं – 107
विश्वास और अंधविश्वास (डॉ नरेंद्र दाभोलकर) पेज नं – 98
मेरे साक्षात्कार (मैनेजर पाण्डेय) पेज नं – 115

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