संस्कृतिमेरी कहानी 16 दिवसीय अभियान से जुड़ने का मेरा पहला अनुभव

16 दिवसीय अभियान से जुड़ने का मेरा पहला अनुभव

महिला हिंसा की जितनी परतें हम खोलते है उतने इसके स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। कई बार घरों में होनेवाली महिला हिंसा होती है तो कई बार बुनियादी अधिकारों से दूर करने की हिंसा और कई बार सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को क़ैद करने की हिंसा।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हर तीन में से एर महिला अपने जीवन में एक न एक बार ज़रूर किसी तरह की हिंसा का सामना करती है। लेकिन कोरोना महामारी के दौर में महिला हिंसा का और भी वीभत्स रूप देखने को मिला। महिला संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से क़रीब 13 देशों में किए गए सर्वे के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान हर तीन में से दो महिलाओं ने किसी न किसी तरह की हिंसा और यहां तक कि खाने के संकट का भी सामना किया। इसमें दुर्भाग्य की बात यह है कि हिंसा का सामना करनेवाली हर 10 महिलाओं में से सिर्फ़ एक महिला को ही पुलिस की मदद मिल पाती है। संयुक्त राष्ट्र के ये आंकड़े समाज में महिला हिंसा के स्तर को दर्शाते हैं। हालांकि, ऐसा नहीं कि ये आंकड़े किसी और दुनिया-देश के हैं, महिला हिंसा को लेकर अगर हम अपने आसपास नज़र डालें तो यह स्थिति साफ़-साफ़ देखने को मिलती है।

गाँव में बस्तियां चाहे किसी भी जाति-वर्ग की हो, लेकिन सभी जगह एक चीज़ समान होती है वह है महिला हिंसा। आर्थिक और जातिगत स्तर से हिंसा के रूप अलग हैं, जैसे हमारे गाँव में मज़दूर परिवार की महिलाएं हिंसा होने पर आवाज़ उठाती हैं और घर से बाहर जाकर मदद मांगती हैं पर चूंकि वे गरीब परिवार से हैं इसलिए उन्हें मदद नहीं मिल पाती। वहीं, सामान्य वर्ग के परिवार में महिलाएं हिंसा के ख़िलाफ़ तथाकथित इज़्ज़त के लिहाज़ से आवाज़ तो क्या उसके बारे में बताने से भी कतराती हैं। इतना ही नहीं, मज़दूर वर्ग की महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर हिंसा होने की आशंका ज़्यादा होती है और न्याय मिलने की आशंका उतनी ही कम। वहीं, मध्यमवर्गीय परिवारों में महिलाओं का घर से बाहर निकलना भी मुश्किल होता है।

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महिला हिंसा की जितनी परतें हम खोलते है उतने इसके स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। कई बार घरों में होनेवाली महिला हिंसा होती है तो कई बार बुनियादी अधिकारों से दूर करने की हिंसा और कई बार सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को क़ैद करने की हिंसा। महिला हिंसा के रूप तो बहुत हैं लेकिन इस पर आमजन खासकर ग्रामीण महिलाओं में समझ अभी भी बहुत सीमित है।

मैंने बचपन से इन हिंसाओं को देखा और अनुभव किया है। ऐसे में अब जब सामाजिक संस्था में काम करते हुए इस साल पहली बार मैं महिला हिंसा के ख़िलाफ़ 16 दिवसीय अभियान का हिस्सा बन रही हूं और इसके प्रभावों को देख रही हूं। महिला हिंसा के ख़िलाफ़ चलने वाले इस सोलह दिवसीय अभियान में जब मैं खुद ग्रामीण महिलाओं और किशोरियों के साथ कार्यशाला और बैठक का आयोजन कर रही हूं तो इन कार्यक्रमों में लगातार महिला हिंसा के उन अनुभवों को सुनती हूं जो बदलते समय के साथ तो बदले हैं लेकिन हिंसा नहीं बल्कि हिंसा का रूप बदल गया है। इन अनुभवों के साथ-साथ महिला हिंसा के रूप और इसके बचाव को लेकर भी समझ निर्माण शुरू हुआ है।

महिला हिंसा की जितनी परतें हम खोलते है उतने इसके स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। कई बार घरों में होनेवाली महिला हिंसा होती है तो कई बार बुनियादी अधिकारों से दूर करने की हिंसा और कई बार सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को क़ैद करने की हिंसा।

अभियान के तहत होने वाले कार्यक्रम के बारे में जब मैंने अमिनी गाँव की पंद्रह वर्षीय आरती से बात की तो उसने बताया कि यह पूरा अभियान आम बैठक से अलग है, क्योंकि इसमें न केवल महिला हिंसा के विरोध और महिला अधिकार की बात हो रही है, बल्कि अलग-अलग गाँव की महिलाएं और किशोरियां एक साथ मिलकर सीख रही हैं, अपने अनुभवों को साझा कर रही हैं। सांस्कृतिक माध्यमों से गीतों, दीवारों तक महिला हिंसा के विरोधों और महिला अधिकार की पैरोकारी को पहुंचा रही हैं।

जब भी हम यह सवाल करते हैं कि आख़िर क्यों महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाती हैं। इसका जवाब हम सभी को अच्छी तरह मालूम है। हमारा समाज महिलाओं को हमेशा कमज़ोर बनाने वाली परवरिश पर ज़ोर देता है और उन्हें ये एहसास दिलाता है कि वे हिंसा के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में अकेली हैं। ऐसे में यह अभियान कहीं न कहीं महिलाओं और किशोरियों में एक नयी ऊर्जा के संचार का आधार बन रहा है, जो ऊर्जा को एकजुटता का संदेश देती है और महिलाओं को ये भरोसा दिलाती है कि इस अभियान में वे अकेली नहीं हैं।

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इस अभियान के तहत अलग-अलग माध्यमों का इस्तेमाल महिला नेतृत्व और रचनात्मक संवाद को भी बढ़ावा देने में सहायक है। हम लोगों ने किशोरियों के साथ मिलकर गाँव में दीवार लेखन किया और इस दौरान किशोरियों में अलग ही उत्साह देखने को मिला। जो लड़कियां कभी चौराहे तक नहीं जाती थीं, वे रास्ते-चौराहे की दीवारों में अपने हक़ की बात लिख रही थीं। वहीं, जो महिलाएं कभी बैठकर एक धारावाहिक तक नहीं देखती थी, वे महिला अधिकार के मुद्दे पर केंद्रित फ़िल्में एक साथ बैठकर देख रही हैं। हो सकता है ये सब बहुत सामान्य से लगे लेकिन ये गाँव के उन हाशिएबद्ध और वंचित समुदाय के लिए बिल्कुल भी सामान्य नहीं हैं जिनके लिए दो वक्त रोटी का इंतज़ाम भी बड़ी चुनौती होती है।

ये 16 दिवसीय अभियान पूरी दुनिया के अलग-अलग देशों में मनाया जा रहा है और ये सीधे तौर पर महिला एकता को एक नया आयाम भी दे रहा है। जिन जगहों पर इस अभियान एक तहत छोटे-बड़े किसी भी तरह के कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है, वो यह दर्शाता है कि महिला हिंसा के ख़िलाफ़ न केवल अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में मुहिम जारी है। 

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तस्वीर साभार : मुहीम एक सार्थक प्रयास

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