इंटरसेक्शनलजेंडर “शादी कर दो लड़का सुधर जाएगा” इस बेतुकी सोच से कब निकलेगा हमारा पितृसत्तात्मक समाज

“शादी कर दो लड़का सुधर जाएगा” इस बेतुकी सोच से कब निकलेगा हमारा पितृसत्तात्मक समाज

ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज के इस थोपे हुए रिवाज में शादी के नाम पर कई बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर आज भी कोई लड़का गैर-ज़िम्मेदार प्रवृति का होता है तो उसके लिए एक ही बात कही जाती है, "इसकी शादी कर दो, सुधर जाएगा।"

हमारे भारतीय समाज में बच्चा पैदा होते ही उसकी शादी के सपने देखना परिवारवाले शुरू कर देते हैं। पितृसत्ता ने शादी को हमारे सामाजिक जीवन का एक अहम हिस्सा बनाया हुआ है। एक बच्चे को बचपन से ही शादी की कहानी-किस्से सुनाकर उसे यह बताया जाता है कि उसकी ज़िंदगी का सबसे ज़रूरी काम शादी करना है। बच्चों की शादी हमारे समाज में माता-पिता के लिए जीवन का सबसे बड़ा सपना होता है। लड़के के माता-पिता को जहां एक ओर अपने खानदान और वंश बढ़ाने के लिए शादी को ज़रूरी मानते हैं तो वहीं लड़की के घरवालों का मकसद उसे ‘अपने’ घर भेजना होता है। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज के इस थोपे हुए रिवाज में शादी के नाम पर कई बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर आज भी कोई लड़का गैर-ज़िम्मेदार प्रवृति का होता है तो उसके लिए एक ही बात कही जाती है, “इसकी शादी कर दो, सुधर जाएगा।” समाज का शादी को सुधारगृह के नज़रिये से देखने के कारण एक एक लड़की को हमेशा से ही कई चुनौतियों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

बबीता (बदला हुआ नाम) की शादी को पंद्रह साल हो गए हैं। उनके शादीशुदा जीवन में कुछ भी सामान्य नहीं है। हर रोज़ की लड़ाई-झगड़े, पैसों की तंगी और बच्चों पर पड़ते इसके बुरे असर के कारण वह शादी के रिश्ते को तोड़ने का मन होने के बावजूद भी उसमें बनी हुई है। दो बेटियों की माँ होने के कारण बबीता पर इस शादी में टिके रहने का बहुत ज्यादा दबाव है। अगर वह अपने घर की परेशानी के बारे में अपने परिवार व माता-पिता से इस विषय में बात भी करती हैं तो उनको वही रटी-रटाई बातें सुनने को मिलती हैं जो उन्हें बचपन में सिखाई जा रही है। “अब वही तुम्हारा घर है, तुम्हारा पति ही तुम्हारा सब कुछ है, दो बेटियों को लेकर इस दुनिया में कैसे रहोगी और शादी में थोड़ा बहुत तो मैनेज करना ही पड़ता है।”

बबीता के अनुसार शुरुआत से लेकर अब तक उनके पति का रवैया ऐसा ही है। जब शादी से पहले वह अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझ रहे थे और गलत संगत में थे तो उनके माता-पिता ने उन्हें ‘सुधारने’ के लिए उनकी शादी करवा दी। उनके अनुसार उनके बेटे पर अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियां पड़ेगी तो यह सुधर जाएगा। इस विचार से शुरू हुई इस शादी में एक लंबा वक्त गुजरने के बाद आज भी ज़िम्मेदारियों और रिश्ते में मौजूद सारी परेशानियों का बोझ बबीता पर ही है।  

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ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज के इस थोपे हुए रिवाज में शादी के नाम पर कई बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर आज भी कोई लड़का गैर-ज़िम्मेदार प्रवृति का होता है तो उसके लिए एक ही बात कही जाती है, “इसकी शादी कर दो, सुधर जाएगा।”

लैंगिक भेदभाव है एक बड़ी वजह

भारतीय परिवारों में एक बेटे और बेटी में अंतर करना बहुत ही सामान्य है। यहां एक ही उम्र के दो बच्चों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है। समाज के जेंडर के खांचे में बांटकर लड़के और लड़कियों के साथ व्यवहार किया जाता है। बेटे को स्वतंत्रता और ज़िद करने की छूट दोनों मिलती है तो बेटियों के हिस्से पाबंदियां ज्यादा आती हैं। इसी लैंगिक असमानता से भरी परवरिश की वजह से लड़कों का व्यवहार गैर-जिम्मेदार और हिंसक तक हो जाता है, लेकिन ‘खानदान के दीपक’ का यह व्यवहार भी सामान्य माना जाता है।

“लड़का है हो जाएगा ठीक” जैसी बात करता परिवार बेटियों के लिए नियम-कानूनों की एक लिस्ट बनाए रखता है। लड़के और लड़की की परवरिश में किया जानेवाला यह अंतर बचपन से लेकर जीवन के हर पहलू में शामिल रहता है। पितृसत्ता के नियमों पर आधारित यह परवरिश लड़कों को हमेशा स्वतंत्रता की ओर बढ़ाती है। दूसरी ओर लड़कियों के लिए यहां कदम-कदम पर निगाहें रखी जाती है। शादी की पंरपराओं और मर्यादाओं के पाठ भी लड़कियों को बचपन से ही पढ़ाना शुरू कर दिया जाता हैं। बात-बात में बेटियों को ‘दूसरे घर जाने’ की उलाहना और खुद की स्वतंत्रता को खत्म करना सिखाया जाता है।

शादी को निभाना और पति के हर व्यवहार को स्वीकारना ही उसका कर्तव्य बताया जाता है। इस तरह के भेदभाव में बड़े होते बच्चों के व्यवहार में भी यह असमानता बैठ जाती है। लड़का स्वंतत्रता को अपना अधिकार मानता है और लड़की को मर्यादा और घर की ज़िम्मेदारी ही उसका जीवन लगती है। परिवार के लैंगिक भेदभाव के इस व्यवहार को ही सच मानकर इसे अपना लिया जाता है। पितृसत्ता का भेदभाव वाला व्यवहार जीवन के हर स्तर में लड़के और लड़कियों पर लागू कर दिया जाता है। शादी इस व्यवहार को आगे बढ़ाने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले परिवारों में शादी की परंपरा में भी लड़के को जो आजादी दी जाती है वह एक लड़की के पास नहीं है। इस तरह इस लैंगिक भेदभाव को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता है।  

शादी का सुधार से क्या मतलब

हमारे समाज में एक लड़के और लड़की के लिए शादी के दो अलग-अलग मायने बनाए गए हैं। जहां अक्सर समाज में लड़के को सुधारने तक के लिए उसकी शादी कर दी जाती है, वहीं लड़की के लिए यह जिम्मेदारियों की एक गठरी है। इस गठरी को उसे जीवनभर न केवल लादे रखना है बल्कि उसमें पैदा हुई परेशानियों को भी सहना है। समाज का यह रवैय्या पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है। एक गैर-ज़िम्मेदार, अशिक्षित, हिंसक व्यवहार के बावजूद भी लोग उसकी शादी के नाम पर न केवल झूठ बोलते हैं बल्कि उसके पक्ष में बड़े-बड़े कसीदे पढ़ते हैं। समाज के इस दोहरेपन के कारण एक लड़की को जीवनभर परेशानियों के जाल में रहना पड़ता है।

पितृसत्ता के तय किए गए पाठ्यक्रम में शादी के द्वारा एक महिला के जीवन पर शासन करने की सीख दी जाती है। उसे घर और रिश्तों की कैद में रहने के लिए मजबूर किया जाता है। ये कैसे नियम हैं कि अगर लड़का नशा करता है, कुछ काम नहीं करता है तो उसको सुधारने के लिए उसकी शादी कर दो। शादी के बाद भी उसका यह व्यवहार चलता है तो उसकी पत्नी की मजबूरी न केवल उस खराब रिश्ते में रहना है, बल्कि बाकी परेशानी को सुलझाना भी है। समाज के शादी के नियमों में स्थित इस पक्षपात के कारण न जाने कितनी महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ता है। लड़कों को सुधारने के लिए होनेवाली शादी के कारण कई बार बच्चों के बचपन पर भी बुरा असर पड़ता है। पिता की लाहपरवाही के कारण बच्चे भी उससे प्रभावित होते हैं और इसका सारा इल्ज़ाम केवल माँ पर लगया जाता है। साथ ही यह सोच पितृसत्ता द्वारा एक महिला के साथ होने वाले सबसे बुरे व्यवहार में से एक है। जानबूझकर उसके जीवन को एक ऐसे व्यक्ति के साथ रिश्ता निभाने के लिए छोड़ दिया जाता है जहां उसे सिवाय कष्ट के कुछ नहीं मिलता।  

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‘लड़की है ज़िम्मेदारी उसका फर्ज़ है’ यह कैसी सोच है

शादी के रिश्ते में मौजूद इस असमानता के कारण लड़कियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। बल्कि सीधे दिख रही समस्याओं में भी उनको जानबूझकर डाला जाता है। समाज के पितृसत्तात्मक नियमों के अनुसार एक परिवार को महिला ही बनाती है। इस नियम के आधार पर औरतों को बचपन से लेकर ताउम्र ज़िम्मेदारियों के बोझ में फंसाए रखा जाता है। लड़के को सुधारने की मंशा पर होने वाली अरेंज्ड मैरिज में लड़की जिसे जानती भी नहीं उस पर बाकी जिम्मेदारियों के साथ ये सब भी थोप दिया जाता है।

पितृसत्ता के बनाए नियमों मे एक लड़का और लड़की कभी समान नहीं होते हैं, किसी भी स्थिति में नहीं। यहां एक लड़के को जितनी स्वतंत्रता और गलतियां करने की छूट है एक लड़की के पास बिल्कुल नहीं है। शादी जैसे रिश्ते में पितृसत्ता की चालाकियां महिलाओं से उनकी पहचान छीनती आ रही हैं। “शादी के बाद लड़के सुधर जाएंगे” जैसी सोच दिखाती है कि रिश्तों और परंपरा के नाम पर कैसे एक महिला को दबाया जा रहा है। दूसरी ओर शादी का किसी व्यक्ति को सुधारने से क्या वास्ता है। यदि कोई पुरुष जीवनभर गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार रखता है तो इसमें एक महिला को भी दोष देने का चलन है। इस तरह की सोच समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देती है। महिलाओं को मजबूरी में ऐसे रिश्तों में रहने के लिए भी मजबूर कर देती है, जिसमें वह केवल एकतरफा प्रयास करती रहती है।

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तस्वीर साभारः India TV

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