इंटरसेक्शनलहिंसा सुरक्षा नियम वाली कंडिशनिंग जो महिला-हिंसा को सामान्य बनाती है| नारीवादी चश्मा

सुरक्षा नियम वाली कंडिशनिंग जो महिला-हिंसा को सामान्य बनाती है| नारीवादी चश्मा

करमसीपुर गाँव में रहने वाली सुधा (बदला हुआ नाम) के घरवालों ने बारहवीं के बाद उसकी पढ़ाई ये कहकर रुकवा दी कि वो घर के काम में हाथ बंटा सके। इतना ही नहीं, सुधा को कहीं भी आने-जाने की आज़ादी नहीं है। उसे सिर्फ़ पिता और भाई के साथ ही कहीं जाने की अनुमति होती है। पर जब किशोरी बैठक में सुधा से परिवार और समाज में होने वाले संघर्षों पर बात हुई तो उसने कहा कि ‘हमारे घर में सब ठीक है। सभी महिलाओं की स्थिति अच्छी है। मेरे पिता और भाई हमें बहुत मानते है और मेरी सुरक्षा का ख़ास ध्यान रखते है।‘  

गाँव हो या शहर, अक्सर जब हमलोग महिलाओं के मुद्दे पर बात करते है, ऐसी बातें सुनने को मिलती है, जब उनके लिए सुरक्षा की बात की जाती है। पितृसत्ता महिलाओं की कंडिशनिग ऐसे करती है कि उन्हें हमेशा ख़ुद को सुरक्षित रहने की ज़रूरत महसूस होती है। पर इस सुरक्षा के नामपर महिलाओं को उनके शिक्षा, रोज़गार और विकास के सभी अवसरों से दूर कर इसे उनकी सुरक्षा के लिए ज़रूरी और कई बार एकमात्र उपाय बताया जाता है।

पितृसत्ता का मूल ही है ‘महिलाओं को हमेशा पुरुषों से कमतर बनाए रखना।‘ इसके लिए पितृसत्ता ‘हिंसा’ का एकमात्र साधन अपनाती है। ग़ौरतलब है कि ये हिंसा कई बार हमें दिखाई पड़ती है पर कई बार ये हमें दिखाई ही नहीं पड़ती है। जी हाँ, पितृसत्ता में महिलाओं की कंडिशनिग इस तरह की जाती है उन्हें ख़ुद भी अपने साथ होने वाली तमाम हिंसाएँ दिखायी नहीं देती है। ज़ाहिर है जब हमें अपने साथ होने वाली हिंसा का अहसास ही नहीं होगा तो हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना तो बहुत दूर बात है।

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पर इन सबमें सबसे ज़रूरी सवाल ये है कि आख़िर महिलाओं को सुरक्षा की ज़रूरत क्यों है? उन्हें किस बात का डर है और ये डर किससे है? यों तो महिला हिंसा के कई रूप है – बलात्कार, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न व एसिड अटैक, ताज्जुब की बात ये है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली इन सभी हिंसाओं में पुरुषों की भूमिका सबसे अहम होती है और इन हिंसाओं के महिलाओं को सुरक्षित करने के लिए पुरुषों को ही उनकी रक्षा का ज़िम्मा दिया जाता है। सरल शब्दों में समझा जाए तो – यहाँ पुरुषों से होने वाली हिंसा को रोकने का ज़िम्मा दूसरे पुरुषों को सौंपा जाता है, वो दूसरे पुरुष जो खुद किसी के पिता, भाई या पति की भूमिका में होते है।

महिलाओं का ख़ुद की सुरक्षा के लिए पुरुषों को ज़रूरी मानने की प्रवृत्ति उनके आत्मविश्वास और विकास के सभी अवसरों को प्रभावित करती है।

कोरोना महामारी का दौर हो या सामान्य दिन महिला हिंसा से जुड़ी खबरें और रिपोर्ट हमेशा सामने आती रही है और लगातार आ भी रही है। अगर बात करें अपने देश भारत की तो यहाँ बाल विवाह, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, एडिस अटैक और घरेलू हिंसा जैसे अलग-अलग रूप में आधी आबादी को हिंसा का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हर 3 में से 1 महिला अपने जीवन में एक न एक बार ज़रूर किसी तरह की हिंसा की शिकार होती है। लेकिन कोरोना महामारी के दौर में महिला हिंसा का भी वीभत्स रूप देखने को मिला।महिला संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से क़रीब 13 देशों में किए गए सर्वे के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान हर 3 में से 2 महिलाओं ने किसी न किसी तरह की हिंसा और यहाँ तक की खाने के संकट का भी सामना किया। इसमें दुर्भाग्य की बात ये है कि हिंसा की शिकार होने वाली 10 महिलाओं में से सिर्फ़ 1 महिला को ही पुलिस की मदद मिल पाती है। महिला हिंसा से जुड़े ये आँकड़े डरा देने वाले है और जब हम इन आँकड़ों पर ग़ौर करेंगें तो ये किसी युद्द जैसी स्थिति मालूम होती है।

पितृसत्ता ने महिलाओं के लिए सुरक्षा को ज़रूरी तो बना दिया, लेकिन रक्षक और हिंसक दोनों भूमिकाओं में रहने का विशेषाधिकार बेहद संजीदगी से पुरुषों के हाथ में दिया, जिसका इस्तेमाल वे अपने हिसाब से करते है। पुरुषों की रक्षक और हिंसक की भूमिकाओं के बीच आहुति होती है महिलाओं के बुनियादी अधिकारों की, उनके मानवाधिकारों की। उन्हें सुरक्षा के नामपर ज़्यादा पढ़ाया नहीं जाता। उन्हें अपने मन से कहीं भी आने-जाने की आज़ादी नहीं होती। उनकी खाने की थाली से लेकर उनके पहनावे तक, उनके रोज़गार से लेकर उनकी शादी तक, जैसे सभी बुनियादी फ़ैसलों पर सुरक्षा के नामपर पुरुषों का शिकंजा होता है।

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बचपन से ही महिलाओं के मानवाधिकारों की हिंसा करने करने वाले पितृसत्ता ये सुरक्षा-नियम के साथ समाज का पूरा सिस्टम इस तरह महिलाओं की कंडिशनिग करता है कि उन्हें ख़ुद भी एक समय के बात इनकी आदत हो जाती है और ये सामान्य लगने लग जाता है और सुरक्षा के नामपर महिलाओं के ऊपर लगने वाली पाबंदियाँ उन्हें ज़रूरी लगने लगती है, जिसे उजागर करना बेहद ज़रूरी होता है। क्योंकि हिंसा के साथ ज़िंदगी जीने के लिए अभ्यस्त हो जाना, बहुत सरलता से हिंसा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आने बढ़ाने और इसे सामान्य मानकर ज़रूरी रूप से स्वीकारने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है, जो उनकी कंडिशनिग का काम करती है। जैसा सुधा के साथ हुआ, जब वो अपने साथ होने वाली हिंसा को ‘ठीक’ मान लिया।

हमें याद रखना चाहिए की महिलाओं का ख़ुद की सुरक्षा के लिए पुरुषों को ज़रूरी मानने की प्रवृत्ति उनके आत्मविश्वास और विकास के सभी अवसरों को प्रभावित करती है, क्योंकि आगे बढ़ने के हर पायदान में महिलाएँ सुरक्षा के लिए पुरुषों का मुँह ताकती है, जो महिलाओं को पुरुषों पर आश्रित होना बनाता है और ये पुरुषों का विशेषाधिकार बन जाता है, वो विशेषाधिकार जिसका इस्तेमाल हमेशा महिला के ख़िलाफ़ किया जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि सुरक्षा के नामपर महिलाओं के साथ होने वाली इन हिंसाओं को उजागर किया जाए, क्योंकि बिना हिंसा की पहचान के हम कभी भी बुनियादी रूप से समानता की बात नहीं कर सकते है।  

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तस्वीर साभार : scroll.in

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