इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों हम अपने परिवार की औरतों से खाने में उनकी पसंद के बारे में नहीं पूछते ?

क्यों हम अपने परिवार की औरतों से खाने में उनकी पसंद के बारे में नहीं पूछते ?

जब हमलोग महिलाओं के खाने को लेकर बात करते हैं इसमें पितृसत्ता का पूरा चक्र दिखाई पड़ता है। अधिकतर महिलाओं और किशोरियों का खाने को लेकर अपनी कोई पसंद का ना होना भी इसका एक उदाहरण है

जब मैं छोटी थी तब पापा की पसंदीदा सब्ज़ी की अक्सर घर पर बनती, लेकिन माँ को कौन सी सब्ज़ी पसंद थी, यह मैं नहीं जान पाई। जब भी माँ से ये सवाल करती तो वो पापा के खाने की पसंद को ही अपनी पसंद बताती। जैसे-जैसे बड़ी होती गई रसोई की ज़िम्मेदारी माँ के बाद मेरे हिस्से आने लगी और पापा की पसंद के साथ-साथ बड़े भाई की पसंद का खाना घर में ज़्यादा पकने लगा। कई बार ऐसा होता था जब घर में पापा-भाई के खाने के बाद हम बहने और माँ खाना बैठते और खाना कम पड़ जाता।

जैसे-जैसे मैंने गाँव में महिलाओं और किशोरियों एक साथ पोषण के मुद्दे पर बैठक करनी शुरू की तो चर्चा में हमेशा यही बात सामने आती कि खाने को लेकर महिलाओं और किशोरियों की अपनी कोई पसंद होती ही नहीं थी, जो उनके घर के पुरुषों को भाता था वही उन महिलाओं को भी पसंद रहता। यूनिसेफ़ के अनुसार, भारत में माँ बनने-योग्य आयु की एक चौथाई महिलाएँ कुपोषित हैं और उनका बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) 18.5 किलोग्राम/एमसे कम है। यह सभी को पता है कि एक कुपोषित औरत अवश्य ही एक कमजोर बच्चे को जन्म देती है और कुपोषण चक्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

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महिला और किशोरियों में कुपोषण के आंकड़े डरानेवाले हैं। हालांकि, जब हमलोग महिलाओं के खाने को लेकर बात करते हैं इसमें पितृसत्ता का पूरा चक्र दिखाई पड़ता है। अधिकतर महिलाओं और किशोरियों का खाने को लेकर अपनी कोई पसंद का ना होना भी इसका एक उदाहरण है, जो भेदभाव का एक रूप और कुपोषण की एक वजह भी है। अब आपको लगेगा कि इसमें पितृसत्ता कैसे संबंधित है, अगर किसी महिलाओं को खाने में कुछ ख़ास पसंद नहीं है तो इसमें क्या अजीब है? पर अगर अधिकतर महिलाओं को खाने को लेकर कुछ विशेष पसंद ही न हो या वे उनके घर के पुरुषों की पसंद ही उनकी भी पसंद भी हो तो क्या यह बात थोड़ी अजीब नहीं?

दरअसल जैसा कि हम लोग जानते हैं आज भी महिलाएं ही घर की रसोई की ज़िम्मेदारी उठाती हैं। वे नौकरी करें या नहीं, उनकी मर्ज़ी हो या नहीं पर महिलाओं को अभी भी खाना पकाने की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठानी पड़ती है। ऐसे में जब उनकी पसंद घर के पुरुषों के अलग होगी तो ज़ाहिर है सबसे पहले उससे खर्च बढ़ेगा, और पितृसत्ता बताती है कि अच्छी औरत कभी भी ज़्यादा या फ़ालतू का खर्च नहीं करती है। वह हमेशा बचत करती है और हर बचत वह अपने हिस्सों की चीजों का बलिदान करके ही कर सकती है। इसलिए धीरे-धीरे महिलाओं की पसंद सिकुड़ती जाती है।

जब हम लोग महिलाओं के खाने को लेकर बात करते हैं इसमें पितृसत्ता का पूरा चक्र दिखाई पड़ता है। अधिकतर महिलाओं और किशोरियों का खाने को लेकर अपनी कोई पसंद का ना होना भी इसका एक उदाहरण है

दूसरा, जब महिलाओं की पसंद घर के पुरुषों के अलग होगी तो उन्हें ख़ुद की पसंद का खाना भी पुरुषों के हिस्से के खाने के साथ बनाना पड़ेगा, इसलिए भी अतिरिक्त काम के बोझ के चलते महिलाएँ अपनी पसंद की खाने की चीजें बनाने से कतराती हैं। ये सब हमें निम्न मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों में ज़्यादा साफ़तौर पर देखने में मिलता है क्योंकि इन परिवारों में दो वक्त की रोटी जुटाना किसी चुनौती से कम नहीं होता है। ऐसे में महिलाओं की थाली कहीं हाशिये पर चली जाती है।

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ये सब कुछ इतनी सहजता से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है कि महिलाएं पुरुषों की पसंद को ही अपनी पसंद मानने को स्वाभाविक समझने लगती हैं। ये सब ऐसे चलता है कि कभी कोई उनसे पूछता भी नहीं कि खाने को लेकर उनकी पसंद क्या है। ये व्यवहार समाज की उस सोच को भी दर्शाता है, जो महिलाओं के पोषण को ज़रूरी नहीं समझता है। यही वजह है कि महिलाओं और ख़ासकर किशोरियों में कुपोषण की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ऐसे कई रिपोर्ट हैं जो बताती हैं कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा लंबे समय तक काम करती हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके पोषण पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

आमतौर पर पितृसत्ता का प्रभाव अक्सर हम अपने घर की व्यवस्था में देखते हैं, पर इसका प्रभाव हम लोगों की दो वक्त की रोटी पर भी कितना ज़्यादा है, इसका अंदाज़ा हमलोग महिलाओं के खाने की पसंद और उनके ख़ाने से समय से लगा सकते हैं। आज हम लोग महिला विकास और समानता की बात कर रहे हैं, पर अब इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि अभी तक हम अपने देश की महिलाओं तक पोषण युक्त खाना नहीं पहुंचा पाए हैं। 

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तस्वीर साभार : BBC

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