नारीवाद भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में नारीवाद की पहुँच ज़रूरी है

भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में नारीवाद की पहुँच ज़रूरी है

भारत में नारीवादी आंदोलन को अभी लंबी यात्रा करनी है। नारीवादी आंदोलन भारत में अपने सही उद्देश्य को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता है जब तक भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पहुंच मजबूत नही कर लेता। भारत की आधी से अधिक आबादी गांव में बसती हैं। 2019 के मुकाबले 2020 में भारतीय ग्रामीण आबादी में 0.29 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। मेरा संबंध हमेशा गांव से रहा है। गांव के रहन-सहन को अच्छे से समझती हूं। यही वजह है कि मुझे गांव में नारीवादी शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता महसूस होती है। गांव के लोगों में पितृसत्तामक सोच बहुत गहरी बसी हुई है। अधिकांश ग्रामीण महिलाओं के लिए ‘नारीवाद’ शब्द अजनबी है। पितृसत्तामक सोच के संरक्षण में पली ग्रामीण महिलाएं आगे चल कर इसके लिए एजेंट का काम करती हैं। इसलिए आने वाले समय में नारीवाद का ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचना अति आवश्यक है।

आज भी गांव से दूर है नारीवाद

मैंने अपनी स्कूली शिक्षा गांव मे रह कर पूरी ही है। जीवन के लगभग 17-18 वर्ष बिताने के बाद कॉलेज में आकर मैं नारीवादी संघर्ष और इसके आदर्शो से परिचित हुई। इससे पहले मैं भी बहुत सी पितृसत्तात्मक विचारों को सही समझने की भूल करती थी क्योंकि स्कूली शिक्षा में उन विचारों पर कभी सवाल उठाना नहीं सिखाया गया। यदि आज भी मैं किसी रूढीवादी सोच पर सवाल उठाती हूं तो सबसे पहले घर-गांव की महिलाओं से ही उसका विरोध सहना पड़ता है। ग्रामीण समाज में पितृसत्तात्मक विचारधारा इतनी गहरी है कि खुद को इस से बाहर निकालना बहुत मुश्किल है। जब अधिकांश ग्रामीण इलाकों में लड़कियो का जन्म होता है, तो घर की महिलाओ को भी इस पर खुशी नही होती है। उनके लिए लड़कियों की परवरिश एक परेशानी है, और घर मे बेटा का जन्म होना संपत्ति है। पहली संतान यदि लड़की है तो उसे यह कहकर स्वीकार किया जाता है कि ‘भगवान अगला लड़का ही दे।’

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संविधान ने सभी को शिक्षा का अधिकार है, लेकिन आज भी यह अधिकार ग्रामीण महिलाओं के लिए वास्तविकता से काफी दूर है। तमाम तरह के भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए शिक्षा की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं देखा गया है। इसके कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं। ग्रामीण महिलाओं का शिक्षादर बेहद कम है। बालिकाओं की शिक्षा को परिवार द्वारा ज़रूरी नहीं समझा जाता है। महिलाओं की सुरक्षा और महिला शिक्षकों की कमी भी इसका मुख्य कारण है। ग्रामीण महिलाओं को बचपन से ही छोटे भाई-बहनों की देखभाल, खाना पकाने, घरेलू कामकाज, में शामिल होना पड़ता है। लड़कियों की शादी भी बहुत कम उम्र में कर दी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की उम्र से पहले ही कर दिया जाता है। ऐसी घटनाएं कानून की पहुंच से दूर रहती हैं। आस-पड़ोसी भी इन घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते क्योंकि उनके लिए भी लड़कियो का जल्दी विवाह करना माता-पिता के लिए एक बड़ा बोझ उतरने के सामान हैं। सरकार द्वारा लड़कियों की विवाह की उम्र में बदलाव का ग्रामीण इलाकों की ऐसी घटनाओं पर शायद ही कोई असर हो। गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं को बढ़ावा अक्सर महिलाएं ही देती हैं। ग्रामीण महिलाएं अपनी पसंद नापसंद को ज्यादा तवज्जो नहीं देती। उनके लिए परिवार और बच्चों की खुशी ही महिला जीवन का असली धर्म है। जिस तरह उन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया है, वैसे ही जीवन का चयन वे अपने घर की अन्य महिलाओं के लिए करती हैं। पर यह उनके खुद के दोष से अधिक उनके अंदर बसी पितृसत्तात्मक सोच का दोष है। जिस कारण उन्हें यह सब गलत नजर नही आता अपितु वे इसको ही एक सफल ‘महिला जीवन’ के तौर पर समझती है।

स्कूल बढ़ा रहे लैंगिक असमानता

रूढ़िवादिता, समावेशी समाज के लिए खतरा है। अगर हम बच्चों को नारीवाद नहीं सिखाएंगे तो वे रूढ़ियों पर ही विश्वास करेंगें। ग्रामीण स्कूलों में आज भी व्यवस्थित तरीके से पितृसत्तात्मक सोच की शिक्षा दी जाती है। लड़कियो को उनके हेयर स्टाइल, यूनिफॉर्म और लडकों के साथ बोलने के कारण ओब्जेकटिफाई किया जाता है। को-एजुकेशन(सहशिक्षा) स्कूल बच्चों के सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है। इसी उद्देश्य के साथ को-एजुकेशन स्कूल खोले जाते हैं। इसका एक सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि यह बच्चों को वयस्क सामाजिक जीवन के लिए तैयार करती है। लेकिन गांवों के को-एजुकेशन स्कूलों में लड़के-लड़कियो को साथ बातचीत और बैठने तक की इजाजत नहीं होती है। यह बालिकाओं द्वारा गलत व्यवहार की सूची में आता है।

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स्कूलों के ड्रेस कोड बालिकाओं को खुद को यौन रूप से समझने पर मजबूर करते हैं। उन्हें यह आभास कराया जाता है कि उनके शरीर लड़कों को उत्तेजित या उकसाने का कारण हैं। इसलिए उन्हें अपने शरीर को ढकने की जरूरत है। ऐसा करने से वह उत्पीड़न से बचने की जिम्मेदारी अपराधियों की बजाय लड़कियों पर ही डालता है। छात्रों को उनके यौवन परिवर्तन और हार्मोन के बारे में सिखाने के बजाय, स्कूल उन्हें बताते हैं कि किशोरवस्था में विपरीत लिंग के लिए जो स्नेह वह महसूस करते हैं, वह पूरी तरह गलत है। सम्मानित परिवार और समाज के लोग ऐसा नहीं करते हैं। स्कूल छात्रों को उनके शरीर में महसूस होने वाले शारीरिक परिवर्तनों और एक निश्चित उम्र में शरीर की मांग के बारे में नहीं पढ़ाते हैं, बल्कि वे सिर्फ उन्हें किताबों में अंकित प्रजनन प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। जहां कंसेंट जैसी जरूरी बातो का ज़िक्र तो होता ही नही है। अधिकांश ग्रामीण स्कूलो में, लगभग कक्षा छह के दौरान छात्राओं का अलग वर्ग बना दिया जाता है ताकि लड़कों की उपस्थिति में लड़कियों से संबंधित किशोर चीजों पर वार्ता से बचा जा सकें।

ये चीजें पितृसत्ता का महिमामंडन करती हैं। इन बातों को सामान्य समझकर ही लड़के लड़कियां पढ़ते और बढ़ते हैं। वे पितृसत्ता के मानदंडो पर सवाल उठाने से इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें ये चीजें सही और सामान्य लगती हैं। इससे समाज में और अधिक लैंगिक असमानता पैदा होती है। हमें बच्चों को नारीवाद सिखाने की जरूरत है ताकि वे दुनिया में अधिक समानता के साथ बड़े हों। इसलिए स्कूलों खासकर ग्रामीण स्कूलों में हेल्थ और लैंगिक समानता की शिक्षा का होना अनिवार्य होना चाहिए। पितृसत्ता की जड़े भारतीय गांवों में गहरी हैं और इसी कारण ग्रामीण महिलाओं को सबसे अधिक लैंगिक असमानता का सामना करना पड़ता है। फिर भी उन्हें इस पर आपत्ति नहीं है क्योंकि उन्होंने इसे ही एक मात्र रास्ता मान लिया है। लेकिन शायद ही वे जानते हैं कि वे पितृसत्ता की शिकार है। एक समावेशी दुनिया के अपने लक्ष्य को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए नारीवाद को भारतीय गांवों मे अपना स्थान और अधिक मजबूत करने की जरूरत है।

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तस्वीर साभारः The Quint

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