इतिहास रामादेवी चौधरीः स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक| #IndianWomenInHistory

रामादेवी चौधरीः स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक| #IndianWomenInHistory

रामादेवी चौधरी एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थीं। उड़ीसा (अब ओडिशा) के लोग उन्हें प्यार से 'अम्मा' कहकर पुकारते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए रामादेवी चौधरी कई बार जेल गईं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। गांव-गांव जाकर बड़ी संख्या में महिला आंदोलनकारियों ने देश के लोगों को आज़ादी के आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। इसी कड़ी में एक नाम हैं रामादेवी चौधरी का। रामादेवी चौधरी एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थीं। उड़ीसा (अब ओडिशा) के लोग उन्हें प्यार से ‘अम्मा’ कहकर पुकारते थे।

रामादेवी चौधरी का जन्म तीन दिसंबर 1899 को उड़ीसा में हुआ था। इनके पिता का नाम गोपाल वल्लभ दास था। इनकी माता का नाम बसंत कुमारी देवी था। रमादेवी के चाचा उत्कल गौरव मधूसूदन दास उस समय के उड़ीसा के प्रसिद्ध वकील, समाज सुधारक थे। अपने चाचा की संगत में रहकर ही रामा देवी की आंदोलन में शामिल होने की रूचि पैदा हुई थी। इनका विवाह मात्र 15 साल की उम्र में गोपालबंधु चौधरी के साथ हुआ था। गोपालबंधु डिप्टी कलक्टर थे। इनके दो बेटे और एक बेटी थी। पति के सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद ये दोनों स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्णरूप से शामिल होने लगे।

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साल 1921 में रामादेवी चौधरी अपने पति के साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुई थीं। 23 मार्च 1921 में महात्मा गांधी की पहली उड़ीसा यात्रा के दौरान इनकी मुलाकात उनसे हुई थी। वह महात्मा गांधी से बहुत अधिक प्रभावित हुई थीं। उन्होंने असहयोग आंदोलन में बहुत सक्रिय होकर हिस्सा लिया था। वह गांव-गांव जाकर महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। इसके बाद इसी वर्ष वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गई थी। महात्मा गांधी के गहरे प्रभाव के बाद उन्होंने खादी की साड़ी पहननी शुरू कर दी।

रामादेवी चौधरी एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थीं। उड़ीसा (अब ओडिशा) के लोग उन्हें प्यार से ‘अम्मा’ कहकर पुकारते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए रामादेवी चौधरी कई बार जेल गईं।

साल 1930 में रामादेवी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लिया। इस आंदोलन को अधिक विस्तृत करने के लिए रामादेवी चौधरी अन्य साथियों के साथ उड़ीसा के कई हिस्सों में गई। वह इंचुदी और सृजंग जैसे क्षेत्रों में किरनवाला सेन, मालती देवी और सरला देवी के साथ गई। बाद में रामादेवी को इनके साथियों के साथ जेल में डाल दिया गया। साल 1931 में गांधी-इर्विन समझौते के तहत सभी कैदियों को रिहा किया गया। 1931 में ही उन्होंने कांग्रेस के करांची अधिवेशन में हिस्सा लिया। इस अधिवेशन में उन्होंने अगले सत्र को उड़ीसा में आयोजित करने का अनुरोध किया।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए रामादेवी चौधरी कई बार जेल गईं। साल 1932 में इन्हें हजारीबाग जेल से रिहा किया गया। साल 1934 में जब महात्मा गांधी ने पुरी से आंदोलन की शुरुआत की तब रमादेवी जी ने एक बार फिर गांवों की यात्रा की। उन्होंने लोगों को अस्पृश्यता के मुद्दे पर जागरूक किया। इसी दौरान उड़ीसा में आंदोलन में कस्तूरबा गांधी, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद, जवाहरलाल नेहरू और अन्य नेता भी शामिल हुए।

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भारत छोड़ो आंदोलन में योगदान

8 अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू होने के बाद रामादेवी के पूरे परिवार ने इसमें हिस्सा लिया था। आंदोलन में शामिल होने के लिए रामादेवी और इनके पति गोपालबंधु चौधरी को गिरफ्तार भी कर लिया गया था। जेल से रिहा होने के बाद रामादेवी ने बारी में एक आश्रम की स्थापना की थी। महात्मा गांधी ने उस आश्रम को ‘सेवाघर’ नाम दिया था। इस आश्रम में अस्पृश्यता के खिलाफ जागरूकता, महिला सशक्तिकरण, स्वच्छता के बारे में लोगों को जानकारी दी जाती थी। कस्तूरबा गांधी के देहांत के बाद गांधी जी ने रामादेवी जी की काम के प्रति सजगता और विचारों की प्रतिबद्धता देखकर उनको कस्तूरबा ट्रस्ट के उड़ीसा प्रभाग की जिम्मेदारी दी थी।

स्वतंत्रता संग्राम के बाद रामादेवी का जीवन

1947 में भारत के आज़ाद के बाद रामादेवी जन-जागरूकता के कार्यक्रम में लगी रहीं। आज़ादी के बाद भी वह गांधी दर्शन के प्रचार-प्रसार में लगी रहीं। उत्कल क्षेत्र में खादी आंदोलन को खड़ा करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। इसके बाद वह आचार्य विनोबा भावे के द्वारा चलाए भूदान और ग्रामदान आंदोलन से जुड़ीं। साल 1952 में उन्होंने अपने पति के साथ भूमिहीनों और गरीबों को भूमि और धन की समानता के संदेश को प्रचार करने के लिए यात्रा की। इस दौरान उन्होंने राज्य भर में लगभग 4000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की। 1928 में रामादेवी ने जगतसिंहपुर में रुकी। उन्होंने उत्कल खादी मंडल की स्थापना करने में मदद की। साथ ही उन्होंने रामचंद्रपुर के बलवाड़ी में टीचर्स ट्रेनिंग सेंटर की स्थापना की। साल 1950 में उन्होंने डुम्बुरुगेड़ा में एक आदिवासी कल्याण समिति की भी स्थापना की। 1951 के अकाल के दौरान उन्होंने राहत कार्यों में योगदान दिया। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान सैनिकों की मदद के लिए भी काम किया। उनके लिए संसाधन जुटाने के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किए।

आपातकाल के दौरान उन्होंने लोगों को लोकतांत्रिक अधिकारों पर रोक लगाए जाने का विरोध किया था। आपातकाल के विरोध के लिए उन्होंने अपना समाचार पत्र निकाल कर तत्कालीन सरकार का विरोध किया। प्रेस सेंसरशिप के विरोध में रामादेवी की ग्रामीण सेवक प्रेस को सरकार ने प्रतिबंध कर दिया था। रमादेवी सहित नभकृष्णा चौधरी, हरेकृष्णा महताब, मनमोहन चौधरी, श्रीमती अन्नपूर्णा मोहरना, जय कृष्णा मोहंती और अन्य नेताओं को गिरफ्तार किया गया। रमादेवी समाज के कल्याण के लिए सदैव काम करती रही थी। उन्होंने प्राथमिक स्कूल शिशु विहार की स्थापना की। इसके अलावा कटक में एक कैंसर अस्पताल की भी स्थापना की थी।

4 नवंबर 1981 में रामा देवी को राष्ट्र के लिए उनकी सेवाओं के सम्मान में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 16 अप्रैल 1984 में उत्कल विश्वविघालय द्वारा डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी से सम्मानित किया गया। उड़ीसा के भुवनेश्वर में रामा देवी महिला विश्वविघालय का नाम उनकी स्मृति में रखा गया। अपने पूरे जीवन में समाज कल्याण की दिशा में काम करने वाले रमा देवी ने 22 जुलाई 1985 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था।

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