स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य अतरंगी रे: मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर गढ़ी गई एक असंवेदनशील कहानी

अतरंगी रे: मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर गढ़ी गई एक असंवेदनशील कहानी

फिल्म में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे का प्रयोग इसे ड्रामैटिक और मनोरंजक बनाने के लिए किया गया है। एक गंभीर विषय को मात्र मनोरंजन का विषय बना दिया गया है।

आज भारतीय सिनेमा जगत की हर फिल्म कोई न कोई संदेश ज़रूर देती है। निर्देशक, निर्माता आज सिनेमा के माध्यम से समाज के उन मुद्दो को उठा रहे हैं जिन पर सिनेमा जगत, खासकर हिंदी सिनेमा में पहले कभी बात नहीं हुई। लेकिन जब सिनेमा की कहानी के लिए संवेदनशील मुद्दों का चुनाव किया जाता है तब ज़रूरत होती है कि कहानी उन लोगों या समुदाय के प्रति संवेदनशील हो। हाल ही में निर्देशक आनंद एल राय द्वारा की फिल्म ‘अतरंगी रे’ ओटीटी प्लैटफॉर्म हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई है। फिल्म की कहानी मानसिक स्वास्थ्य के इर्द-गिर्द बुनी गई है। हालांकि, फिल्म में बेहद असंवेदनशील, बेतरतीब तरीके से मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को एक मज़ाकीय ढंग में दर्शाया गया है।

फिल्म का नाम है ‘अतरंगी रे,’ संभव है कि यह नाम फिल्म की मुख्य किरदार रिंकु (सारा अली खान) के लिए ही इस्तेमाल हुआ है। अतरंगी शब्द का अर्थ है, ‘अजीब’ यानि जो इंसान अजीब या अलग तरह से व्यवहार करता है, उसे कई बार अतरंगी कहा जाता है। फिल्म में रिंकु को मानसिक रूप से बीमार दिखाया गया है। पहला सवाल तो यहीं खड़ा हो जाता है कि क्या किसी बीमारी से जूझ रहे इंसान को आप अजीब कहकर संबोधित कर रहे हैं या फिर इसका यह संकेत है कि मानसिक रोग से जूझ रहे लोग अजीब होते हैं?

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मानसिक स्वास्थ्य को मनोरंजन तक सीमित करती फिल्म

फिल्म में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे का प्रयोग इसे ड्रामैटिक और मनोरंजक बनाने के लिए किया गया है। एक गंभीर विषय को मात्र मनोरंजन का विषय बना दिया गया है। फिल्म में धनुष (विषु) और आशीष वर्मा (मधुसूदन, एमएस) डॉक्टर्स की भूमिका में हैं। बावजूद इसके यही किरदार मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सबसे असंवेदनशील रवैया अपनाते हैं। हालांकि, फिल्म में दिखाया गया है कि मेडिकल साइंस से मानसिक बीमारी को ठीक किया जा सकता है लेकिन फिल्म में रोगी को ठीक करने के उद्देश्य से उसे दवाईयां नहीं दी गई बल्कि इसलिए उसका इलाज किया गया ताकि वह ठीक होकर एक अच्छी पत्नी बन सके। इलाज के ठीक पहले एमएस अपने दोस्त विषु से पूछता है, “लड़की चाहिए? तो हमें इसकी दवाइयां शुरू करनी पड़ेंगी।”

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभार: Twitter

एमएस के बहुत से डायलाग ऐसे हैं जो गलत हैं, असंवेदनशील हैं और उन्हें सामान्य नहीं मानना चाहिए। एक जगह वह कहता है, “आई एम अ साइकेट्रिस्ट,आई अंडरस्टैंड वुमेन,” यानि मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं और मैं औरतों को समझता हूं। एक दृश्य में वह कहता है जहां अलग-अलग मानसिक विकारों से जूझ रहे लोगों को बैठा दिखाया जाता है, “ये सभी लोग मेरे मरीज हैं और सब में अल्ज़ाइमर, बाइपोलर, ओसीडी, सिजोफ्रेनिया भरा पड़ा है, किसी को सज्ज़ाद (अक्ष्य कुमार) दिखे ना दिखे इन्हें जरूर दिख रहा है।” यह बात अत्यंत असंवेदनशील और गलत है। सभी अलग-अलग प्रकार के मानसिक रोगों को हलूसनैशन (hallucination) से जोड़ना गलत और समस्याजनक है। इसके साथ ही सज्जाद का दिखना रिंकु की अपनी भ्रमित सच्चाई थी, पर यह कैसे संभव हो सकता है कि वहां बैठे सभी मानसिक रोगी सज्जाद को देख सकते हैं। साफ ज़ाहिर है कि फिल्म के बनाने के लिए मानसिक बीमारियों पर शोध करने में ज्यादा प्रयास नहीं किया गया है। हर बीतते सीन के साथ फिल्म और अधिक असंवेदनशील होती जाती है।

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क्या होता है सिजोफ्रेनिया

फिल्म की नायिका रिंकु जिस मानसिक समस्या से जूझती दिखाई गई है वह सिजोफ्रेनिया है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग पूरी फिल्म में कही नहीं होता है। दर्शकों को इस बीमारी और इसके कारणों से परिचित नहीं कराया जाता है। सिजोफ्रेनिया एक मानसिक बीमारी है, इसका मुख्य कारण मस्तिष्क में कुछ रासायनिक असंतुलन का होना है। जब मस्तिष्क में रासायनिक स्तर बढ़ जाता है, तो यह मनोविकृति और सिजोफ्रेनिया के लक्षण पैदा करता है। इस मानसिक समस्या का मूल कारण बाइलोजिकल होता है। कुछ मामलों में मरीज को हलूसनैशन भी हो सकता है। मतलब मरीज किसी ऐसी चीज को देख, सुन और महसूस कर सकता है जो वास्तव में मौजूद नहीं होती है। दवाइयों से इसका इलाज संभव है।

साल 2017 में आई भारतीय चिकित्सा शोक्ष परिषद की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर सात में से एक व्यक्ति मानसिक रोग से पीड़ित पाया गया। साल 1990 की तुलना में साल 2017 में मानसिक रोगियो की संख्या दोगुनी पाई गई। इसमें सबसे अधिक अवसाद, एंग्जाइटी और सिजोफ्रेनिया के मरीज थे। बीते साल दिसंबर में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में कहा था कि भारत में लगभग 10.6 फीसदी युवा किसी न किसी मानसिक विकार का सामना करते हैं। एक ऐसा देश जिसकी आबादी का बड़ा हिस्सा मानसिक समास्याओ से पीड़ित है वहां इसको लेकर जागरूकता का न होना पहले से ही एक गंभीर समस्या है।

मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को आज भी हमारे समाज में ‘पागल’ कहा जाता है। लोग मानसिक बीमारी का मज़ाक उड़ाते हैं, इसे बीमारी की तरह देखते ही नहीं हैं। ऐसे असंवेदनशील समाज में इस तरह की फिल्में बड़े पैमाने पर मानसिक बीमारी के प्रति मौजूद पूर्वाग्रहों को और मज़बूत करने का काम ही कर रही हैं। यह आम जनता पर मानसिक बीमारी का गलत प्रभाव डालती है। भारत को मानसिक बीमारी की समस्याओं के लिए अधिक जागरूकता, संवेदनशीलता और अधिक पेशेवर मदद की उपलब्धता की आवश्यकता है। मानसिक बीमारी को चित्रित करने का यह असंवेदनशील तरीका इसके प्रति हो रहे जागरूकता के प्रयासो को आहत करता है। यदि निर्देशक प्रयोग करने के लिए ऐसे संवेदनशील विषयों का चयन कर रहे हैं, तो उन्हें ऐसे मुद्दों के बारे में सही ज्ञान के साथ साथ अधिक सावधान और संवेदनशील रहने की आवश्यकता है। उन्हें चाहिए की वे जनता व समाज को इस विषय से भावनात्मक स्थर पर जोड़ पाए ना कि इसे उनके लिए एक मनोरंजन का साधन बना दे।

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तस्वीर साभार : Hindustan Times

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