इंटरसेक्शनलजेंडर जेंडर स्टीरियोटाइपिंग : लिंग आधारित पूर्वाग्रह कैसे पितृसत्ता को करते हैं मज़बूत

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग : लिंग आधारित पूर्वाग्रह कैसे पितृसत्ता को करते हैं मज़बूत

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग किसी व्यक्ति के बारे में उसके लिंग के आधार पर बनाई गई धारणा है, जो समाज में उसकी विशेषताओं, व्यवहारों और जिम्मेदारियों को लिंग के अनुसार परिभाषित करती है। उदाहरण के तौर पर हमारा समाज महिलाओं को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो परिवार और परिवार के सदस्यों की सेहत और खानपान का ध्यान रखें और पुरुष को परिवार के मुखिया और संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

समाज में लिंग आधारित रूढ़िवादी सोच या असमानताएं एक दम से नहीं उपजती हैं बल्कि इन्हें बोया जाता है। हर इंसान के बचपन में ही माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्य, स्कूल और समाज के द्वारा इन्हें बोया जाता है। इस तरह एक इंसान बचपन से व्यस्क होने तक के सफर तक रूढ़िवादी, पितृसत्तात्मक सोच और असामनताओं का भरा-पूरा पेड़ बन जाता है। यह बोया गया बीज है जेंडर स्टीरियोटाइपिंग या लिंग रूढ़िबद्धता, जो स्त्री-पुरुष के अंतर को कभी भरने नहीं देता। यह इनके काम, पसंद-नापसंद और व्यवहार को अलग-अलग परिभाषित करके रखता है। बचपन से ही इसकी ट्रेनिंग बच्चों को दी जाती है। जब तक जेंडर स्टीरियोटाइपिंग खत्म नहीं होगा तब तक समाज में जेंडर आधारित असामानताएं बनी रहेंगी।

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग क्या है?

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग किसी व्यक्ति के बारे में उसके लिंग के आधार पर बनाई गई धारणा है, जो समाज में उसकी विशेषताओं, व्यवहारों और जिम्मेदारियों को लिंग के अनुसार परिभाषित करती है। उदाहरण के तौर पर हमारा समाज महिलाओं को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो परिवार और परिवार के सदस्यों की सेहत और खानपान का ध्यान रखें और पुरुष को परिवार के मुखिया और संरक्षक के तौर पर जाना जाता है। ये धारणाएं पूरी तरह पर लिंग आधारित हैं। ये काम निर्धारित करने में किसी इंसान की इच्छा, कौशलता, कार्य कुशलता, आदि मानक न होकर उनका व्यक्तिगत लिंग ही मानक होता है। जेंडर स्टीरियोटाइपिंग मौलिक स्वतंत्रताओं का उल्लंघन करता है। कैसे व्यवहार करें और कैसे न करें, इस पर पुरुषों और महिलाओं को समाज के दबाव का सामना करना पड़ता है। यह दवाब उनके लिए शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से नुकसानदायक हैं और उनकी क्षमताओं को सीमित करता है।

और पढ़ें : लैंगिक समानता के बहाने क़ायम जेंडर रोल वाले विशेषाधिकार| नारीवादी चश्मा

महिलाओं और पुरुषों से पितृसत्तात्मक समाज की अपेक्षाएं

महिलाओं और पुरुषों से समाज द्वारा उनके लिंग के आधार पर की जाने वाली अपेक्षाएं बहुत अलग-अलग हैं। इसमें पुरुषों को महिलाओं पर अधिकार दिया जाता है और महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे इसका पालन करें। पुरुषों से उम्मीद की जाती है कि महिलाओं की हर ज़रूरत की चीज़ वे ही उन्हें मुहैया कराए और बदले में महिलाएं उनकी और परिवार की देखभाल करेंगी। पैसे से संबंधित या परिवार से संबंधित सभी मुख्य फैसलों पर भी सिर्फ पुरुषों का ही अधिकार होता है। महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पिता या पति के द्वारा लिए गए निर्णयों का सम्मान करें और घर के बड़ों के सामने अपनी असहमति न ज़ाहिर करें, अपने अधिकार की बात न करें और ऊंची आवाज में न बोलें।

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग किसी व्यक्ति के बारे में उसके लिंग के आधार पर बनाई गई धारणा है, जो समाज में उसकी विशेषताओं, व्यवहारों और जिम्मेदारियों को लिंग के अनुसार परिभाषित करती है।

पुरुषों को घर का करता-धरता माना जाता है, इसलिए उनकी शिक्षा को भी महत्त्व दिया जाता है। महिलाओं से सिर्फ चुल्हे-चौके और बच्चों की परवरिश की उम्मीद करता ये समाज उनकी शिक्षा को या तो कुछ कक्षाओं तक सीमित कर देता है या पूरी तरह नज़रअंदाज़ करता है। समाज की यह धारणाएं सिर्फ स्त्री-पुरुष व्यवहार को लेकर ही नहीं होती बल्कि उनकी शारीरिक विशेषताओं को भी परिभाषित करती हैं। महिलाओं के लिए पतला शरीर, गुलाबी होंठ, गौरा रंग, चमकदार बाल, ये सभी सुंदरता के मानक हैं। वहीं पुरुष जब लंबे कद और मजबूत शरीर के हो तो ही उन्हें आकर्षक माना जाता है। इन सुंदरता मानकों पर खरे न उतरने वाले स्त्री और पुरुष समाज के तानों और असंवेदनशीलता का शिकार होते हैं। महिलाएं सहनशील हो, शांत हो, उनका पहनावा, बातचीत का तरीका, बैठने का तरीका समाज के अनुसार मर्यादापूर्ण हो और उन्हें बेवजह या खुलकर सार्वजनिक रूप से नहीं हंसना चाहिए जबकि पुरुषों को आत्मविश्वासी समझा जाता है और उनके बोलने या हंसने पर ऐसा कोई दबाव नही होता है।

और पढ़ें : पितृसत्ता के बदले रंग के बीच महिलाओं के बुनियादी अधिकार

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग से बढ़ती है हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याएं

हमारा समाज पुरुषों को महिलाओं से कही अधिक ताकत और अधिकार देता है। समाज पुरुषों को सिखाता है कि महिलाओं पर उनका अधिकार है और महिलाएं हमेशा पुरुषों के अधीन होनी चाहिए। पुरुषों को मजबूत और आक्रामक होने की सीख देती पितृसत्तात्मक समाज की धारणाएं मैरिटल रेप जैसे यौन उत्पीड़न और महिलाओं के प्रति होने वाली घरेलू हिंसा को सामान्य बनाती हैं। हमारा समाज महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम आंकता है, उनकी क्षमता पर सवाल खड़ा किया जाता है। मौजूद संसाधनों पर महिलाओं का पुरुषों के अनुरूप कम अधिकार होता है, महिलाओं के अधिकारों का सम्मान और समर्थन नहीं किया जाता। इन सब के परिणामस्वरूप महिलाओं के प्रति शारीरिक हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों में वृद्धि होती है।

हालांकि, समाज में पुरुष अधिक ताकत और अधिकार रखता है लेकिन पुरुषों से समाज की जो उम्मीदें और धारणाएं है वे उनके लिए अत्यधिक दवाब का कारण बनती हैं। उन्हें अपनी शिक्षा और अच्छे भविष्य को लेकर मानसिक दबाव सहना पड़ता है। पुरुषों पर एक अच्छी कमाऊ नौकरी करने का दबाव हर वक्त रहता है क्योंकि समाज की नजरों में आदर्श पुरुष वही है जो परिवार को आर्थिक तंगी न होने दे। परिवार की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा न कर पाने वाले पुरुष को समाज एक अच्छा पिता, पति और भाई नहीं मानता है। ये दवाब वे अक्सर किसी से साझा भी नहीं करते। उन पर हर वक्त मजबूत दिखने और खुद की भावनाओं और संवेदनाओं को दबाकर रखने का दवाब होता है क्योंकि उन्हें परिवार का संरक्षक माना जाता है, इसलिए वे कमजोर अथवा भावुक नही हो सकते हैं।

जागरूकता और जेंडर न्यूट्रल शिक्षा की आवश्यकता

जेंडर स्टीरियोटाइपिंग की शिक्षा हमें बचपन से दी जाती है। जब एक बच्चा अपनी माँ को सिर्फ घर का काम और पिता को बाहर काम करते देखकर बड़ा होता है, तो यही सीखता भी है। वह सीखता है कि रोटियां बनाना केवल माँ का काम है और आटा खरीदने के लिए पैसे कमाना पिता का काम है। जब बेटी को खिलौने में गुड़िया और किचन सेट दिया जाता है और बेटे को गाड़ी या कोई काल्पनिक सुपर हीरो, तब हम उन्हें यह सीखने पर मजबूर करते हैं कि खिलौने भी लिंग के आधार पर पसंद करने चाहिए।

हमारी सोसाइटी, फिल्में, सीरियल, विज्ञापन आदि हमें व्यवस्थित तरीके से लिंग रुढ़िवादी सोच परोसते हैं। विज्ञापन महिलाओं की शारीरिक सुंदरता का मानक दर्शाते हैं, सीरियल महिलाओं को आदर्श महिला होने का पाठ पढ़ाते हैं और फिल्में नायक को महिलाओं का संरक्षक दर्शाती हैं। ना चाहते हुए भी खुद को समाज की इन धारणाओं से बचाना मुशकिल प्रतीत होता है। यह सोच हमारी सोच-समझ को प्रभावित करती है। साथ ही जेंडर को सिर्फ स्त्री और पुरुष तक सीमित रखती है। इसमें ट्रांस, नॉन बाइनरी, एलजीबीटी+ समुदाय को अलग रखा जाता है। इसलिए समाज में इसके प्रति जागरूकता और जेंडर न्यूट्रल शिक्षा की ज़रूरत है, ताकि स्त्री-पुरुष की बीच असमानताओं के इस अनुमानित अंतर को खत्म किया जा सके।

और पढ़ें : पितृसत्ता में लड़कियों की ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग होती है| नारीवादी चश्मा


तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content