इतिहास इडा बी वेल्स की नज़रों से समझते हैं आज के पत्रकारिता जगत में महिलाओं की चुनौतियां

इडा बी वेल्स की नज़रों से समझते हैं आज के पत्रकारिता जगत में महिलाओं की चुनौतियां

पत्रकारिता की दुनिया को वेल्स ने एक नायाब संदेश दिया है। वह कहती हैं, "ग़लत को सही करने का एकमात्र तरीक़ा है कि सच पर रोशनी डाली जाए।"

साल 2021 में ‘डेली आई’ को दिए एक इंटरव्यू में ‘ख़बर लहरिया’ की वरिष्ठ पत्रकार मीरा देवी अपने अनुभव बताती हैं कि एक महिला पत्रकार के रूप में उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। ऐसा इसलिए क्योंकि पत्रकारिता को महिलाओं का काम नहीं माना जाता है। ग्रामीण इलाके में काम करनेवाली एक दलित महिला रिपोर्टर होने के कारण उनकी परेशानियों की लिस्ट लंबी है। सवर्ण जाति के लोग रिपोर्टिंग से जुड़ी बातचीत में सहयोग नहीं करते हैं। जातिगत हिंसा रिपोर्ट करना उनके लिए अपनी निजी पहचान के कारण ट्रिगरिंग हो जाता है। वह कहती हैं, “मुझे अपनी जाति याद आ जाती है लेकिन रिपोर्ट करते हुए मैं उसे ज़ाहिर नहीं करती।” कई बार सरकारी बाबुओं ने, “जाइए जो लिखना है लिखिए” कहते हुए पूछे गए सवालों को टाला है।

मीरा देवी की दिक्कतें यहीं ख़त्म नहीं होतीं। पुरुष पत्रकारों की तुलना में चुनावी रैलियों के लिए ग्राउंड रिपोर्टिंग करते हुए उन्होंने भेदभाव का सामना किया है। उन्हें भीड़भाड़ के बीच ख़बर या तस्वीरों के लिए अपना सेटअप कहीं और लगाना पड़ जाता है। चित्रकूट जिले से शुरू हुई ‘ख़बर लहरिया‘ पत्रकारिता जगत में एक अनोखा प्रयोग है, एक नई तरह की आवाज़ है। कारण, इसे चलानेवाली महिलाएं और लड़कियां यूपी और एमपी के बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़े से हैं। साल 2002 से इस संस्थान से जुड़ीं संपादक कविता बुंदेलखंडी बताती हैं, “पत्रकारिता की दुनिया मर्दों की दुनिया मानी जाती है, हमने सोचा इसपर चोट पहुंचाना ज़रूरी है। हमने महिलाओं को पत्रकारिता के क्षेत्र में उतारा।” 

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किसी बड़े पत्रकारिता संस्थान से बिना पढ़े उन्हें ये बात मालूम है कि जो ख़बरें सबसे सुदूर इलाक़े की हैं, वहां की जो समस्याएं हैं, उन्हें सरकार और लोगों की नज़रों तक लाना कितना ज़रूरी है। इनकी यात्रा पैदल 4-6 किलोमीटर चलकर अख़बार पहुंचाने से शुरू हुई थी। आज भी उन्हें रिपोर्टिंग के लिए इतनी ही मेहनत करनी पड़ती है। ‘ख़बर लहरिया’ पर बनी शार्ट डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘Writing with fire‘ ऑस्कर 2022 के लिए शार्टलिस्ट की गई। Sundance फ़िल्म फेस्टिवल 2021 में इस फ़िल्म को पुरस्कृत भी किया गया। 

समकालीन समय में महिला पत्रकार जो समस्याएं झेल रही हैं वह इतिहास में लंबे समय से चलती आ रही समस्या है। ख़ासकर तब जब उनके साथ जुड़ी अन्य सामाजिक पहचान उनके निजी और कामकाजी अनुभवों को और जटिल बना देती हैं। इडा बी वेल्स बर्नेट पत्रकारिता की दुनिया में एक ऐसा ही नाम हैं। खोजी पत्रकारिता में उन्होंने बहुत अहम काम किए हैं। मार्च 1892 में उनके तीन दोस्तों को केवल इसलिए लिंच कर दिया गया था क्योंकि उनकी ग्रॉसरी की दुकान से अगल-बगल के श्वेत दुकानदारों को दिक़्क़त थी।

पत्रकारिता की दुनिया को वेल्स ने एक नायाब संदेश दिया है। वह कहती हैं, “ग़लत को सही करने का एकमात्र तरीक़ा है कि सच पर रोशनी डाली जाए।”

इडा वेल्स ने जब इस बारे में अपने अख़बार में लिखा तो श्वेत नागरिकों के एक समूह द्वारा उनके ऑफिस को जला दिया गया। वेल्स ने कई ब्लैक नागरिकों को लेकर काम करनेवाले अखबारों में इंवेस्टिगेटिव लेख लिखे। लिंचिंग को किस तरह से ब्लैक नागरिकों के मन में डर पैदा करने और उन्हें एक सामाजिक और राजनीतिक शक्ति के तले दबाने के लिए प्रयोग किया जाता है, इस बारे में वेल्स की रिपोर्ट्स ग्राउंड ज़ीरो से तथ्य लेकर आती थीं। ये लिंचिंग की घटनाएं पहले से सुनियोजित तरीक़े से होती थीं, जिसमें स्थानीय पुलिस भी मदद करती थी।

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वेल्स ने अपने निजी जीवन में ब्लैक होने के कारण कई यातनाएं झेली थीं। उनका जन्म ग़ुलामी में हुआ था। 16 साल की उम्र में उनके माता-पिता और भाई पीला बुख़ार महामारी के शिकार हो गए। निजी और सावर्जनिक जब किसी को बार-बार प्रभावित करता है, उनके लिए उस प्रभाव के पीछे के कारणों को नजरअंदाज करना मुश्किल होता है। इसलिए इडा वेल्स का नज़रिया, उनके काम और उनके लक्ष्य एक साझा संघर्ष की बात करते हैं। 

इडा वेल्स का काम ग्राउंड रिपोर्टिंग के ज़रिए लिंचिंग की घटनाओं के पीछे की राजनीति और मंशा बताती है कि कैसे उन्हें ब्लैक्स के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता था। ‘South Horrors: Lynch Law in all its Phases‘ नामक पैम्फलेट और अपने अन्य कामों में ज़मीनी कहानियों के ज़रिए वह बताती हैं कि कैसे दक्षिण अमरीका में जिन अफ़्रीकी-अमरीकी नागरिकों को श्वेत नागरिक आर्थिक और राजनीतिक प्रतियोगी की तरह देखते थे उन्हें लिंच टारगेट बनाते थे। साल 1892 में दिया इडा वेल्स का एक बयान, “किसी को तो दिखाना पड़ेगा कि अफ़्रीकी-अमरीकी नस्ल ने सबसे बुरी यातनाओं से ज़्यादा यातनाएं झेलीं हैं, यह काम करना मेरे जिम्मे आया है।”

पत्रकारिता की दुनिया को वेल्स ने एक नायाब संदेश दिया है। वह कहती हैं, “ग़लत को सही करने का एकमात्र तरीक़ा है कि सच पर रोशनी डाली जाए।” उस समय महिलाएं जिस तरह के पारम्परिक जेंडर रोल्स में बंधी होती थीं वेल्स ने अपने वैवाहिक जीवन में इससे अलग एक स्पेस बनाया था। उनकी शादी में उनके साथी फरडीनैंड ली बर्नेट उनके आइडिया और कामकाज़ के स्तर पर उनके साथी की भूमिका में रहे। 

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पत्रकारिता जगत महिलाओं के लिए मुश्किल जगह रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है। जैसे करियर को लेकर जिस तरह से परिवार और काम के बीच महिलाओं को चयन की समस्या झेलनी पड़ती है वह पुरुषों के साथ नहीं होता। उनके साथ भेदभाव न सिर्फ़ ग्राउंड पर बल्कि न्यूज़ रूम में भी होता है। ‘तहलका’ मैगज़ीन के संपादक तरुण तेजपाल केस में कोर्ट द्वारा कहा जाना कि पीड़ित महिला यौन उत्पीड़न की पीड़िता जैसा व्यवहार नहीं कर रही थीं न्यूज़रूम में काम करनेवाली कई महिलाओं के बीच जिस तरह का संदेश देता है वह कहीं से भी महिला पत्रकार के लिए सेफ़ स्पेस बनाने की बात नहीं सामने रखता। 

महिलाओं और पत्रकारिता पर बात करते हुए कई ऐसे नाम आएंगे जिनको इतिहास ने कभी उनके हिस्से का सम्मान नहीं दिया। ग्राउंड पर काम करनेवाली महिला पत्रकारों की दिक्कतों पर जेंडर और सामाजिक न्याय के लेंस से बात की जाने की, न्यूज़ रूम के अंदर की सेक्सिज़म के दस्तावेज़ीकरण पर काम करने की यात्रा लंबी होगी। 

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तस्वीर साभार : Teen Vogue

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