इंटरसेक्शनलहिंसा हमारा समाज घरेलू हिंसा को पारिवारिक मसला क्यों मानता है ?

हमारा समाज घरेलू हिंसा को पारिवारिक मसला क्यों मानता है ?

पितृसत्ता ने मर्दों को हमेशा ही पावर स्ट्रक्चर में सबसे ऊपर रखा है। यही पावर स्ट्रक्चर मर्दों की हिंसा को हर तरीके से सही बताती है। मर्द हिंसा इसलिए नहीं करते क्योंकि यह समाज कहता है कि हिंसा करना सही है, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है औरतों के साथ हिंसा करना उनका हक़ है।

“ऊंची आवाज़ में बात ही तो की है, मर्द करते हैं ऐसा, जाने दो!! क्या हुआ अगर थप्पड़ मार दिया, मर्द होते ही ऐसे हैं, तुम्हें समझना चाहिए..औरत हो सहने की ताकत है तुम में, हल्की सी मार-पीट पर घर नहीं छोड़ा करते, छोटी-छोटी बातें इग्नोर करने से ही रिश्ता बचा रहता है।”

हिंसा सहने की आदत डालो, थप्पड़ पड़े तो नज़रअंदाज़ करो, हिंसा करना मर्दों की आदत है। तभी तो आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर तीन में एक औरत जिसकी उम्र 15 साल से अधिक है, उसने अपने जीवन में हिंसा का सामना किया होता है। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज की ये ट्रेनिंग इतनी मज़बूत है कि खुद औरतों को भी लगने लगता है कि उनके साथ होनेवाली हिंसा जायज़ है। ऐसे कई आंकड़े भारत के संदर्भ में आपको मिल जाएंगे जिनसे ये साबित होता है कि घरेलू हिंसा को हमारे देश में कितना नॉर्मल माना जाता है। अभी हाल ही में नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का डेटा बताता है कि 14 राज्यों और यूनियन टेरिटरीज़ की 30 फीसद औरतें ये मानती हैं कि कुछ परिस्थितियों में मर्दों का अपनी बीवियों को पीटना जायज़ है।

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता मर्दों को हिंसा करने का लाइसेंस देती है

अपने पति की इजाज़त के बिना बाहर जाना, सेक्स के लिए मना करना, खाना सही से न बनाना, अपने सास-ससुर की सेवा न करना, परिवार के मर्दों की इज्ज़त न करना, अपनी मर्ज़ी से पैसे खर्च करना, पानी या खाना बनाने के लिए लकड़ी न लाना,  ये चंद वजहें हैं जिसके कारण हमारे देश के मर्द अपनी पत्नियों को पीटना सही मानते हैं। ये बातें पिछले साल ऑक्सफैम द्वारा किए गए सर्वे में सामने आई थीं।

पितृसत्ता ने मर्दों को हमेशा ही पावर स्ट्रक्चर में सबसे ऊपर रखा है। यही पावर स्ट्रक्चर मर्दों की हिंसा को हर तरीके से सही बताती है। मर्द हिंसा इसलिए नहीं करते क्योंकि यह समाज कहता है कि हिंसा करना सही है, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है औरतों के साथ हिंसा करना उनका हक़ है। आपने ज़रूर सुना होगा, एक मर्द को दूसरे मर्द को यह सलाह देते हुए कि अपनी बीवी की लगाम कसकर रखना, ज्यादा सिर पर मत चढ़ने दिया करो इन औरतों को।

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दिक्कत हमारे पारिवारिक ढांचे में है

हमारे हेट्रोसेक्सुअल पितृसत्तात्मक परिवारों में घरेलू हिंसा महिलाओं को कंट्रोल में रखने का एक ज़रिया माना जाता है। जिस मनुस्मृति से ये पितृसत्ता हमारे समाज में संचालित होती है उसमें भी कहा गया है, रात हो या दिन महिलाओं को हमेशा पुरुषों और अपने परिवार के अधीन ही रहना चाहिए। औरतों की ट्रेनिंग ही इस हिसाब से की जाती है कि शादी के बाद उनकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी पति और ससुराल वालों का कहना मानना है। अगर उनके साथ हिंसा होती भी है तो मायकेवाले भी यही कहते हैं, “एडजस्ट कर लो!!! शादी निभाना एक औरत की ज़िम्मेदारी होती है,” और हिंसा को जस्टिफाई करने की एक लंबी लिस्ट पेश कर दी जाती है। पितृसत्तात्मक परिवारों द्वारा दी गई यही कंडीशनिंग एक बड़ी वजह है कि महिलाएं अपने साथ होनेवाली घरेलू हिंसा को रिपोर्ट ही नहीं करती। तभी तो भारत में घरेलू हिंसा महिलाओं के साथ होनेवाली सबसे आम हिंसा होने के साथ-साथ सबसे कम रिपोर्ट की जानेवाली हिंसा भी है।

पितृसत्ता ने मर्दों को हमेशा ही पावर स्ट्रक्चर में सबसे ऊपर रखा है। यही पावर स्ट्रक्चर मर्दों की हिंसा को हर तरीके से सही बताती है। मर्द हिंसा इसलिए नहीं करते क्योंकि यह समाज कहता है कि हिंसा करना सही है, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है औरतों के साथ हिंसा करना उनका हक़ है।

“ये एक पारिवारिक मसला है”

1970-80 के दशक में जब भारत में दहेज हत्या के ख़िलाफ प्रदर्शन अपने चरम पर थे तब दिल्ली में एक केस आया था कंचन चोपड़ा का। इस मामले में कंचन के भाई ने दहेज उत्पीड़न का केस दर्ज करवाया। हालांकि पुलिस ने केस रजिस्टर करने से मना यह कहते हुए कर दिया कि यह मसला पारिवारिक है। अगले दिन कंचन की मौत हो गई। कंचन का यह केस उन हज़ारों-लाखों मामलों में से एक है जिन्हें हमारा कानून इसलिए रजिस्टर नहीं करता क्योंकि घरेलू हिंसा को आज भी हमारा समाज पारिवारिक मसला मानता है। जो महिलाएं इस हिंसा के ख़िलाफ रिपोर्ट करवाने का फैसला कर भी लेती हैं उन्हें सलाह दी जाती है समझौता करने की।

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की सर्वाइवर 86 फीसदी महिलाओं ने इस दौरान किसी की मदद नहीं ली और 77 फीसदी सर्वाइवर्स ने इसका ज़िक्र तक किसी से नहीं किया। घरेलू हिंसा को हमारा कानून एक अपराध मानता है।फिर ये किसी का पारिवारिक मसला कैसे हो सकता है? दरअसल, हमारी न्याय व्यवस्था, पुलिस महकमे में काम करनेवाले लोग इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं। उनकी कंडीशनिंग भी इसी समाज ने की है।

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घरेलू हिंसा को पहचानना ज़रूरी

घरेलू हिंसा को लेकर हमारे समाज में एक और प्रॉबलमेटिक सोच ये है कि घरेलू हिंसा का मतलब महिलाओं को शारीरिक रूप से चोट पहुंचाना है। यहां हम महिलाओं के साथ उनके पार्टनर्स द्वारा की जानेवाली हिंसा के दूसरी तरीकों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

  • आर्थिक हिंसा : जब औरतों के पैसों, उनके फाइनेंस पर उनका अधिकार छीन लिया जाए। उन्हें किसी भी तरह की आर्थिक ज़रूरत के लिए पति पर निर्भर रहना पड़े। 
  • मानसिक हिंसा : जब औरतों को ताने, धमकियां देकर, डराकर रखा जाए, मानसिक रूप से उनका उत्पीड़न किया जाए।
  • भावनात्मक हिंसा : लगातार जब किसी की आलोचना की जाए, उनसे बुरा व्यवहार किया जाए।
  • यौन हिंसा : शादी सेक्स करने का लाइसेंस नहीं होता। ऐसे तो हमारे देश में मैरिटल रेप आज भी एक अपराध नहीं है पर शादी के रिश्ते के अंदर भी महिलाओं के साथ यौन हिंसा होना आम है।
  • इंटिमेट पार्टनर वॉयलेंस : यह भी दो पार्टर्नस के बीच हिंसा का एक प्रमुख रूप है। शादी, डेटिंग या लिव-इन रिलेशनशिप में एक साथी का दूसरे साथी को शारीरिक, मानसिक या यौन आघात पहुंचाना इंटिमेट पार्टनर वायलेंस कहलाता है।

भले हमारे ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज ने घरेलू हिंसा को नॉर्मलाइज़ कर दिया है, लेकिन अलग-अलग दौर में नारीवादी आंदोलनों और संगठनों ने इसके ख़िलाफ़ मज़बूती से अपनी आवाज़ दर्ज की है। हमारे कानून ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होनेवाली हिंसा को पहचाना है, बदलाव किए हैं। ज़रूरत है हर हिंसा के हर छोटे से छोटे रूप के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष करने की क्योंकि ये ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक स्ट्रक्चर एक दिन में ढहने नहीं वाला। इसके ख़िलाफ़ हर दिन हमें लड़ना होगा।

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तस्वीर : मारवा एम फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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