इंटरसेक्शनलशरीर कैसे बॉडी शेमिंग पर बचपन से मिली ट्रेनिंग को हम आत्मसात कर लेते हैं

कैसे बॉडी शेमिंग पर बचपन से मिली ट्रेनिंग को हम आत्मसात कर लेते हैं

सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इस तरह की बॉडीशेमिंग परिवारों में इतनी आम होती है की इसको कोई बुरा समझता भी नहीं है। हमने बचपन से ही सुंदरता के बने-बनाए पितृसत्तात्मक ढांचे को अपने अंदर इस तरह फिट कर लिया है कि हमारे शरीर पर की जानेवाली इस तरह की टिप्पणियां हमें हमारे 'शुभचिंतकों' की सलाह लगती हैं।

औरतें को शरीर और चेहरे के आगे कम ही देखा जाता हैं। हमारे समाज में सुंदर दिखना ‘अच्छी औरत’ होने का प्रमुख मापदंड माना जाता है। आमतौर पर सुंदरता का भी हमारे समाज में एक खाका पहले से ही तैयार किया गया है। इसके हिसाब से केवल वही औरतें सुन्दर हैं जो उस खाके में फिट होती हैं, बाकि औरतों को न तो यह समाज अपना पाता है और न ही उन्हें अपने आप को अपनाने की स्वीकृति देता है। ‘परफेक्ट बॉडी या परफेक्ट कलर‘ जैसी कोई बात वास्तव में होती ही नहीं है। ये बातें पितृसत्ता ने गढ़ी हैं जिसके आधार पर लोगों को जज किया जाता आ रहा है।

भारतीय समाज में छरहरी काया, सुडौल शरीर और गोरे रंग वाली लड़कियां ही खूबसूरत मानी जाती हैं। हम सबको इसी पैमाने के तहत सबको देखना सिखाया जाता है। इस कारण लोग अपने रूप-रंग और छवि को भी नकार देते हैं।। यह बात यहां तक आ पहुंची है कि पितृसत्ता के खूबसूरती के पैमाने से अलग हमारे शरीर पर जब टिप्पणियां की जाती है तो एक वक्त के बाद वह इंसान को बहुत ज्यादा नहीं अखरती है। क्योंकि हमें बचपन से इतनी बार टोका गया कि कहीं न कहीं हमने इस बात को अपने अंदर आत्मसात कर लिया है और तो और हम भी सबके अनुसार खुद को उसी आकार में ढ़ालने की कोशिश में लगे रहते हैं।

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कैसे किया आत्मसात

हम अगर गौर करेंगे तो समझ पाएंगे कि हमारे शरीर के प्रति जो भावना हमारे मन में होती है वह कहीं न कहीं हमारे परिवार से ही आती है। जिन लड़कियों को इन पितृसत्तात्मक पैमानों के आधार पर बचपन से सराहा जाता है वे आगे जाकर भी अपने आप को लेकर आत्मविश्वासी होती हैं। वहीं, दूसरी ओर जिनको शुरू से ही तरह-तरह के टिप्स दिए जाते हैं कि वे खुद को ‘बेहतर’ कैसे बना सकती हैं, उनमें अपने आप को लेकर हीन भावना का विकास होता है।

हम बचपन से हो रही बॉडी शेमिंग के साथ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि हमने यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की कि गोरा रंग, लंबा कद, पलता शरीर ही क्यों खूबसूरती के तथाकथित पैमानों में शामिल है, मेरा अपना शरीर क्यों नहीं। खूबसूरती का यह बेंचमार्क किसने तय किया है? किसने हमें यह बताया कि कौन सा रंग खूबसूरत है और कौन नहीं। आइडियल वेट क्या है और क्या नहीं?

इस तरह बॉडी शेमिंग की शुरुआत मूलतः हमारे घर से ही होती है। जन्म से ही परिवार के लोग बच्चे को उसके रूप-रंग के आधार पर जज करने लगते हैं। बाद में किसी भी तरह के पारिवारिक समारोह में जुटने के बाद भी तमाम जरूरी मुद्दों से अलग सबसे रोचक चर्चा का विषय यह होता है कि कौन कैसा दिखता है। मज़ाक-मज़ाक में किसी के शरीर पर टिप्पणी कर देते हैं। ये बातें इतनी साधारण हो गई हैं कि सुनने वाला पक्ष इसको साधारण ही मानता है।

जैसे पतली लड़कियों को हर बात पर यह महसूस करवाना कि वे पतली हैं। उनको क्या खाना चाहिए इसकी सलाह देना, उनके शरीर पर टिप्पणी करना, उनका आत्मविश्वास गिरना। “उन्हें ढंग का खाना नहीं मिलता, वे खाती हैं तो उनके शरीर को क्यों नहीं लगता, पतली लड़कियां लड़कों को पसंद नहीं आती” जैसे मज़ाक किए जाते हैं। सांवली लड़कियों को गोरे होने की क्रीम्स लगाने की सलाह दी जाती है। पतली लड़कियों को वजन बढ़ाने की सलाह दी जाती है, मोटी लड़कियों को पतला होने की सलाह दी जाती है।

लड़कियों से यह शायद ही पूछा जाता है कि वे अपने शरीर में सहज हैं या नहीं, वे अपने अंदर ये बदलाव चाहती भी हैं या नहीं। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इस तरह की बॉडी शेमिंग परिवारों में इतनी आम होती है कि इसको कोई बुरा समझता भी नहीं है। हमने बचपन से ही सुंदरता के बने-बनाए पितृसत्तात्मक ढांचे को अपने अंदर इस तरह फिट कर लिया है कि हमारे शरीर पर की जानेवाली इस तरह की टिप्पणियां हमें हमारे ‘शुभचिंतकों’ की सलाह लगती हैं।

और पढ़ें : पितृसत्ता के विचारों पर ही आगे बढ़ रहा है सुंदरता और फिटनेस का बाज़ार

ये बातें यहीं पर खत्म नहीं होती बल्कि हमारे साथ-साथ चलती रहती हैं। चाहे फिर वह हमारा हमारे दोस्त हो, स्कूल हो, कॉलेज हो या फिर हमारे काम करने की जगह, बॉडी शेमिंग हमारे साथ-साथ चलती है। हमारे दोस्तों में अक्सर हम कैसे दिखते हैं, इसके आधार पर हमारे निकनेम रखे जाते हैं जो कि वक़्त के साथ हमारे अपने नाम से ज्यादा इस्तेमाल होने लगते हैं। हमें जितनी बार उस नाम से बुलाया जाता है उतनी बार हमारी बॉडी शेमिंग होती है और ये बात हमें बुरी भी नहीं लगती है। स्कूल में हमारी स्कर्ट की लम्बाई पर टिप्पणी की जाती है। हाई स्कूल में पहुंचने के बाद ड्रेस कोड को बदलकर सूट कर दिया जाता है जिससे कि हमारा शरीर ढका रहे। अच्छे से दुप्पट्टा ओढ़ने की सलाह दी जाती है और हर संभव तरीके से हमें हमारे ही शरीर के साथ असहज कर दिया जाता है। हम बहुत ही आसानी से ये बात मानते भी हैं, हमें इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता या यूं कहें कि हम इसे सोचने-समझने जैसी बात मानते भी नहीं। 

अक्सर वर्कप्लेसेस पर भी हमें हमारे जेंडर और शारीरिक बनावट के अनुसार कपड़े पहनने की सलाह दी जाती है। बॉडी शेमिंग कितनी सामान्य बात है, इसका अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं की हमारे फैशन में भी शारीरिक सुंदरता की पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी धारणा को शामिल कर लिया गया है। अगर हम हर ‘शेप और साइज़’ की इज्ज़त करते तो शायद स्लिम बेल्ट, हील्स, पुशअप ब्रा जैसे असहज फैशन का इजाद ही नहीं हुआ होता।

हम बचपन से हो रही बॉडी शेमिंग के साथ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि हमने यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की कि गोरा रंग, लंबा कद, पलता शरीर ही क्यों खूबसूरती के तथाकथित पैमानों में शामिल है, मेरा अपना शरीर क्यों नहीं। खूबसूरती का यह बेंचमार्क किसने तय किया है? किसने हमें यह बताया कि कौन सा रंग खूबसूरत है और कौन सा नहीं। आइडियल वेट क्या है और क्या नहीं? हमने किसी को जज करने की अनुमति ही क्यों दी?

दरअसल, हमने बॉडी शेमिंग को अपने अंदर इस तरह इंटरलाइज कर लिया है की अब ये हमें रोज़मर्रा हो रहे घटनाओं का ही हिस्सा लगता है। हमने अपने आप को अपने असल रूप में अपनाने की सोच को ही अलविदा कह दिया है। हमें जैसा कहा जाता है हम मान लेते हैं। इसका सबसे साधारण उदहारण है फेयरनेस क्रीम्स के विज्ञापन। वो हमें काले से गोरे होने की गारंटी देते हैं और हम गोरे होने के लिए उन उत्पादों का इस्तेमाल भी करते हैं। हमने बॉडी शेमिंग खूबसूरती के बने बनाये ढांचे को आत्मसात कर लिया है और इसको ही सत्य मान लिया है।

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तस्वीर : शुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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